Madhya Pradesh Ke Pramukh Rajvansh |मध्य प्रदेश के प्रमुख राजवंश-02
परमार वंश Parmar Vansh
मालवा के परमार वंश का काल
संस्थापक-सीयक
राजधानी-उज्जैन व धार
- परमार वंशीय शासक राष्ट्रकूट राजाओं के सामंत थे। सर्वप्रथम इस वंश का शासक हर्ष अथवा सीयक द्वितीय ने 945 ई. में अपने को स्वतंत्र घोषित किया और नर्मदा के तट पर तत्कालीन राष्ट्रकूट शासक खोट्टिंग को परास्त किया। इसकी मृत्यु के बाद वाक्पति मु´ज शासक बना।
- हूणमडल (मालवा के उत्तर-पश्चिमी में स्थित) के हूणों ने उसकी अधीनता स्वीकार की। वाकपति मुंज ने (972-994) गोदावरी नदी पार कर चालुक्य नरेश तैल द्वितीय पर आक्रमण किया जिसमें वह हार गया तथा बंदी बनाकर तैल द्वितीय द्वारा मार दिया गया।
- मुंज ने धार में मुंजजसागर झील बनवाई। मुंज की मृत्यु के बाद इस वंश का शासक उसका छोटा भाई सिन्धुराज बना, जिसने सर्वप्रथम अपने समकालीन चालुक्य शासक सत्याश्रय को हराकर उन प्रदेशों पर अधिकार कर लिया जिसे उसके भाई मुंज ने तैल द्वितीय से जीता था।
- सिन्धुराज की मृत्य के पश्चात् उसका पुत्र भोज गद्दी पर बैठा। अपने शासन के अंतिम दिनों मे वह अपने साम्राज्य की सुरक्षा नहीं कर सका। चालुक्य नरेश सोमेश्वर द्वितीय ने उसकी राजधानी धारा नगरी पर आक्रमण किया, जिसमें भोज की हार हुई। यह जानकारी नागाई लेख (1058 ई.) से प्रप्ता होती है। भोज की मृत्यु के बाद कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण व चालुक्य नरेश भीम ने उसकी राजधानी धारा पर बारी-बारी से आक्रमण किया।
- भोजकाल (1000 ई.) में यह नगर विद्या व कला का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया । यहाँ अनेक महल व मंदिर बनवाये गए, जिसमें सरस्वती मंदिर सर्वप्रमुख था। उसने धार के सरस्वती मंदिर में प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय की स्थापना करवाई (वाग्देवी की प्रतिमा भी)।
- परमार शासक भोज ने भोपाल के द.पू. में 250 वर्ग मील लंबी एक झील का निर्माण करवाया जो आज भी भोजसर नाम से प्रसिद्ध है।
- गंजबासौदा (विदिशा) के समीप उदयपुर नामक स्थान के नीलकण्ठेश्वर मंदिर के एक शिलापट्ठ के उपर उत्कीर्ण प्रशस्ति ही उदयपुर प्रशस्ति के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें परमार वंश के शासकों के नाम तथा उनकी उपलब्धियों के बारे में स्पष्ट जानकारी दी गई है।
- भोज लिखित ग्रंथ हैं। आयुर्वेद सर्वस्व, समरांगण सूत्रधार।
चंदेल वंश (जेजाकभुक्ति) Chandel Vansh
- चंदेल वंश की राजधानी-खजुराहो थी । इसकी स्थापना 831ई. में नन्नुक नामक व्यक्ति द्वारा की गई। लेखों में इन्हें चन्द्रात्रेय ऋषि का वंशज कहा गया है, जो आत्रि के पुत्र थे।
- हर्ष (905-925) के बाद इसका पुत्र यशोवर्मन गद्दी पर बैठा था, जिसने कन्नौज के प्रतिहारों को समाप्त किया और राष्ट्रकूटों के कालिंजर का दुर्ग जीता तथा मालवा के चेदि शासक को अपने अधीन कर लिया। यशोवर्मन (लक्ष्मणवर्मन) ने ही खजुराहो के प्रसिद्ध विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर में उसने बैकुण्ठ की मूर्ति स्थापित करायी थी, जिसे उसने प्रतिहार शासक देवपाल से प्राप्त किया था।
- यशोवर्मन के बाद उसका पुत्र धंग राजा बना, जिसने कालिंजर पर अपना अधिकार सुढृढ़ कर उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद ग्वालियर पर अपना अधिकार जमाया।
- धंग (950-1008 ई.) ने खजुराहों में पार्श्वनाथ, विश्वनाथ तथा वैद्यनाथ आदि के मंदिर बनवाए इसके प्रयाग में गंगा-यमुना के पवित्र संगम पर अपना शरीर त्याग दिया। धंग(1008 ई.) ने जगदम्बी व चित्रगुप्त मंदिर बनवाए।
