मुस्लिम आक्रमण { Muslim Invasion }
मुस्लिम आक्रमण
- 712 ई. में मुहंम्मद-बिन-कासिम के बाद तुर्को ने इस क्षेत्र में आक्रमण किया। तुर्के, चीन की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं पर रहने वाली एक बर्बर एवं असभ्य जाति थी। इनका उद्देश्य एक विशाल मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना करना था।
- भारत में सबसे पहले गजनी के शासक कुल से संबंधित सुबुक्तगीन ने 977 ईस्वी में आक्रमण किया।वह गजनी में स्वतंत्र तुर्की राज्य स्थापित करने वाले शासक अलप्तगीन का दामाद था।
- सबुक्तगीन के पुत्र महमूद गजनवी ने 1000 ई. से लेकर 1027 ई. के बीच भारत पर 17 बार आक्रमण किए। उसके भारत पर आक्रमण का मुख्य उद्देश्य भारत की धन-संपदा को लूटना था।
- महमूद गजवनी ने अपना पहला आक्रमण 1000ई. में भारत के सीमावर्ती नगरों पर किया।
- महमूद गजनवी पर अपना सोलहवां और सर्वाधिक महत्वपूर्ण आक्रमण 1025 ई. में किया। इस दौरान उसने सोमनाथ को निशाना बनाया तथा वहां के प्रसिद्ध मंदिर को तोड़ दिया और वहां से अपार धन लूट कर ले गया।
- महमूद ने भारत पर अपना सत्रहवां और अंतिम आक्रमण 1027 ई. में किया।
- 1030 ईस्वी में महमूद की मृत्यु हो गयी।
मुस्लिम आक्रमण विस्तार से
भारतीय इतिहास में अरब और भारत संबंध का विशेष महत्त्व है। भारत में सबसे पहले आने वाले मुसलमान अरब हैं। अरब विजय का अध्ययन करने से पूर्व अरबों का परिचय प्राप्त कर लेना अधिक उपयुक्त होगा। अरब शब्द का शाब्दिक अर्थ ललित कथन है। अरब के निवासियों की भाषा प्रसाद गुण युक्त है इसलिए इस क्षेत्र के निवासियों को अरब कहा जाने लगा। कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि अरब में मरूस्थल अधिक हैं इसलिए इस क्षेत्र का यह नाम पड़ा। अरब एशिया महाद्वीप के पश्चिमी अंचल में स्थित है। अरब भूमि की उर्वरा शक्ति बहुत ही कम है। अरबवासियों का प्रमुख धंधा व्यापार और पशुपालन रहा है। भारत के साथ अरबवासियों का संबंध बहुत पुराना है। सैयद सुलेमान नदवी के अनुसार, हजारों वर्ष पहले से अरब के व्यापारी भारतवर्ष के समुद्रतट तक आते थे और यहाँ की उपज तथा व्यापारिक पदार्थों को मिस्र और श्याम देश के द्वारा यूरोप तक पहुँचाते थे। वहाँ के पदार्थों को भारतवर्ष, उसके पास के टापुओं, चीन और जापान तक ले जाते थे।
थाना, खभात, देवल, मालाबार, कन्याकुमारी आदि बन्दरगाहों से व्यापारिक लेनदेन होता था। भारत से अरब व्यापारी बहुत सा सामान ले जाते थे जैसे चन्दन, सुगन्धित लकड़ी, कपूर, लौंग, कालीमिर्च, कपड़े, हीरा, हन्थिदंत, सीसा, बांस आदि। भारत में ये लोग शराब, तलवार, खजूर, घोड़े, रेशमी कपड़े आदि लाते थे। भारत और अरबों का मैत्री संबंध अत्यन्त पुराना है।
अरबों की विजय का क्षेत्र सिंध व मुल्तान थे। अरबों के सर्वप्रथम आक्रमण 636-637 ई. में हजरत उमर की खिलाफत के समय हुए। इन प्रारंभिक आक्रमणों का उद्देश्य विजय करना नहीं, वरन् लूटमार करना था। लेकिन ये खदेड़ दिये गये थे। इसके बावजूद भी आक्रमणों का सिलसिला रूका नहीं वरन् देवल, खाड़ी, बलोचिस्तान आदि सिंध के क्षेत्रों पर आक्रमण होते रहे। किकनाम नामक पहाड़ी पर भी उनके आक्रमण होते रहे। 662 ई. में अलहेरिस और 664 ई. में अल-मुहल्लव के आक्रमण हुए लेकिन ये प्रभावहीन रहे। अब्दुल्ला का आक्रमण हुआ उसे भी पराजित कर दिया गया।इसके बाद भी कई आक्रमण हुए, अरब पराजयों से हतोत्साहित नहीं हुए थे।
