MP Ke Tyohar | मध्य प्रदेश के पर्व और उत्सव | Festivals of Madhya Pradesh
पर्व
और उत्सव
सभ्यता
और संस्कृति के विकास में पर्व या उत्सवों का महत्व पूर्ण स्थान है। मध्यप्रदेश
में पूरे वर्ष विभिन्न सामाजिक और धार्मिक उत्सव आयोजित किए जाते हैं। कुछ प्रमुख
उत्सव निम्नलिखित हैं।
गणगौर Gangor
- शिव और पार्वती की पूजा वाला यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में इसे गौर कहते हैं और कार्तिक में मनाते हैं । यह महिलाओं का पर्व है। मालवा में इसे दो बार मनाया जाता है। चैत (मार्च-अप्रैल) तथा भादो माह में स्त्रियां शिव-पार्वती की प्रतिमाएं बनाती हैं तथा पूजा करती हैं, पूजा के दौरान महिलाएं नृत्य करती हैं। बताशे बांटती हैं और प्रतिमाओं को जलाशय या नदी में विसर्जित करती हैं। विभिन्न भागों में इस पर्व से संबंधित अनेक जनश्रुतियाँ हैं।
भाईदूज Bhaiduj
- साल में दो बार मनाई जाती है। एक चैत माह में होली के उपरांत तथा दूसरी कार्तिक में दीपावली के बाद। यह रक्षाबंधन की तरह ही है। बहनें भाई को कुमकुम, हल्दी, चावल से तिलक करती हैं तथा भाई, बहिनों को उनकी रक्षा करने का वचन देते हैं। इस पर्व से संबंधित एक प्रचलित कथा इस प्रकार है। यमुना (नदी), यमराज (मृत्यु के देवता), की बहन थी एक बार यमराज भाईदूज के दिन बहन से टीका कराने कुछ उपहार आदि लेकर पहुंचे तो यमुना ने उपहार लेने से इंकार कर दिया और कहा हे भाई! मृत्यु के स्वामी! मुझे वचन दो कि आज के दिन जो भाई, बहिन से टीका कराएगा, उसकी उम्र में एक दिन बढ़ जाएगा। यमराज ने कहा "तथास्तु"।इस तरह की अनेक कहानियां इस संबंध में प्रचलित हैं।
आखातीज Aakhatij
- छत्तीसगढ़ की अविवाहित लड़कियों का प्रमुख त्यौहार है। वैशाख (अप्रैल-मई) माह का यह उत्सव दूसरे अर्थों में विवाह का स्वरूप लिए है। इसमें अकाव की डालियों का मंडप बनाते हैं। इसके नीचे पड़ोसियों को दावत दी जाती है । कुछ स्थानों पर इसे अक्षय तृतीया भी कहते हैं।
संजा व मामुलिया Sanja evam mamuliya
- संजा अश्विन माह में 16 दिन तक चलने वाला कुआंरी लड़कियों का उत्सव है। लड़कियां प्रति दिन दीवार पर नई-नई आकृतियाँ बनाती हैं और सायं एकत्र होकर गीत गाती हैं। बुन्देलखण्ड क्षेत्र की लड़कियों का ऐसा ही एक पर्व है मामुलिया। किसी वृक्ष की टहनी या झाड़ी (विशेषकर नींबू) को रंगीन कुरता या ओढ़नी पहनाकर उसमें फूलों को उलझाया जाता है। सांझ को लड़कियां इस डाली को गीत गाते हुए किसी नदी या जलाशय में विसर्जित कर देती हैं।
नीरजा Nirja
- नौ दिन तक चलने वाला महिलाओं का यह उत्सव दशहरे के पूर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर स्त्रियाँ मां दुर्गा की पूजा करती हैं। "मालवा" के कुछ क्षेत्रों में गुजरात के "गरबा उत्सव" को कुछ स्थानीय विशेषताओं के साथ इन दिनों मनाते हैं।
घड़ल्या Ghadllya
- नीरजा के नौ दिनों में लड़कियां घड़ल्या भी मानती हैं। समूह में लड़कियां, एक लड़की के सिर पर छिद्रयुक्त घड़ा रखती है जिसमें दीपक जल रहा होता है। फिर दरवाजे-दरवाजे जाती हैं और अनाज या पैसा एकत्र करती है। अविवाहित युवक भी इस तरह का एक उत्सव "छला" के रूप में मनाते हैं।