- विद्याधर(1017-1029)ही एक ऐसा भारतीय शासक था, जिसने महमूद गजवनी की महत्वाकाक्षांओं का सफलतापूर्वक विरोध किया। इसके मालवा परमार के शासक भोज व त्रिपुरि के कलचुरि शासक गांगेयदेव को भी हराकर उसे अपने अधीन में किया। विद्याधर की मृत्यु के बाद उसके पुत्र विजयपाल व पौत्र देववर्मन के काल में चंदेल त्रिपुरि के कलचुरि-चेदि वंशी शासकों यथा गांगेयदेव व कर्ण की अधीनता स्वीकार करते थे परंतु इन दोनों के बाद किर्तिवर्मन इस वंश का शासक बना जिसने चेदि नरेश कर्ण को हराकर पुनः अपने प्रदेश को स्वतंत्र किया। इसकी पुष्टि अजयगढ़ व महोबा से प्राप्त चंदेल लेख से भी हो जाती है। इस वंश का अंतिम शासक परमर्दिदेव (परमाल ) था जिसने 1165-1203 ई. तक शासन किया। यह 1182 ई. में महोबा में पृथ्वीराज चौहान द्वारा तथा 1203 ई. में कालिंजर में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा पराजित हुआ था। कालिंजर के युद्ध में परमर्दिदेव की मृत्यु हो गई। परमर्दी देव के साहसी दरबारी थे-आल्हा व उदल।
- कन्दरिया महादेव मंदिर (खजुराहो): इसके गर्भगृह में शिव, गणेश तथा प्रमुख हिन्दू देवियों की मूर्तियाँ बनी हैं। इस मंदिर के भीतरी तथा बाहरी दीवारों पर अनेक भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गईं हैं।
कलचुरिः चेदि वंश Kalchuri Chedi Vansh
- स्थापना-कोक्कल प्रथम( 850 ई.) राजधानी-त्रिपुरी (तेबर ) जबलपुर।
- इस वंश का प्रथम शासक कोक्कल प्रथम था। युवराज प्रथम राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के साथ युद्ध में हार गया तथा इस कारण इस क्षेत्र पर कुछ समय के लिए राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया परंतु शीघ्र ही युवराज प्रथम ने अपनी सेना को लेकर राष्ट्रकूटों पर धावा बोलकर उन्हें परास्त कर अपने साम्राज्य से बाहर कर दिया।
- युवराज प्रथम के ही शासन काल में राजशेखर कन्नौज छोड़कर त्रिपुरी आया, जहाँ उन्होंने दो ग्रंथों-काव्यमीमांसा व विद्धशालभंजिका की रचना की। राजशेखर की रचना विद्धशालभंजिका में युवराज को उज्जयिनी भुजंग अर्था्त मालवा का विजेता कहा गया है।
- युवराज द्वितीय की मालवा के परमार नरेश मुन्ज द्वारा पराजित कर दिया गया, जिस कारण त्रिपुरी पर कुछ समय के लिए परमारों का अधिकार हो गया। इसके बाद इसी वंश का राजा गांगेयदेव, जो प्रारंभ में चंदेल नरेश विद्याधर की अधीनता स्वीकर करता था विद्याधर की मृत्यु के बाद उसने अपने राज्य को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उसने विक्रमादित्य की उपाधि भी धारण की थी। 12वीं शती के अंत तक इस वंश ने किसी न किसी प्रकार से महाकौशल में अपनी सत्ता कायम रखी। 13वीं शती के प्रारंभ में इस वंश का अंतिम शासक विजयसिंह बना जो चंदेल शासक त्रैलोक्यवर्मन से पराजित हुआ। इस प्रकार त्रिपुरी को चंदेल राज्य में शामिल कर कल्चुरी-चेदि वंश को समाप्त कर दिया गया। 1305 ई. चंदेल वंश दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया गया।
दिल्ली सल्तनत काल (1206 से 1526 ई.) Delhi Sultnat in MP
- मध्य प्रदेश में 10वीं शताब्दी में ही आक्रमण प्रांरभ हो चुके थे जिसमें 1019 में महमूद गजवनी ने ग्वालियर भूभाग पर आक्रमण किया। दिल्ली सल्तनत के प्रारंभिक शासक ऐबक की महत्वपूर्ण विजयों में बंुदेलखण्ड की विजय शामिल थी।
- कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद प्रतिहारों ने ग्वालियर, चंदेलों ने कालिंजर व अजयगढ़ पर अपना अधिकार कर लिया। इल्तुतमिश द्वारा 1231 ई. में ग्वालियर के किले पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की गई।