मोहम्मद बिन कासिम Muhammad Bin Qasim- आठवीं सदी के प्रारंभिक चरण में इब्न-अल-हरीअल विहिट्टी के सेनापतित्व में भयानक हमला हुआ जिसके फलस्वरूप मकरान (आधुनिक बलोचिस्तान) उसके हाथ में आ गया। उम्मैया वंश के नेतृत्व में खिलाफत राज्य बहुत शक्तिशाली हो गया था। ईराक के गवर्नर अल हज्जाज में विजय का अत्याधिक उत्साह था। उसे खलीफा का भी समर्थन प्राप्त था। उसने सिंध में देवल के लुटेरों को दंडित करने के लिए सेना भेजी, जिन्होंने बहुमूल्य उपहारों से भरे हुए आठ जहाजों को लूटा था। ये उपहार लंका के राजा द्वारा खलीफा और हज्जा को भेजे गये थे। सिंध के शासक दाहिर पर लगातार दो हमले हुए, दोनों बार सेनापतियों को पराजय मिली। हज्जाज इस पराजय से अपमानित हुआ और सिंधियों से बदला लेने की योजनाएँ बनाता रहा। इस बार उसने पूर्ण व्यवस्थित तरीके से आक्रमण की तैयारी की। उसने अपने चचेरे भाई व दामाद इलाउद्दीन मुहम्मद बिन कासिम की एक विशाल एवं शक्तिशाली सेना के साथ, सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा। वह 17 वर्ष का साहसी व महत्त्वाकांक्षी नवयुवक था। ईश्वरी प्रसाद के अनुसार सिंध पर मुहम्मद-बिन-कासिम का आक्रमण इतिहास की बड़ी रोमांचकारी घटना है। विकसित यौवन, अदम्य साहस और वीरता, आक्रमण में उच्च आचरण और अंत में करुण पतन सबने मिलकर उसके जीवन में शहीद का सा चमत्कार कर दिया है।
- वह लगभग 15,000 वीरों और बहुत से अश्वों से युक्त ऊँटों का लेकर मकरान होते हुए देवल पहुँचा। बाद में उसकी सेना में और वृद्धि थी। सिंध पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद भी उसकी सेना में लगभग 50,000 सैनिक थे। 712-13 ई. में उसे सिंध पर विजय प्राप्त हो गयी। सिंधियों ने बहुत वर्षों तक संघर्ष किया लेकिन अंततः उन्हें हार मिली। कई विद्वान् इस युद्ध का प्रमुख कारण समुद्री डाकुओं की लूट को मानते हैं। लेकिन समकालीन स्रोतों से इसकी पुष्टि नहीं होती है। अरबों का ध्यान भारतीयों की समृद्धि पर था। वे अपनी आर्थिक दशा को समुन्नत करना चाहते थे। अरबों के हृदय में राजनैतिक एवं क्षेत्रीय विस्तार की महत्त्वाकांक्षा भी आक्रमण का प्रेरक कारण बनी। इस्लाम के प्रचार की भावना ने उनके जोश व मनोबल को बनाये रखा। प्रो. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार सिंध पर अरबों के आक्रमण के अनेक उद्देश्य थे किन्तु धर्म का प्रचार उनका मूल उद्देश्य था।
- सिंध के शासक दाहिर की पराजय के कई कारण थे। दाहिर की सेना कासिम की सेना को देखते हुए बहुत कम थी। उसके शासन से प्रजा के कई वर्ग असंतुष्ट थे। इस प्रकार के असंतुष्ट व्यक्ति कासिम की सेना में भर्ती हो गये। दाहिर ने शत्रु के समक्ष मोर्चे पर घबराहट का प्रदर्शन किया। उसने सिंध नदी के पश्चिम का भाग खाली करके पूर्वी तट से घाटों को रोक कर बचाव की लड़ाई का प्रबन्ध किया। इस नीति से शत्रु का हौसला बढ़ गया क्योंकि उसे अनायास ही सिंध का पश्चिमी भाग प्राप्त हो गया। दाहिर को अपने राज्य में बौद्धों, जाटों आदि के असंतोष का सामना करना पड़ा। मुहम्मद बिन कासिम स्वयं एक कुशल सैनिक था। उसके नेतृत्व में अरब सैनिकों ने लड़ाई लड़ी। उनका मनोबल व जोश इस्लाम की भावना के कारण और बढ़ गया था। दाहिर को प्रारंभिक युद्धों में सफलता न मिल सकी। इसके अलावा उसके असंतुष्ट कर्मचारी मुहम्मद बिन कासिम से जा मिले। घर की फूट व राजद्रोहियों ने अरब विजय को बहुत आसान बना दिया। उस समय भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। सभी अपने-अपने स्वार्थों में लिप्त रहते थे। केन्द्रीय सरकार जैसा कोई संगठन नहीं था। सिंध की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की थी कि वह शेष भारत से पृथक पड़ गया था। उसे किसी प्रकार की सहायता प्राप्त नहीं हो सकी। मुहम्मद बिन कासिम ने बाद में सिंधु पार करके राबर, ब्राह्मणवाद, अलोरा, सिक्का, मुल्तान और देवल पर अधिकार कर लिया। जनता को आतंकित करने उसने कत्लेआम किया। कहा जाता है कि उसने 17 वर्ष से ऊपर के -पुरुषों को मौत के घाट उतार दिया। ईश्वरी प्रसाद के अनुसार 6,000 का उसने वध किया और दाहिर का समस्त कोष छीन लिया। बहुत से लोगों को इस्लाम स्वीकार कराया गया तथा उन पर जजिया कर भी लगाया गया। मुहम्मद ने देवल के लिए एक शासक नियुक्त किया और उसकी सहायता के लिए 4000 सैनिक नितुक्त किए। सिंध के विजेता का अंत बड़ा दुखद था। उसे 715 ईं के लगभग यातनाएं देकर मर डाला गया। मुहम्मद बिन कासिम की मृत्यु के भिन्न-भिन्न कारण बताये गये हैं।
