प्रथम विश्व युद्ध के प्रारंभ में भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने ब्रिटेन के युद्ध प्रस्तावों का स्वागत किया था।
प्रथम विश्व युद्ध ने यूरोपियनों की जातीय श्रेष्ठता की भावना को समाप्त कर दिया।
तिलक ने अप्रैल 1916 में बम्बई के बेलगांव में अपने होमरूल लीग का गठन किया। इसका गठन बम्बई प्रांतीय सभा में किया गया। इसकी गतिविधियां मध्यप्रांत महाराष्ट्र बम्बई को छोड़कर कर्नाटक और बरार तक सीमित थीं।
तिलक का नारा था ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।
श्रीमती एनी बेसेंट ने सितम्बर 1916 में मद्रास के गोखले सभागार में अपना होमरूल लीग प्रारंभ किया। जार्ज अरुण्डेल इसवेफ संगठन मंत्री बनाये गये। एनी बेसेंट का लीग तिलक के लीग के प्रभाव वाले क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में सक्रिय था।
एनी बेसेंट तथा उनके सहयोगी वी. पी. वाडिया और अरुण्डेल को मद्रास सरकार ने गिरफ्रतार कर लिया था।
1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में राष्ट्रीय महत्व की दो घटनाएं घटीं-
-कांग्रेस के नरमपंथी और गरमपंथी नेता अपने मतभेद भूलाकर एक हो गये। अतः 1907 के बाद यह प्रथम संयुक्त कांग्रेस थी।
- कांग्रेस और मुस्लिम लीग में ‘लखनऊ समझौता हुआ।
नरमपंथियों और गरमपंथियों को नजदीक लाने में एनी बेसेंट का महत्वपूर्ण योगदान है।
कांग्रेस और लीग को नजदीक लाने में जिन्ना तिलक और एनी बेसेंट ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
असहयोग आन्दोलन के साथ ही राष्ट्रीय आन्दोलन का तीसरा चरण भी शुरू हुआ जिसकी विशेषता थी- गांधीजी के नेतृत्व में व्यापक जन आन्दोलन की शुरुआत।
कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन 1920 में असहयोग आन्दोलन की स्वीकृति मिली। इसी अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में भी परिवर्तन किये गये।
नागपुर अधिवेशन 1920 चार कारणों से कांग्रेस के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है-परिवर्तित साधन परिवर्तित लक्ष्य परिवर्तित नेतृत्व और परिवर्तित दलीय संरचना।
असहयोग आन्दोलन के विभिन्न चरण-
प्रथम चरण (जनवरी-मार्च 1921) -इसमें विद्यार्थी अध्यापक वकील आदि सरकारी व्यवस्था का बहिष्कार करने लगे। व्यापक जनसंपर्क कार्यक्रम चलाया गया।
द्वितीय चरण (अप्रैल-जून 1921 ) -इसमें तिलक स्वराज कोष वेफ लिए 1 करोड़ रुपए का लक्ष्य पूरा किया गया। आम लोगों को कांग्रेस का सदस्य बनाने पर जोर दिया गया तथा बड़े पैमाने पर खादी वेफ प्रयोग का प्रचार किया गया।
तीसरा चरण (जुलाई-नवम्बर 1921)- इसमें विदेशी वस्तुओं का परित्याग तथा प्रिंस ऑपफ वेल्स वेफ आगमन का बहिष्कार किया गया।
चौथा चरण (नवम्बर 1921 से फरवरी 1922)- इसमें ऐसी घटनाएं घटीं जिनके कारण सरकार को झुकना पड़ा। दुर्भाग्यवश गोरखपुर जिले में चौरा-चौरी घटना 5 पफरवरी 1922 को घटी। गांधीजी ने 11 पफरवरी 1922 के दिन आन्दोलन को रोक देने का आदेश दिया।
असहयोग आन्दोलन शुरू करते समय गांधीजी ने वादा किया था कि यदि उनकी नीतियों पर सही ढंग से अमल किया जाये तो एक साल में स्वराज की स्थापना हो जायेगी।
अली बन्धु मौलाना अली एवं शौकत अली मौलाना आजाद हकीम अजमल खान और हसरत मोहानी वेफ नेतृत्व में खिलाफत कमेटी का गठन किया गया।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज ने यह वादा किया था कि ‘हम तुर्की को एशिया माइनर और थ्रेस की उस समृद्ध और प्रसिद्ध भूमि से वंचित करने लिए युद्ध नहीं कर रहे हैं जो नस्ली दृष्टि से मुख्य रूप से तुर्क है।
महात्मा गांधी के लिए‘खिलाफत आन्दोलन हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता में बांधने का एक ऐसा सुअवसर था जो सैकडों वर्षों में नहीं आयेगा।