सुआरा Suara
- बुंदेलखण्ड क्षेत्र का "सुआरा" पर्व मालवा के घड़ल्या की तरह ही है। दीवार से लगे एक चबूतरे पर एक राक्षस की प्रतिमा बैठाई जाती है। राक्षस के सिर पर शिव-पार्वती की प्रतिमाएं रखी जाती है। दीवार पर सूर्य और चन्द्र बनाए जाते हैं। इसके बाद लड़कियां पूजा करती हैं और गीत गाती हैं।
दशहरा Desehara
- दशहरा प्रदेश का एक प्रमुख त्यौहार है। इसे विजयादशमी कहते हैं। कुछ क्षेत्रों में इसे विजय के प्रतिक स्वरूप राम की रावण पर विजय के रूप में मनाते हैं। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में इस दिन लोग एक-दूसरे से घर-घर जाकर गले मिलते हैं और एक दूसरे को पान खिलाते हैं।
गोवरधन पूजा (गोवर्धन) Govardhna pooja
- कार्तिक माह में दीपावली के दूसरे दिन गोवरधन पूजा होती है। यह पूजा गोवर्धन पर्वत और गौधन से संबंधित है। महिलाएं गोबर से पर्वत और बैलों की आकृतियां बनाती हैं। मालवा में भील आदिवासी पशुओं के सामने अवदान गीत होड़ गाते हैं। गौड़ या भूमिया जैसी जातिया यह पर्व नहीं मनाती पर पशु पालक अहीर इस दिन खेरदेव की पूजा करते हैं। चंद्रावली नामक कथागीत भी इस अवसर पर गाया जाता है।
लारूकाज Larukaj
- गोंडों का नारायण देव के सम्मान में मनाया जाने वाला यह पर्व सुअर के विवाह का प्रतीक माना जाता है। आज कल यह पर्व शनै:-शनै: लुप्त होता जा रहा है। इस उत्सव में सुअर की बलि दी जाती है। परिवार की समृद्धि और स्वास्थ्य के लिए इस तरह का आयोजन एक निश्चित अवधि के बाद करना आवश्यक होता है।
काकसार Kakasar
- स्त्री व पुरूषों को एकान्त प्रदान करने वाला यह पर्व अबूझमाड़िया आदिवासियों का प्रमुख पर्व है। इसकी विशेष बात यह है कि युवा लड़के-लड़कियां एक दूसरे के गांवों में नृत्य करते पहुंचते हैं। वर्षा की फसलों में जब तक बालियां नही फूटती अबूझमाड़िया स्त्री-पुरूषों में एकान्त में मिलना वर्जित होता है। काकसार उनके इस व्रत को तोड़ने का उपयुक्त अवसर होता है। काकसार में लड़के और लड़कियां अलग-अलग घरों में रात भर नाचते और आनन्द मनाते हैं। कई अविवाहित युवक-युवतियों को अपने लिए श्रेष्ठ जीवन साथी का चुनाव करने में यह पर्व सहायक सिद्ध होता है।
रतन्नवा Ratanva
- मंडला जिले के बैगा आदिवासियों का यह प्रमुख त्यौहार है। बैगा आदिवासी इस पर्व के संबंध में अपने पुराण पुरूष नागा-बैगा से बताते हैं। इस बारे में बड़ी रोचक कथा प्रचलित है- एक बार मोहती और अन्हेरा झाड़ियों में लगी शहद से एक बूंद शहद जमीन पर जा गिरी। नागा-बैगा ने उसे उठाकर चख लिया। चखते ही सारी मधुमक्खियां बाघ बन गई। बैगा जान बचाकर भागा। जब वह घर पहुंचा, तो देखा कि सारा घर मधुमक्खियों से भरा है। उसने मधुमक्खियों को वचन दिया कि वह हर नौवें वर्ष उनके पूजन का आयोजन करेगा तब ही उसका छुटकारा हुआ।
होली Holi