- मुहम्मद बिन कासिम ने अपने दो वर्षीय शासन काल में अरब शासन व्यवस्था स्थापित करने के प्रयास किये। मुहम्मद बिन कासिम ने प्रजा को कुछ हद तक धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। ब्राह्मणों को कुछ राजकीय पद प्रदान किये गये। उन्हें जजिया तथा अन्य करों से भी मुक्त रखा गया। उसने भूमिकर ⅓ से ⅖ तक रखा। गैर मुस्लिम लोगों को 48, 24 या 12 दिरहय (आर्थिक स्थिति के अनुरूप) प्रति वर्ष, प्रति व्यक्ति जजिया कर के रूप में देने पड़ते थे। बच्चों, स्त्रियों आदि को इससे मुक्त रखा गया। भारतीयों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे आगन्तुक मुसलमानों का अनिवार्य रूप से आतिथ्य करें। जनता पर कई विशेष कर भी लगाये गये थे। लेकिन जन असंतोष विद्यमान था और हिन्दुओं की स्थिति बहुत खराब थी। राजकीय न्यायाधिकरणों का काम हिन्दुओं से रुपया ऐंठना और उनका बलात् धर्मपरिवर्तन कराना था। अरब निवासियों द्वारा सिंध के शासन-प्रबन्ध में सबसे प्रमुख खटकने वाली बात यह थी कि विजेता और विजित में सहानुभूति के उन सूत्रों का अभाव था, जो पारस्परिक विश्वास से उत्पन्न होते हैं।
- अरबों की सिंध विजय स्थायी न रह सकी। उन्होंने जनता से बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन करवाया। दाहिर के पुत्र जयसिंह को भी अपने पूर्वजों का धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। 871 ई. में सिंध ने खिलाफत से अपने संबंध तोड़ दिया। लेनपूल के अनुसार- अरब वासियों की भारतीय विजय, इस्लाम और भारत के इतिहास का एक अपूर्व अध्याय है जिसका देश पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं रहा।
- भारतीय परम्परा प्रेमी थे, वे विजेताओं से तालमेल न बिठा सके। राजपूतों के उदय से अरबों की विजय को स्थायित्व मिलना कठिन हो गया। वुल्जले हेग के अनुसार- अरब विजय ने विशाल देश के छोटे से भाग को प्रभावित किया। इसने भारतीयों का परिचय उस धर्म से करवाया जिसने पाँच शताब्दियों तक भारतीयों को प्रभावित किया लेकिन इसके दूरगामी परिणाम नहीं निकले।
- अरब विजय का राजनैतिक दृष्टि से अधिक महत्त्व नहीं है। यह एक ज्वार के समान था जो इस्लाम की धारा में सिंध को डुबो गया। भारतीयों पर इसके दूरगामी प्रभाव नहीं पडे। अरब सिंध से आगे विजय प्राप्त नहीं कर सके। गुर्जर, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजवंशों के प्रतिरोधों के कारण वे आगे न बढ़ सके। अरबों की बहुत सी आतरिक कमजोरियाँ भी थीं। इनमें ईष्या व धार्मिक मतभेदों का विकास होने लगा। इनकी केन्द्रीय शासन व्यवस्था क्षीण होने लगी।अरब भारतीयों के निकट सम्पर्क में आये, उन्होंने भारतीयों से ज्योतिष, कला, चिकित्सा के क्षेत्र में काफी कुछ सीखा। ज्योतिष, गणित, फलित, रसायन आदि से संबंधित संस्कृत ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद किया गया। मसूर हज्जाज की खिलाफत (753-774 ई.) के दरबार में भारतीय विद्वानों का आदर किया जाता था। ब्रह्मगुप्त के ब्रह्मसिद्धान्त व खण्डखाद्य अरबों में बहुत प्रसिद्ध थे। आयुर्वेद, दर्शन, ज्योतिष आदि का बहुत विकास हुआ। हिन्दुओं की संस्कृति व विद्वता का अरबों ने भरपूर फायदा उठाया। भारतीय शिल्पियों और चित्रकारों को मस्जिदे बनाने व उनकी सजावट करने के लिए रखा गया। अरबों ने अपनी सभ्यता का पूर्ण विकास किया। दर्शन, ज्योतिष, गणित आदि के भारतीय ज्ञान को उन्होंने यूरोप में पहुँचाया। भारतवर्ष में भी अरबों के आगमन से एक नये धर्म का प्रवेश हुआ। इसने कालान्तर में भारतीयों पर व्यापक प्रभाव डाला। सिंध विजय के राजनैतिक प्रभाव तो प्रभावहीन रहे लेकिन इसके सांस्कृतिक प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता।
