भारत के प्रमुख ऐतिहासिक व्यक्तित्व चैतन्य महाप्रभु
जन्म - 18 फरवरी 1486 नाबाद्वीप
मृत्यु- 14 जून 1534, पूरी
पुरा नाम- विश्वम्भर मिश्रा
पत्नी- लक्ष्मीप्रिया
चैतन्य महाप्रभु वैष्णव धर्म के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियो में से एक हैं।
पंद्रहवीं शताब्दी में फाल्गुन शुक्ल पुर्णिमा को चैतन्य महाप्रभु का जन्म पश्चिम बंगाल के नादिया गांव मे हुआ। इसे अब मायापुर कहते हैं।
चैतन्य महाप्रभु के कई नाम हैं। उनके पिता ने उनका नाम विश्वम्भर रखा, युवावस्था में उन्हें निमाई पण्डित के नाम से जाना जाता था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया।
निमाई बाल्यवस्था से ही भगवद् चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण स्तुति गान करने लगे थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हआ।
सन 1905 में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई. वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे तभी इनके पिता का निधन हो गया । चैतन्य के बड़े भाई विश्वरूप ने बाल्यावस्था में ही सन्यास ले लिया था। अतः न चाहते हुये भी चैतन्य को अपनी माता की सुरक्षा के लिए चौबीस वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना पड़ा। कहा जाता है कि इनका विवाह बल्लभाचार्य की सुपुत्री से हुआ था।
सन्यास ग्रहण करने पर वे श्रीकृष्ण चैतन्य कहलाए। वे श्री चैतन्य महाप्रभु या केवल महाप्रभु के नाम से भी सुविख्यात थे। अपनी लीलाओं में वे गौरासंग अथवा गौरहरि के नाम से जाने गए। क्योंकि उनका वर्ण गौर ( स्वर्णिम) था। एक बार वे अपने पिता का श्राद्ध कर्म करने कया पहुॅचे और वहीं उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। सााि ही वहां उन्हें अपने गुरू ईश्वरपुरी से भी मिलने का मौका मिला। कुछ ही दिनों बाद उनहोंने सन्यास ले लिया और भारत भ्रमण पर निकमल पड़े। महाप्रीाु ने अपने प्रािम चौबीस वर्ष पश्चिम बंगाल में नवद्वीप नामक स्थान पर बिताए। तब उन्होंने गृहस्थ जीवन का त्याग करके सन्यास ग्रहण किया।
पूरी को अपना मुख्यालय बनाकर महाप्रभु ने छह वर्षों तक दक्षिण भारत, बंगाल तथा वृंदावन में भ्रमण किया। अपनी प्रकट लीला के अंतिम अठारह वर्ष उन्होंने पुरी में बिताए जहां वे कृष्ण प्रेम गहनतम महाभाव में और गहरे उतरते गए। चैतन्य महाप्रभु बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा सम्पनन थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हैरान हो जाता था।
वे राधा-कृष्ण के अनन्य भक्त थे। ‘हरे कृष्ण-हरे कृष्ण‘ का जाप उन्होंने जन सामान्य की जुबान पर ला दिया उन्होंने वैष्णवों के गौंडीय सम्प्रदाय की आधारशिला रखी।
उन्होंने भजन गायकी की एक नई शैली को जन्म दिया और राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में हिन्दू-मुस्लिम एकता और सद्भावना पर बल दिया। उन्होंने लोगों को जात-पॉत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त होते वृंदावन को फिर से बसाया। घूम-घूम कर उनके कीर्तन करने का व्यापक और सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक है।
उनके अनुसार श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं। जिनमें जगत की सारी शक्तियों निहित हैं। प्रत्येक व्यक्ति उनका अंश है और श्रीकृष्ण से प्रेम करने पर ईश्वर से एकाकार हो सकता है। मृदंग की ताल पर कीर्तन करने वाले चैतन्य महाप्रभु प्रम की चेतना के संवाहक बने और लोगों को प्रेम और भक्ति के साथ रहना सिखाया।
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