- रंगों का पर्व होली फाल्गुन महीने में पूर्णिमा को मनाया जाता है। सभी वर्गों के लोग, यहां तक कि आदिवासी भी इसे उतसाह से मनाते हैं। इस पर्व में पांच से सात दिन प्रदेश के विभिन्न अंचलों में अलग-अलग विधियों से लकड़ियां एकत्र कर होली जलाते हैं। इसकी आंग को प्रत्येक गांव वाला अपने घर ले जाता है। यह नई पवित्र आग मानी जाती है। दूसरे दिन से लाग तरह-तरह के स्वांग रचकर मनोरंजन करते हैं और पिचकारियों में रंग भरकर एक दूसरे पर डालते हैं। यह क्रम कई दिन तक चलता है। होली का पर्व लगभग सभी हिन्दू त्यौहारों में सर्वाधिक आनंद, उमंग और मस्ती भरा त्यौहार है।
गंगा दशमी Ganga Dashmi
- सरगुजा जिले में आदिवासियों और गैर आदिवासियों द्वारा खाने, पीने और मौज करने के लिए मनाया जाने वाला यह उत्सव जेठ (मई-जून) माह की दसवीं तिथि को पड़ता है। इसका नाम गंगा-दशमी होने का एक कारण है कि हिन्दुओं में यह विश्वास है कि उस दिन पृथ्वी पर गंगा का अवतरण हुआ था। यह पर्व धर्म से सीधा संबंध नहीं रखता। लोग इस दिन अपनी-अपनी पत्नी के साथ नदी किनारे खाते-पीते नाचत-गाते और तरह-तरह के खेल खेलते हैं।
हरेली या हरीरी Hareli
- किसानों के लिए इस पर्व का विशेष महत्व है। वे इस दिन अपने कृषि उपयोग में आने वाले उपकरणों की पूजा करते हैं। श्रावण माह की अमावस्या को यह पर्व मनाया जाता है। मंडला जिले यह इसी माह की पूर्णिमा को तथा मालवा क्षेत्र में अषाढ़ के महीने में मनाया जाता है। मालवा में इसे "हर्यागोधा" कहते हैं। स्त्रियां इस दिन व्रत रखती हैं।
मेघनाथ Meghnath
- फाल्गुन के पहले पक्ष में यह पर्व गोंड आदिवासी मनाते हैं। इसकी कोई निर्धारित तिथि नही है। मेघनाद गोंडों के सर्वोच्च देवता हैं चार खंबों पर एक तख्त रखा जाता है जिसमें एक छेद कर पुन: एक खंभा लगाया जाता है और इस खंबे पर एक बल्ली आड़ी लगाई जाती है। यह बल्ली गोलाई में घूमती है। इस घूमती बल्ली पर आदिवासी रोमांचक करतब दिखाते हैं। नीचे बैठे लोग मंत्रोच्चारण या अन्य विधि से पूजा कर वातावरण बनाकर अनुष्ठान करते हैं। कुछ जिलों में इसे खंडेरा या खट्टा नाम से भी पुकारते हैं।
भगोरिया Bhagoriya
- फाल्गुन माह में मालवा क्षेत्र के भीलों का यह प्रिय उत्सव है। इसकी विशेष बात यह है कि इस पर्व में आदिवासी युवक-युवतियों को अपने जीवन साथी का चुनाव करने का अवसर मिलता है। भगोरिया हाट के दिन क्षेत्र भर से किसान, भील आदिवासी सजधज कर तीर तलवारों से लेस होकर हाट वाले गांव में पहुंचते हैं। वहां मैदान में ये लोग डेरे लगाते हैं। हाट के दिन परिवार के बुजुर्ग डेरी में रहते हैं पर अविवाहित युवक-युवतियां हाथ में गुलाल लेकर निकलते हैं। कोई युवक जब अपनी पसन्द की युवती के माथे पर लगा देता है तो और लड़की उत्तर में गुलाल लड़के के माथे पर लगा देती है तो यह समझा जाता है कि दोनों एक दूसरे को जीवन साथी बनाना चाहते हैं।पूर्व स्वीकृति की मोहर तब लग जाती है जब लड़की लड़के के हाथ से माजून (गुड़ और भांग) खा लेती है। यदि लड़की को रिश्ता मंजूर नहीं होता तो वह लड़के के माथे पर गुलाल नहीं लगाती। भगोरिया को दुशमनी निकालने का दिन भी समझा जाता है।
नव संवत्सर/गुड़ी पड़वा /नव रात्र /कलश स्थापन
नव संवत्सर भारतीय
अस्मिता का महत्वपूर्ण पर्व है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा शालिवाहन शंक संवत तथा विक्रम संवत पंचाग का प्रथम दिन