- राजनैतिक दृष्टिकोण से गजनवी के सुल्तानों द्वारा पंजाब-विजय निचली सिन्धु घाटी में अरब राज्यों की स्थापना से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थी। सुल्तान महमूद, जिसने अपने पिता सुबुक्तगीन की नीति को और आगे बढ़ाकर सफलीभूत किया, निस्सन्देह संसार के सर्वश्रेष्ठ सैनिक नायकों में था। अपने संयमित साहस, बुद्धिमता, उपायचिंतनपटुता एवं अन्य गुणों के वह एशियाई इतिहास के सबसे अधिक दिलचस्प व्यक्तियों में से है। अपने विजयपूर्ण आक्रमणों के अतिरिक्त उसे बैरी तुर्कों के विरुद्ध दो स्मरणीय चढ़ाइयों का श्रेय प्राप्त है, जिनमें उसने इलक खाँ एवं सेलजुकों की सेनाओं को परास्त किया था। सुल्तान महान् योद्धा तो था ही, साथ ही कला एवं विद्या का आश्रयदाता भी था।
- किन्तु इन सब के बावजूद वह मुख्यतः एक अतृप्त आक्रमणकारी ही प्रतीत होता है। वह न तो इस देश में धर्म-प्रचार के निमित्त ही आया था और न साम्राज्यनिर्माता के रूप में ही। उसके पूर्वी आक्रमणों का मुख्य ध्येय हिन्द की दौलत प्राप्त करना तथा इसके संरक्षकों के नैतिक बल का ध्वंस करना मालूम पड़ता है। पंजाब का साम्राज्य में मिलाया जाना, पसन्द से अधिक आवश्यकता का कार्य था। फिर भी यह मान लेना गलत होगा कि उसके आक्रमणों का भारत में कोई स्थायी राजनैतिक परिणाम न निकला। वह देश का धन ढोकर ले गया और इसके सैनिक साधनों का भयोत्पादक सीमा तक अपहरण किया। गजनवी-अधिकृत पंजाब ने अन्त: स्थित भारत के द्वार खोलने के लिए कुंजी का काम किया। भारत के व्यवस्थित समाज के महान् भवन में बड़ी दरारें पड़ गयीं और अब यह प्रश्न नहीं रह गया कि क्या, बल्कि प्रश्न यह रह गया कि कब, यह युगों से चली आ रही इमारत गिर पड़ेगी। न तो अरब और न गजनवी (यमीनी) तुर्क ही भारत को इस्लाम के बढ़ते हुए साम्राज्य में मिलाने में सफल हो सके, पर उन्होंने उस अन्तिम संघर्ष का रास्ता साफ कर दिया, जिसने प्राय: दो सौ वर्ष बाद गंगा की घाटी के राज्यों को व्याकुल कर दिया। माना जाता है कि महमूद के अधीन ईराक में फारसी भाषा और संस्कृति का पुनरूद्धार हुआ। इसी के दरबार में फिरदौसी ने शाहनामा की रचना की। महमूद ने बुतशिकन (मूर्तिभंजक) की उपाधि ली। महमूद गजनवी को मुस्लिम विश्व का प्रथम वैधानिक सुल्तान मन जाता है।
महमूद गजनवी के आक्रमण- 1000 ई. से 1027 ई. के बीच में महमूद ने भारत पर सत्रह बार आक्रमण किये।
1. सीमान्त दुर्गों पर आक्रमण- 1000 ई. में महमूद का पहला आक्रमण सीमावर्ती दुर्गों पर हुआ। महमूद ने राजा जयपाल के सीमान्त दुर्गों पर अधिकार कर लिया।
2. पंजाब पर आक्रमण- महमूद का दूसरा आक्रमण पंजाब के राजा जयपाल पर हुआ। 1001 ई. में पेशावर के निकट घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में जयपाल की पराजय हुई। उसे अपमानजनक सन्धि स्वीकार करनी पड़ी और जयपाल ने एक बड़ी धनराशि देना स्वीकार किया। महमूद ने जयपाल की राजधानी वैहन्द को लूटा और अपार धनराशि लेकर गजनी लौट गया।
3. भेरा पर आक्रमण- महमूद का तीसरा आक्रमण 1003 ई. में भेरा नामक स्थान पर हुआ। भेरा का राजा पराजित हुआ और उसने आत्महत्या का ली। महमूद ने भेरा नगर को खूब लूटा और लूट का समान लेकर गजनी लौट गया। महमूद ने भेरा को अपने राज्य में मिला लिया।