9 जून 1920 को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी द्वारा गांधीजी की सलाह (अहिंसक आन्दोलन छेड़ने की) को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया और गांधीजी को इस आन्दोलन का नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा गया।
तुर्की में कमाल पाशा के सुधारों ने खिलाफत के प्रश्न को ही अप्रासंगिक बना दिया।
असहयोग आन्दोलन से प्रभावित आन्दोलन-
मिदनापुर बंगालद में संघीय कर बोर्ड वेफ विरुद्ध आंदोलन चला।
गुंटूर (आंध्र प्रदेश) में कर बंदी आन्दोलन चला।
अवध में असहयोग आन्दोलन ने चल रहे किसान आन्दोलन को और भड़काया।
केरल के मालाबार में असहयोग और खिलाफत संबंधी प्रचार ने मुस्लिम किसानों को उनके जमींदारों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। कुछ समय के लिए इस आन्दोलन ने सांप्रदायिकता का भी रंग लिया।
पंजाब में भ्रष्ट महन्थों से गुरुद्वारे का नियंत्रण छीनने के लिए अकाली- आन्दोलन चला।
झारखण्ड के छोटानागपुर में आदिवासियों ने चौकादारी कर व राजस्व न देने की धमकी दी।
अपरिवर्तनवादी-वल्लभ भाई पटेल डा. अन्सारी डा. राजेन्द्र प्रसाद।
परिवर्तनवादी-सी. आर. दास मोतीलाल नेहरू विट्ठल भाई पटेल 1922 के कांग्रेस के गया अधिवेशन मे परिवर्तनवादी पराजित हुए।
1 जनवरी 1923 को सी. आर. दास एवं मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस खिलापफत स्वराज दल की स्थापना की।
स्वराजवादियों का भी मूल उद्देश्य स्वराज प्राप्त करना था।
मध्यप्रांत और बम्बई में स्वराज दल को पूर्ण बहुमत मिला मध्यप्रांत और बंगाल में स्वराज दल ने द्वैत शासन को निष्क्रिय बना दिया।
केन्द्रीय विधानसभा में स्वराज दल को 145 निर्वाचित सीटों में से 45 स्थान प्राप्त हुए।
1925 में वे विट्ठल भाई पटेल को वेफन्द्रीय विधायिका का अध्यक्ष निर्वाचित कराने में सफल रहे। आगे चलकर स्वराज दल ने असहयोग की नीति की जगह उत्तरदायित्वपूर्ण सहयोग की नीति अपनायी जिससे दल में फुट पड़ गया।
1925 में चितरंजन दास की मृत्यु हो गयी।
मॉन्टफोर्ड सुधार 1919 की धारा 84 में यह व्यवस्था थी कि अधिनियम के क्रियान्वित होने के 10 वर्ष पश्चात् भारत में उत्तरदायी शासन की प्रगति की जांच के लिए एक आयोग की नियुक्ति की जायेगी। इसी के तहत साइमन कमीशन की नियुक्ति की गयी। इसमें अध्यक्ष सहित 7 सदस्य थे जो सभी अंग्रेज थे। इसमें ब्रिटेन वेफ तीनों प्रमुख राजनीतिक दल कंजर्वेटिव लिबरल और लेबर के प्रतिनिधि थे।
1927 में ब्रिटिश संसद में दो भारतीय सदस्य थे-लार्ड सिन्हा एवं मि. सकलातवाला।
कांग्रेस द्वारा कमीशन के विरोध का निर्णय मद्रास अधिवेशन- 1927 में लिया गया।
कांग्रेस मुस्लिम लीग हिन्दू महासभा और लिबरल पफेडरेशन ने एक स्वर से कमीशन का विरोध किया। केवल सर मोहम्मद शफी के नेतृत्व में मुस्लिम लीग के एक वर्ग ने कमीशन का स्वागत करने का निश्चय किया।
यह कमीशन 3 फरवरी 1928 को बम्बई उतरा। इसी दिन सम्पूर्ण भारत में हड़ताल रखते हुए कमीशन के बहिष्कार का श्रीगणेश कर दिया गया।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय व्यवस्थापिका में बम फेंका।
विरोधों के बावजूद कमीशन ने मई 1930 को अपनी रिपोर्ट प्रकाशित कर दी। इसे दो वर्ष से अधिक समय लगा।
नेहरू रिपोर्ट भारत सविच लार्ड बर्किनहेड की चुनौती के जवाब के रूप में अस्तित्व में आया। नेहरू रिपोर्ट के लिए बनी समिति में 8 सदस्य थे-मोती लाल नेहरू अध्यक्ष अली इमाम तेज बहादुर सप्रु सुभाष चन्द्र बोस श्री एम. एस. अणे सरदार मंगरू सिंह श्री शोएब कुरैशी तथा जी. आर. प्रधान।
इंडिपेन्डेन्स लीग (Independence League) की स्थापना नवम्बर 1928 में जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस द्वारा की गयी थी।