है। इसी दिन मालवा सम्राट विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की थी तथा विक्रम
संवत का प्रवर्तन हुआ था।
संपूर्ण
मध्यप्रदेश में इस दिन शक्ति पूजन का पर्व मानकर बासंतिक नवरात्र मनाते हैं।
नवरात्र वर्ष में दो बार मनाते हैं, एक चैत्र में एक क्वांर में। चैत्र में बासंतिक नवरात्र में
नवदुर्गा के पूजन अनुष्ठान का प्रथम दिन है। अतः इसी दिन कलश स्थापन होता है।
- बुन्देलखण्ड के अधिकांश परिवारों में कलश स्थापन करके नौ दिन तक दुर्गा पूजा करने की परम्परा है। मध्यप्रदेश के मालवा तथा निमाड़ क्षेत्रों में इस दिन को गुड़ी पड़वा के नाम से मनाया जाता है। उस दिन एक ध्वज या खिड़कियों में गुड़ी बांधते हैं। नीम की पत्ती खाकर दिन प्रारम्भ करते हैं तािा भोजन मेें खीर, श्रीखण्ड यो पूरणपोली बनाकर खाने की परम्परा है। तुलसी बिरवा के सामने रंगोली या अल्पना बनाई जाती है। द्वारों पर आमपत्रों तािा पुष्पों के तारण बाॅधे जाते हैं। घर के प्रवेश द्वारा के बाहर एक बांस गाड़कर केसरिया या लाल रंग का कपड़ा लपेटकर विजय पताका के रूप में बांधते हैं। इसके पश्चात् कलश उल्टा करके रखते हैं। उसके उपर पुष्प की माला डाल देते हैं। इसे गुड़ी बाॅधना कहते हैं। मान्यता है कि इस दिन पाॅच नीम की पत्तियां खाने से व्यक्ति निरोक रहता है। मूलतः यह महाराष्ट्र परम्परा का पर्व माना जाता है। उल्लेखनीय है कि इस पर्व को दक्षिण भारत में इगादि, कश्मीर में उगादि तथा सिंधी समाज द्वारा चेटीचंद के रूप में मनाया जाता है।
गणगौर कब और कैसे मनाया जाता है
- यह पर्व चैत्र शुक्त तृतीया को शिव-गौरा पूजन के रूप में मनाया जाता है। मूलतः यह राजस्थान की लोक परम्परा का पर्व है।
- बुन्देलखण्ड, मालवा, निमाड़ के अंचलो में महिलाएं गणगौर पर्व सौभाग्य कामना से मनाती हैं। मान्यता है कि इसी दिन पार्वती जी ने सौभाग्य बाॅटा था। बुन्देलखण्ड में इस दिन सौभाग्यवती महिलाएं व्रत रखती हैं तथा पूर्ण श्रृंगार करके महावत लगाकर गौरी देवी की पूजा करती हैं। गौरा देवी की मिट्टी की बनी प्रतिमा स्थापित करके पुष्प दूब आदि से पूजा की जाती है। नैवद्य में बेसन तथा आटा (गुड़ मिश्रित) गनगौरा बनाए जाते है। इसका प्रसाद पुरूषों को देने का निषेध है।
- निमाड़ में गणगौर पर्व चैत्रवदी दश्मी से चैत्रसुदी तीज तक पूर्ण उल्लास से मनाया जाता है। महिलाएं गणगौर गाती तथा नृत्य करती हैं। झालरिया तथा मटकी इस अवसर के पारम्परिक नृत्य हैं। मालवा में गणगौर वर्ष में दो बार चैत्र तथा भद्र में मनाते हैं किन्तु चैत्र गणगौर को विशेष महत्व दिया जाता है।
रामनवमी/दुर्गानवमी
- यह चैत्र शुक्त नवमी को भगवान राम के जन्म दिन के रूप में मनाते हैं। राम जन्म के पश्चात सोहर तथा बधावा लोकगीत गाते हैं। बुन्देलखण्ड तथा मालवा में इसे मनाने की सशक्त परम्परा है। इसी दिन दुर्गा नवमी भी मनाते हैं। दुर्गा पूजन का जो कलश स्थापन तथा अनुष्ठान प्रतिपदा को प्रारम्भ होता है उसका समापन हवन पूजन के साथ होता है तथा संध्या के समय जवारे, देवी मंदिरों में चढ़ाकर जलाशय में विसर्जित कर देते हैं।