4. मुल्तान पर आक्रमण- महमूद का चौथा आक्रमण मुल्तान पर हुआ। मुल्तान का शासक अब्दुल फतह दाऊद था जो करमत सम्प्रदाय का अनुयायी था। वह कट्टर इस्लाम धर्म को नहीं मानता था। 1004-1005 में महमूद ने मुल्तान पर आक्रमण किया। महमूद को मुल्तान पर आक्रमण करने के लिए आनन्दपाल के राज्य पंजाब से होकर जाना था। आनन्दपाल ने अपने प्रदेश से होकर जाने की अनुमति नहीं दी। आनन्दपाल पराजित हुआ और महमूद ने मुल्तान पर भी विजय प्राप्त की। लौटने से पूर्व महमूद ने आनन्दपाल के पुत्र सुखपाल को मुल्तान का राज्यपाल नियुक्त किया। सुखपाल (उपनाम नवासा शाह) ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।
5. सुखपाल पर आक्रमण- महमूद के जाने के बाद सुखपाल ने इस्लाम धर्म का त्याग कर दिया। वह मुल्तान का स्वतन्त्र शासक बन गया। उसे दण्ड देने के लिये महमूद ने मुल्तान पर पुनः आक्रमण किया। महमूद ने दाऊद को पुनः मुल्तान का शासक नियुक्त किया।
6. आनन्दपाल पर आक्रमण- महमूद का छठा आक्रमण लाहौर के राजा आनन्दपाल पर हुआ। आनन्दपाल ने मुल्तान के शासक दाऊद की महमूद के विरुद्ध सहायता की थी। महमूद का मुकाबला करने के लिये आनन्दपाल ने एक विशाल सेना एकत्र की। आनन्दपाल ने महमूद के विरुद्ध हिन्दू राजाओं का एक संघ बनाया। इस संघ में फरिश्ता के अनुसार, अजमेर, दिल्ली, उज्जैन, ग्वालियर, कालिन्जर और कन्नौज के राजा शामिल थे। झलम नदी के किनारे उन्द नामक स्थान पर घमासान युद्ध हुआ जिसमें महमूद विजयी हुआ।
7. नगरकोट की विजय- महमूद ने काँगड़ा के दुर्ग नगरकोट पर आक्रमण किया। यहाँ ज्वालामुखी देवी के मन्दिर में अपार धन एकत्र था। महमूद ने दुर्ग को (1009 ई.) में घेर लिया और थोडे से प्रतिरोध के बाद ही हिन्दुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। महमूद को विपुल धन प्राप्त हुआ।
8. मुल्तान पर आक्रमण- सन् 1010 ई. में महमूद ने मुल्तान पर पुनः आक्रमण किया क्योंकि दाऊद ने स्वतन्त्र होने का प्रयास किया था। महमूद ने दाऊद पर पुन: विजय प्राप्त की।
9. त्रिलोचनपाल पर आक्रमण- आनन्दपाल की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र त्रिलोचनपाल राजा बना। महमूद ने उस पर आक्रमण किया। राजा त्रिलोचनपाल कश्मीर भाग गया। महमूद ने वहाँ भी उसका पीछा किया। महमूद ने त्रिलोचनपाल और कश्मीर की सेनाओं को पराजित किया। परन्तु महमूद ने कश्मीर के अंदरूनी भागों में प्रवेश करना उचित नहीं समझा।
10. थानेश्वर पर आक्रमण- 1014 ई. में महमूद ने थानेश्वर पर आक्रमण किया। हिन्दुओं ने महमूद का सामना किया, परन्तु वे पराजित हुए।
11. कश्मीर पर आक्रमण- 1015 ई. में महमूद ने कश्मीर पर आक्रमण किया था, परन्तु वह सफल नहीं हुआ। 1021 ई. में उसने पुनः कश्मीर पर आक्रमण किया और इस बार भी वह सफल नहीं हुआ। अतः महमूद ने कश्मीर-विजय का प्रयत्न त्याग दिया।
12. मथुरा पर आक्रमण-1018 ई. में महमूद गजनवी ने मथुरा को लूट कर अपार सम्पति प्राप्त की। मथुरा के पश्चात् महमूद ने वृन्दावन को लूटा।
13. कन्नौज पर आक्रमण- मथुरा को लूटने के बाद महमूद कन्नौज की ओर बढ़ा। कन्नौज के राजा जयचन्द ने आत्मसमर्पण कर दिया और महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली। वहाँ उसने मन्दिरों और नगरों को लूटा।
14. कालिन्जर पर आक्रमण- 1019 ई. में महमूद ने कालिन्जर पर आक्रमण किया। यहाँ उसका कडा मुकाबला हुआ, परन्तु अन्त में सफलता महमूद को प्राप्त हुई।
15. ग्वालियर पर आक्रमण- 1022 ई. में महमूद ने ग्वालियर पर आक्रमण किया। ग्वालियर के राजा ने महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद महमूद ने पुनः कालिन्जर पर आक्रमण किया। राजा ने महमूद से सन्धि कर ली और बहुमूल्य उपहार देकर उसे विदा किया।