नेहरू रिपोर्ट में डोमिनियन स्टेटस की मांग की गयी थी न कि ‘पूर्ण स्वराज्य की। साइमन कमीशन की नियुक्ति समय से दो वर्ष पूर्व ही कर दी गयी थी। नेहरू रिपोर्ट वेफ विरोध में जिन्ना ने अपने 14 सूत्र सामने रखे।
जनवरी 1929 में ‘पब्लिक सेफ़्टी बिल प्रस्तुत किया गया जिसे ‘काला कानून भी कहा जाता है। इसी बिल की विवेचना के समय केन्द्रीय व्यवस्थापिका में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंका था।
लॉर्ड इर्विन की घोषणा दिल्ली घोषणा पत्र 31 अक्तूबर 1929 को की गयी।
पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में पारित किया गया। अधिवेशन के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू थे।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने के पूर्व गांधीजी ने अपनी 11 सूत्री मांगें प्रस्तुत की थीं।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन 12 मार्च 1930 को प्रसिद्ध डांडी मार्च के साथ प्रारंभ हुआ।
गांधीजी अपने 78 सहयोगियों के साथ साबरमती आश्रम से डांडी के लिए प्रस्थान हुए।
सुभाष चन्द्र बोस ने डांडी यात्रा की तुलना नेपोलियन के ‘पेरिस मार्च और मुसोलिनी के ‘रोम मार्च से एल्बा से की है।
खान अब्दुल गफार खां सीमान्त गांधी के संगठन का नाम ‘खुदाई खिदमतगार या ‘लाल कुर्ती थी।
गढ़वाली पलाटून के नेता चन्द्र सेन गढ़वाली ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया।
मणिपुर में रानी गौडिल्यु ने विद्रोह का झंडा उठाया और आजीवन कारावास की सजा पायी।
मुस्लिम लीग ने इस आन्दोलन का साथ नहीं दिया।
यरवदा जेल से गांधीजी के रिहा होने के बाद मार्च 1931 में गांधी-इर्विन पैक्ट हुआ। इसी के बाद गांधीजी का द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेना संभव हुआ। इस पैक्ट की पुष्टि करांची अधिवेशन 1931 में की गयी।
करांची अधिवेशन की सबसे उल्लेखनीय घटना थी ‘मौलिक अधिकारों और ‘आर्थिक नीतियों से संबंधित प्रस्ताव का पास होना।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 से 19 जनवरी 1931द् के समय भारत के गवर्नर जनरल लार्ड इर्विन थे तथा ब्रिटेन में रैम्से मैकडोनाल्ड लेबर पार्टी के प्रधान मंत्री थे।
ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधियों का मनोनयन गवर्नर जनरल द्वारा ही किया गया था। कांग्रेस ने इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया।
ब्रिटिश प्रधान मंत्री मैकडोनाल्ड ने 14 अगस्त 1932 को ‘सांप्रदायिक निर्णय या ‘सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा की। इसमें अछूतों को हिन्दूओं से अलग मानकर उनके लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गयी थी। गांधीजी ने यरवदा जेल में ही इसके विरोध में आमरण अनशन किया। अंततः ‘पूना पैक्ट द्वारा इसमें सुधार किया गया।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर 1931 से 1 दिसम्बर 1931 के समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलिंगटन थे तथा ब्रिटेन में रैम्से मैकडोनाल्ड ही सर्वदलीय पार्टी के प्रधानमंत्री थे। कांग्रेस ने इस सम्मेलन में भाग लिया था जिसका प्रतिनिधित्व गांधीजी ने किया था।
तीसरा गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर 1931 से 1 दिसम्बर 1931 के बीच हुआ जो एक बार फिर सफल नहीं हो सका। तीनों गोलमेज सम्मेलनों के असफल हो जाने पर सरकार ने मार्च 1933 मे ‘श्वेत पत्र जारी किया।
मई 1934 मे पटना अधिवेशन में कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लेने का निर्णय लिया।
1934 के कौंसिलों के चुनाव में कांग्रेस को पंजाब को छोड़कर अन्य सभी प्रांतों में बहुमत प्राप्त हुआ।
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