जगन्नाथ की पूजा
- यह पूजा चैत्र माह के प्रथम से अंतिम सोमवार तक की जाती है। अंतिम सोमवार को बड़ी पूजा की जाती है। यह पर्व बुन्देलखण्ड क्षेत्र में प्रचलित है। यह नयी फसल के स्वागत का पर्व है। जिन परिवारों के कोई भी सदस्य जगन्नाथपुरी की यात्रा कर चुके हैं तथा वहां से उनका बेंत (छड़ी) लाते है, उन्हीं परिवारों में यह पूजा होती है। यह बेंत अन्न भण्डार में रख देने से भण्डार में वृद्धि होती है।
चैत्री पूर्णिमा (चैती पूनें) कब और केसे मनाया जाता है
- यह पूजा बुन्देलखण्ड अचंल में प्रचलित है। इस चैत्री पूनें या पूजनौ पूनें भी कहते हैं। आटा से चैक पूरकर उस पर 5 या 7 मटकियां रख देते हैं उन पर एक माॅच का चित्र तािा एक पूजन कुंअर का चित्र बनाते हैं। उन मटकियों में लड्डू भरकर मटकी का पूजन किया जाता है। बाद में माॅ मटकी हिला देती है तथा पुत्र से किसी मटकी में लड्डू निकालकर बालक को खाने को देते हैं। इसे पजूनो का लड्डू कहते हैं। इस त्योहार को मटका पूजा भी कहते हैं।
आसमाई aasmai
- यह पूजा बुन्देलखण्ड अंचल में प्रचलित है। इसमें आटा का चैकर पूरकर उस पर पाटा रखकर पान पर सफेद चंदक से चार पुतरियों अंकित करते हैं। प्रतयेक पुतरिया पर एक कौड़ी रखते हैं। एक घड़े में जौ भरकर उसकी पूजा करते हैं। इसके बाद पाटे पर पाॅसे की तरह कौडियां फेंकते हैं।
अक्षय तृतीय/आखातीज/अक्ती Akshya Tratiya ka tyohar
- अक्षय तृतीय का त्योहार मध्यप्रदेश के सभी अंचलो में मनाया जाता हैं इस दिन होने वाला कार्य अक्षय होने से यह सभी शुभ कार्यों के लिए अच्छा मुहूर्त माना जाता हैं इसे लोकभाषा में ‘आखातीज‘ या ‘अक्ती‘ भी कहते हैं।
- मूलतः यह कृषि पर्व है इस दिन कृषि कार्य प्रारम्भ होने से अनेक अचंलों में कृषि उपकरणों,कृषि भूमि तथा हलवाहक की चंदन टीका लगाकर पूजा की जाती है। बुंदेलखण्ड में कृषि कार्य प्रारम्भ करने की इस पूजा को हरायतें लेना कहते हैं। वर्षा किस दिशा से होगी तथा कैसी होगी इसका अनुमान इसी दिन करते हैं।
वैशाखी Vaisakahi ka tyohar
- वैशाखी यानी वैशाख शुक्ल पूर्णिमा का पर्व। नई फसल आने का यह उत्सव सर्वाधिक हर्ष एवं उल्लास के साथ मूल रूप से पंजाब में मनाया जाता है। स्वतंत्रता के पश्चात पंजाबी समुदाय के लोग पूरे देश में बस गए हैं। मध्यप्रदेश राज्य में भी काफी संख्या में है इसी दिन पंजाबी समुदाय के लोग एक साथ मिलकर ‘बुल्लेशाह‘ के टप्पे गाते हैं, भांगड़ा तथा अन्य नृत्य करके एक दूसरे को बैशाखी की बधाई देते हैं।
वट सावित्री पूजन/ बरा-बरसातें/ डोड बलई Vat Savitri ka tyohar
- यह पर्व जयेष्ठ कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां वट वृक्ष का पूजन करती हैं तथा व्रत रखती हैं। बुन्देलखण्ड में वट को बर या बरा (बरगद का संक्षिप्त रूप) कहने के कारण इसे बरा-पूजन या ‘बर अमावस‘ भी कहते हैं। सभी लोकांचलों में वट सावित्री का पूजन किया जााता है। लोक मान्यता के अनुसार सावित्री को पति का जीवन वट वृ़क्ष के नीचे वापिस मिला था अतः वट वृक्ष का पूजन अखण्ड सौभाग्य प्राप्ति की कामना से किया जाता है।