16. सोमनाथ पर आक्रमण- महमूद का सबसे प्रसिद्ध आक्रमण 1025 ई. में सोमनाथ के मन्दिर पर था। सोमनाथ मन्दिर की रक्षा के लिए, हिन्दू चारों ओर से आकर जमा हो गये। महमूद का प्रतिरोध किया गया, परन्तु महमूद के सैनिक मन्दिर में प्रवेश करने में सफल हो गये। भीषण नरसंहार हुआ। महमूद के सैनिकों ने मन्दिर की सम्पत्ति को लूटा। अपार सम्पति लेकर महमूद गजनी लौट गया।
17. जाटों पर आक्रमण- महमूद का अन्तिम आक्रमण 1027 ई. में मुल्तान के जाटों और खोखरों पर हुआ। सोमनाथ से वापस लौटते हुए जाटों ने महमूद की सेना को तंग किया था। इसी का बदला लेने के लिए उसने उन पर आक्रमण किया। महमूद ने जाटों और खोखरों को पराजित किया। अनेक लोग युद्ध में मारे गये अथवा दास बना लिए गये। 30 अप्रैल, 1030 ई. को महमूद की मृत्यु हो गई। इस तरह भारतवर्ष को इस आक्रमणकारी से मुक्ति मिली।
गोरी: मुहम्मद गोरी Ghori: Muhammad Ghori- गजनी का साम्राज्य सुल्तान महमूद के परवर्ती उत्तराधिकारियों के समय में टुकड़ों में बँटने लगा, क्योंकि ये हेरात के दक्षिण-पूर्व, अफ़गानिस्तान के पहाड़ी इलाके के गोर नामक एक छोटे एवं अप्रसिद्ध स्थान के शासकों की बढ़ती शक्ति के समक्ष गजूनी तथा उत्तर-पश्चिम भारत में अपनी स्थिति कायम रखने में बिलकुल असमर्थ थे। गोर के ये साधारण सरदार, जो पूर्वीय फारसी वंश के थे, मूलरूप में गजनी के जागीरदार थे। परन्तु अपने अधिपतियों की दुर्बलता से लाभ उठाकर वे धीरे-धीरे शक्तिशाली बन बैठे और प्रभुत्व के लिए उनसे संघर्ष करने लगे। इस संघर्ष के दौरान में गोर के कुतुबुद्दीन मुहम्मद एवं उसका भाई सैफुद्दीन गजनी के बहराम शाह के द्वारा निर्दयतापूर्वक फाँसी पर चढ़ा दिये गये। इन हुतात्माओं के एक भाई अलाउद्दीन हुसैन ने गजनी नगर को लूटकर और इसे सात दिनों एवं रातों तक जलाकर इसका बदला लिया। इस कार्य से अलाउद्दीन को जहाँसूज (विश्वदाहक) की उपाधि मिली। बहराम का पुत्र और दुर्बल उत्तराधिकारी खुसरू शाह तुर्कमानों की गज जाति के एक दल द्वारा गजनी से भगा दिया गया। वह भागकर पंजाब चला आया जो उस समय उसके पूर्वजों के विस्तीर्ण साम्राज्य का एकमात्र अवशेष थ। गजनी लगभग दस वर्षों तक गुज तुर्कमानों के अधिकार में रही। इसके बाद यह गोर के शासकों द्वारा अधिकृत कर ली गयी। जहाँसूज (विश्वदाहक) का पुत्र और उत्तराधिकारी सैफुद्दीन मुहम्मद गुजू तुर्कमानों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया; पर उसके चचेरे भाई एवं उत्तराधिकारी ग्यासुद्दीन मुहम्मद ने 1173 ई. में गुजू तुर्कमानों को गजनी से खदेड़ दिया और अपने अनुज शहाबुद्दीन को, जो मुइजद्दीन मुहम्मद विनसाम के नाम से भी पुकारा जाता है और सामान्यतः मुहम्मद गोरी के नाम से प्रसिद्ध है, इस प्रान्त का सूबेदार बना दिया। दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रेमपूर्ण संबंध थे और जब वह अपने भाई के सहायक के रूप में ही था, तभी उसके भारतीय आक्रमण आरम्भ हो गये। मुहम्मद गोरी का प्रथम भारतीय आक्रमण (1175 ई.), जो मुलतान के उसके अपने सहधर्मी इस्माइली नास्तिकों के विरुद्ध हुआ था, सफलीभूत हुआ। शीघ्र ही उसने छलप्रपंच से उच्च के मजबूत किले पर अधिकार जमा लिया। परन्तु उसका 1178 ई. में गुजरात का आक्रमण असफल सिद्ध हुआ; गुजरात के राजा भीम द्वितीय ने उसे बुरी तरह परास्त कर दिया। फिर भी अगले साल उसने पेशावर पर अधिकार कर लिया और 1181 ई. में स्यालकोट में एक किला स्थापित किया। जम्मू के राजा विजय देव के साथ मिलकर उसने खुसरोशाह के पुत्र एवं उत्तराधिकारी तथा सुबुक्तगीन एवं सुल्तान महमूद के वंश के अन्तिम प्रतिनिधि गजनी के शासक खुसरो मलिक को, जिसके अधिकार में उस समय केवल लाहौर रह गया था, पकड़ लिया और उसे बन्दी बना कर गजनी ले गया। इस तरह पंजाब में गजनवियों के शासन का अन्त हो गया। मुहम्मद गोरी द्वारा इस पर अधिकार हो जाने से उसकी भारत की आगे की विजय का द्वार खुल गया। मगर इससे राजपूतों के साथ-विशेषत: अपने पड़ोसी अजमेर एवं दिल्ली के शक्तिशाली चौहान राजा पृथ्वीराज के साथ-उसका संघर्ष अनिवार्य हो गया।