- मालवा में इसे बड़-सावित्री कहते हैं। इसमें वृक्ष के नीचे पाॅच सुहागिन स्त्रियों की गोद भरने की परम्परा है। धान्य फल तथा पकवान आॅचल में डालकर गोद भरी जाती है। निमाड़ में इस दिन को ‘डोल बलई अमावस्या‘ कहते हैं।
बिदरी/घायिला Bidri ka tyohar
- यह त्योहार ज्येष्ठ या आषाढ़ में आयोजित किया जाता है। यह बैगा जनजाति का एक कृष पर्व है। जो फसल बोने के पूर्व सामूहिक रूप से गा्रमवासियों द्वारा अच्छी पैदावार की कामना से किया जाता है। मान्यता है कि बिरनी के दिन विधिवत पूजित अनाज को खेत में बोऐ जाने वाले बीज में मिला देने से अंकुरण अच्छा होता है। फसल को कीड़ो या पशुओं से क्षति नहीं होती है।
- गौंड बाहुल क्षेत्रों में बुआई के पूर्व ‘घायिला‘ का आयोजन ज्येष्ठ माह में किया जाता है। इसमें गाॅव के मुखिया आनुष्ठानिक पूजन करता है। तत्तपश्चात बखर चलाए जाते हैं।
असाढ़ी देवता पूजन Asadi devta poojan
- यह पूजन आषाढ़ शुक्ल पुर्णिमा को किया जाता है। बुन्देलखण्ड तथा मालवा में इस पर्व की विशेष मान्यता हैं बुन्देलखण्ड में आषाढ़ के शुक्ल पक्ष में घर के अंदर आषाढी कथा (सत्यनारायण की कथा) कराने की परम्परा है। मालवा क्षेत्र के लोग गाॅव के सभी देवताओं का देवालयों में जाकर सिन्दूर लगाकर पूजन करते तथा लाल सफेद पताकाएं लगाता है। बरसात के दिनों में पशुरक्षा के निमित्त गाॅव के बाहर जाकर रोग्टा करते यानी रोग निकालते हैं।
कुनघुसू पूनें kunughus pune ka tyohar
- यह उत्सव आषाढ़ शुक्ल पुर्णिमा को मनाया जाता हैं यह बुन्देलखण्ड का विशिष्ट लोकोत्सव है। ‘कुनघुसू पुनें‘ गृहलक्ष्मी की पूजा का पर्व है। यह जीवित बहुओं के पूजन का प्रतीक पर्व है। बहुओं के सम्मान का ऐसा उदाहरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। सास बहुओं से परिवार का सम्पन्नता श्री समृद्धि से भरने की प्रार्थना करती है तथा ‘दूधन नहाओं, पूतन फरो‘ का आर्शीवाद देती हैं। सास-बहु की समरसता का यह पर्व अद्भुत है।
जिरोती Jiroti ka tyohar
- यह पर्व श्रावण कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता है। निमाड़ का यह विशिष्ट उत्सव है। बच्चों की रक्षा करने वाली दरेवी की पूजा का यह त्योहार निमाड़ में सभी जगह मनाया जात है। लोक कथा के अनुसार यह पूजा जरासंघ के स्मृति में ‘जिरोती‘ के लोककला चित्र बनाकर की जाती है।
हरजोती याह हरीजोत Harjot ka tyohar
- यह उत्सव श्र्रावण कृष्ण अमावस्या को बुन्देलखण्ड अंचल में मनाया जाता है। यह परिवार की कुँवारी कन्याओं की पूजा का पर्व है। उनके प्रति श्रद्धा निवेदन का त्योहार है। इसदिन परिवार की वरिष्ठ महिला पूजा गृह के चारों कोनों की दीवार पर गोबल तथा पुतना मिट्टी पोतकर उस पर हल्दी से कन्याओं की पुतरियाँ बनाती है। यह त्योहार पारिवारिक समरसता तथा कन्याओं के प्रति सम्मान का पर्व है।
हरेली Hareli ka tyohar
- यह त्योहार बैगा जनजाति द्वारा श्रावण माह की अमावस्या को अच्छी फसल की कामना के लिए मनाया जाता है।
दिवासा Divasha ka tyohar
- भील जनजाति में दिवासा का पर्व इन्द्रदेव को प्रसन्न करके अच्छी वर्षा की कामना के लिए श्रावण मास की आमावस्थ्या का मनाया जाता है।