- सुल्तान महमूद के समय से उत्तरी भारत की राजनैतिक अवस्था में यथेष्ट परिवर्तन हो चुका था। यद्यपि बिहार का एक भाग बौद्ध मतावलम्बी पालो के अधीन था, तथापि बंगाल सेनो के हिन्दू राजवंश के अधिकार में आ चुका था। बुन्देलखंड चन्देलों के शासन के अधीन ही बना रहा। किन्तु गहड्वालों ने कन्नौज से प्रतिहारों को हटा दिया। दिल्ली और अजमेर चौहानों के अधीन थे। कन्नौज का गहड़वाल राजा जयचंद या जयच्चंद्र, जो अधिकतर बनारस में रहा करता था, मुस्लिम लेखकों द्वारा तत्कालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ राजा समझा जाता था और यदि टॉड पर विश्वास किया जाय, तो वह पृथ्वीराज की गौरवपूर्ण स्थिति से द्वेष रखता था। ऐसा बताया जाता है कि उसकी सुन्दर लड़की को चौहान वीर लेकर भाग गया था। यह प्रेम कहानी तत्कालीन कई चारणगीतों का विषय बन गयी। जो भी हो, ऐसा विश्वास करने का कोई कारण नहीं दिखता कि जयचंद ने मुहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया था। इस देश पर किया गया आक्रमण पंजाब के गजनवियों पर मुहम्मद की पूर्ण विजय का प्राय: एक अनिवार्य परिणाम था।
- 1190-1191 ई. के जाड़े में मुहम्मद गोरी जब पंजाब से आगे बढ़ा, तब राजपूतों का, जो किसी भी तरह वीरता एवं साहस में आक्रमणकारियों से कम नहीं थे, साहसी और शूरवीर योद्धा पृथ्वीराज एक बड़ी सेना लेकर उससे भिड़ने के लिये आगे आया, जिसमें फरिश्ता के लेखानुसार दो लाख घोडे और तीन हजार हाथी थे। पृथ्वीराज को बहुतेरे राजपूत राजाओं का सहयोग प्राप्त हुआ, पर जयचंद अलग रहा। गोरी आक्रमणकारी अपने दोनों ओर दो रक्षादलों को लेकर अपनी सेना के मध्य खड़ा हो गया और 1191 ई. में थानेश्वर के निकट तराइन में राजपूतों से उसकी मुठभेड़ हुई। अपनी स्वाभाविक शक्ति से लड़ते हुए राजपूतों ने मुस्लिम सैनिकों को बुरी तरह आक्रान्त कर दिया, जो शीघ्र ही पराजित हो गये और उनका नेता बुरी तरह गायल होकर गजनी लौट गया। पर इस प्रारम्भिक असफलता से मुहम्मद हतोत्साह नहीं हुआ। उसने अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने के विचार से शीघ्र एवं दृढ़ सेना इकट्ठी की और पर्याप्त तैयारियों के साथ 1192 ई. में भारत पर पुन: आक्रमण कर दिया तथा अपने राजपूत शत्रु से उसी रणक्षेत्र में आ भिड़ा। आक्रमणकारी सेना ने उच्चतर युद्ध कौशल एवं सेनापतित्व से राजपूतों को बुरी तरह परास्त कर दिया। पृथ्वीराज पकड़कर मार डाला गया और उसके भाई की भी हत्या कर दी गयी। मुहम्मद की यह विजय निर्णायक थी। इसने उत्तरी भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डाल दी और पृथ्वीराज के सम्बन्धियों द्वारा अपनी खोयी शक्ति पुनः प्राप्त करने के सभी उत्तरवर्ती प्रयास विफल सिद्ध हुए। मुहम्मद के सबसे विश्वासपात्र तुर्की पदाधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक तथा इख्तियारुद्दीन मुहम्मद द्वारा कुछ ही वर्षों में उत्तरी भारत के विभिन्न भाग जीत लिये गये।
- कुतुबुद्दीन सभी सराहनीय गुणो एवं प्रशंसनीय प्रभावों से सम्पन्न था, यद्यपि उसमें बाहरी सुन्दरता न थी। उसके गुणों ने उसे मुहम्मद गोरी का विश्वास-पात्र बना दिया, जिसने शीघ्र ही उसे अमीर-ए-आखुर (अश्वशालाध्यक्ष) के पद पर नियुक्त कर लिया। अपने स्वामी के भारतीय आक्रमणों के समय उसने उसकी बड़ी अमूल्य सेवाएँ कीं, जिनके पुरस्कार के रूप में 1192 ई. की तराइन की दूसरी लड़ाई के बाद, उस पर भारत के विजित प्रदेशों का भार दे दिया गया। वह नव-विजित प्रदेशों के शासन ही नहीं, बल्कि उनके विस्तार के सम्बन्ध में भी स्वतंत्र छोड़ दिया गया।
- अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए कुतुबुद्दीन ने शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी सरदारों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये; उसने स्वयं ताजुद्दीन यन्दौज की पुत्री से विवाह किया, उसकी बहन नासिरुद्दीन कबाचा के साथ ब्याही गयी तथा उसकी पुत्री इन्लुत्मिश के साथ। कुतुबुद्दीन का स्वामी जो उसमें विश्वास रखता था, इसका औचित्य उसने सिद्ध कर दिखाया। 1192 ई. में उसने हाँसी, मेरठ, दिल्ली, रणथम्भोर एवं कोइल पर अधिकार कर लिया। 1194 ई. में इटावा जिले में यमुना के तट पर चंदावर नामक स्थान पर बनारस और कन्नौज के राजा जयचंद को पराजित करने एवं मारने में उसने अपने स्वामी की सहायता की। 1197 ई. में उसने गुजरात के भीमदेव द्वितीय को कुछ गोलमाल करने के अपराध में प्रताड़ित किया, उसकी राजधानी को लूट लिया और हाँसी की से दिल्ली लौट आया। 1202 ई. में उसने बुंदेलखंड में कालिंजर के दुर्ग पर डालकर उसके प्रतिरक्षकों को पराजित किया और उनसे काफी लूट का इकट्ठा किया। पुरुष एवं स्त्री मिलाकर पचास हज़ार बन्दी बनाये गये। इसके बाद वह महोबा नगर की ओर बढ़ा, उस पर अधिकार कर लिया और बदायूं जीतता हुआ, जो हिन्दुस्तान (उत्तर भारत) के सबसे समृद्ध नगरों में से था, दिल्ली लौट आया।
- इसी बीच बख्तियार खिलजी के पुत्र इख्तियारुद्दीन मुहम्मद द्वारा बिहार एवं पश्चिमी बंगाल का एक भाग गोरी साम्राज्य में मिला लिये गये। इख्तियारुद्दीन मुहम्मद ने लक्ष्मणसेन को नदिया से सम्भवत: पूर्व बंगाल में ढाका के निकट एक ऐसे स्थान की ओर खदेड़ दिया, जहाँ सेनों की शक्ति आधी शताब्दी से अधिक समय तक बनी रही। उसने आधुनिक मालदह जिले में गौड़ अथवा लखनौती में अपनी राजधानी बनायी।
- इस प्रकार तेरहवीं सदी के आरम्भ तक, पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में गंगा नदी तक के बीच के हिन्दुस्तान (उत्तर भारत) के काफी भागों को मुसलमानों ने जीत लिया। परन्तु मुस्लिम शासन के संगठन के लिए कुछ और वर्षों की आवश्यकता थी।फरवरी, 1203 ई. में अपने बड़े भाई ग्यासुद्दीन मुहम्मद की मृत्यु हो जाने के बाद सुमुइजुद्दीन मुहम्मद गोरी गोर तथा दिल्ली का शासक नाम में भी बन गया, जो वह अब तक असलियत में था। परन्तु शीघ्र ही कुछ दुर्घटनाओं के कारण उसकी स्थिति संकट में पड़ गयी। 1205 ई. में मध्य एशिया में अंदखुई के निकट ख्वारज़्म के शाह अलाउद्दीन मुहम्मद के हाथों वह पराजित हुआ, जिससे भारत में उसकी सैनिक प्रतिष्ठा पर कठोर आघात पहुँचा तथा उसके राज्य के विभिन्न भागों में विद्रोह एवं षड्यंत्र होने लगे। गजनी में उसका प्रवेश अस्वीकृत हो गया। गृजूनी के एक पदाधिकारी ने मुलतान छीन लिया तथा उसके पुराने बैरी खोकर पंजाब में उत्पात मचाने लगे। परन्तु बड़े उत्साह एवं तत्परता से सुमुइजुद्दीन मुहम्मद भारत की ओर बढ़ा, सर्वत्र विद्रोहों का दमन किया तथा
- नवम्बर, 1205 ई. में खोकरों को बुरी तरह परास्त किया। फिर भी वह चंद दिनों का मेहमान था। लाहौर से गजनी आने के रस्ते में 19 मार्च 1206 ई. को दम्यक में ह्गात्यारों के एक दल ने उसे छुरा भोंककर मार डाला। उसके कुछ सिक्के भी मिले हैं जिसके एक तरफ शिव के बैल की आकृति और पृथ्वीराज देवनागरी में लिखा है तथा दूसरी ओर घोड़े की आकृति है और मुहम्मद बिन साम लिखा है। उसके कुछ सिक्कों पर लक्ष्मी की आकृति भी है।
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