श्रावण तीस/ हरियाली तीज Hariyali teej
- यह त्योहार श्रावण शुक्ल तृतीया को मनाया जात हैं बुन्देलखण्ड क्षेत्र में साउनतीज के रूप में यह पर्व विशेष रूप से मनाया जाता है। इस दिन पूजा घर में भगवान जी का हिंडोला लगाते हैं। तथा उसे कदम्बर के पत्तों, फूलों एवं अन्य सुगंधित पुष्पों से सजाते हैं। भगवान के विग्रह को अनुष्ठान पूर्वक हिंडोला में बैठाकर उसका पूजा अर्चन करते हैं, कजरी के गीत गाते हैं। जिन परिवारों में लड़की का विवाह पिछली रक्षाबंधन तथा सावनतीज के बची में हुआ होता है, उनके यहाँ वर पक्ष की ओर से ‘साउनी‘ भेजने का क्रम भी सावनीतीज से रक्षाबंधन तक चलता है। मंदिरों में यह त्यौहार विशेष उत्साह के साथ ‘समैया‘ के रूप में मनाया जाता है।
नाग पंचमी Nagpanchmi ka tyohar
- नाग पंचमी का त्योहार श्रावण शुक्ल पंचमी को मनाते हैं। वैसे तो यह पर्व सभी लोकांचलों में मनाया जाता है किन्तु निमाड़ में इसकी विशेष मान्यता हैं निमाड़ मं यह पर्व वहां के शासक कार्कोटिक नागों की स्मृति में मनाते हैं। वहां के कोरकू कार्कोटिक नागों के वंशज माने जाते हैं। यह पर्व इस लोक विश्वास के साथ जुड़ा है कि इस दिन नाग पूजा करने से सात पीढ़ियों तक सर्पदंश का भय नहीं रहता है। सभी लोकाचंलों में नाग-पूजन के लोककला चित्र मिलते हैं।
रक्षा बंधन/साउन/राखी Saun ka tyohar
- रक्षा बंधन भारतीय संस्कृति में भाई-बहन के प्रेम का अमर पर्व है। इसे मध्यप्रदेश के सभी भागों में उत्साहपूर्वक मनाते हैं इसे साउन या राखी भी कहते हैं।
- एक पौराणिक आख्यान के अनुसार एक बार सुर-असुरों में बारह वर्ष तक युद्ध चला। युद्ध समाप्त होते न देखकर इन्द्राणी चितिंत हुई। उसने ब्राम्हाणों द्वारा स्वास्ति वाचन कराकर इन्द्र के दाहिने हाथ में रक्षा बंधन बाॅधकर युद्ध में भेजा था। उसमें इन्द्र विजयी हुई। भाई के हाथ में बहन द्वारा राखी बाॅधने की परम्परा तभी से प्रारंभ हुई।
- निमाड़ में राखी के आठ दिन पूर्व ‘इरपस‘ मनाया जाता है। इस दिन भाई विवाहित बहन के ससुराल में ‘इरपस‘ लेकर जाता है। इसमें बहन को देने के लिए गेहूॅ, गुड़, नारियल, वस्त्र आदि रखे जाते हैं। साथ में बहन से मायके चलने का आग्रह किया जाता है।
भुजरियाँ (कजलियाँ) Bhujariya or Kajariya ka tyohar
- यह त्योहार बुन्देलखण्ड अंचल में भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा को मनाया जाता है। इसे ‘बासा सावन‘ भी कहते हैं। इस दिन भुजरियाँ (कजलियाँ) जो सावन सुदी नवमी पर बोई जाती है, पूजा विधान सहित तालाबों में विसर्जित की जाती है। कजलियाँ मूलतः रक्षाबंधन के दिन ही तालाब में विसर्जित ही जाती है। इस दिन स्थान-स्थान पर मेले लगते हैं लोग गले मिल भेंट कर स्नेह प्रदर्शित करते तथा बधाई देते हैं।
कजली तीज Kajli Teej
- यह त्योहार भाद्रपद कृष्ण पक्ष की तृतीया को विशेष रूप से मालवा में मनाया जाता है। इसकी सोलह वर्षीय अनुष्ठान परम्परा है। प्रतिवर्ष इसका व्रत रखकर सोलहवे वर्ष उद्यापन किया जाता है।
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