- 1233-34 ई. में कालिंजर व उसके आसपास के क्षेत्रों को जीता गया। 1234-35 में इल्तुतमिश द्वारा मालवा पर आक्रमण किया गया जिनमें उसने भिलसा व उज्जैन से काफी धन लूटा।1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मुल्तान के सूबेदार अईन-उल-मुल्क को मालवा पर आक्रमण हेतु भोज जिन्होंने आखिरकार वहाँ के राजा महलकदेव व उसके पुत्र को युद्ध में मारकर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने उज्जैन, धारानगरी व चंदेरी आदि को भी जीता। यहीं से पहली बार मालवा का दिल्ली सल्तनत में प्रवेश हुआ। 1401 ई. में दिलावर खाँ की मृत्यु के पश्चात् यहाँ का शासक हुसैनशाह बना, जिसे गुजरात के शासक मुजफ्फरशाह द्वारा मालवा पर आक्रमण के फलस्वरूप कैद कर लिया गया परंतु मालवा में विद्रोह हो जाने के बाद मुजफ्फरशाह ने हुसैनशाह को ही भेजा, जिन्होंने पुनः अपना अधिकार जमाया। इसके पश्चात् उन्होंने मण्डू को अपनी राजधानी बनाया। मण्डू नगर को बसाने का श्रेय भी उसी को ही है। इस वंश के शासक महमूदशाह द्वितीय के काल में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने 1531 ई. में मालवा पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।
मुगल काल (1526 से 1857 ई.) Mugal Kal in MP
- 1526 ई. में मुगल सम्राट बाबर द्वारा दिल्ली सल्तनत के अंतिम शासक इब्राहिम लोदी (लोदी वंश) को हराकर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली गई। 29जनवरी, 1528 ई. को मालवा के सूबेदार मेदिनी राय की युद्ध में हत्या कर बाबर ने चंदेरी पर अपना अधिकार जमाया। बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ मुगल सम्राट बना, जिसके समय में सम्पूर्ण मालवा जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
- कन्नौज(1540 ई.) के विलग्राम के युद्ध में शेरशाह ने मुगल सम्राट हुमायूँ को हराकर इस राज्य के माण्डू , उज्जैन, सारंगपुर आदि क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
- शेरशाह ने 1545 ई. में बुदेलखण्ड के कालिंजर किले पर आक्रमण किया जिसमें बारूद फटने से उसकी मृत्यु हो गई। यह किला उस समय कीरत सिंह के कब्जे में था। शेरशाह द्वारा किया गया यह युद्ध रीवा के राजा वीरभान बघेला को कीरत सिंह द्वारा उसे न सौंपे जाने का एक बहाना मात्र था। शेरशाह की मृत्यु के पूर्व इस किले पर अफगानों को विजय मिल चुकी थी। मुगल सम्राट अकबर ने 1561 ई. में आसफखाँ को मालवा पर आक्रमण हेतु भेजा जहाँ उसे बाज बहादुर पर सफलता मिल गई। इस राज्य का गोंडवाना प्रदेश, जो रानी दुर्गावती के अधिकार क्षेत्र में था में अकबर ने युद्ध के लिए आसफ खाँ के नेतृत्व में मुगल सेना भेजी, जिसमें मुगल सेना की विजय हुई तथा रानी दुर्गावती (गोंडवाना) की पराजय हुई। उसने अपने सतीत्व की रक्षा हेतु स्वयं आत्महत्या कर ली। इसके पश्चात् गोंडवाना प्रदेश मुगल साम्राज्य में चला गया। अकबर ने 1569ई. में कालिंजर के किले पर अपना अधिकार कर लिया, उस समय यह किला, राजा रामचन्द्र के अधीन था। अकबर ने स्वयं 1601 ई. असीरगढ़ के किले पर अपना अधिकार जमाया। 1617 ई. में मुगल सम्राट जहाँगीर का दक्षिण की देखभाल हेतु स्वयं माण्डू जाना तथा खुर्रम का बुरहानपुर पहुँचना राज्य की महत्ता को स्पष्ट करता है।
- औरंगजेब की धार्मिक नीति के कारण मालवा व बुंदेलखण्ड में भी विद्रोह हुए, जिनमें बुंदेलखण्ड का विद्रोह सफल रहा। ओरछा के राजा चम्पत राय ने औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर 1661 ई. मुगल आधिपत्य स्वीकार करने के बजाय आत्महत्या करना उचित समझा। इसके बाद उसका पुत्र छत्रसाल मुगलों की सेना में चला गया। वह जब मुगल सेना के साथ दक्षिण की तरफ विजय अभियान हेतु गया तो वह शिवाजी से प्रभावित होकर अपनी सेवाएँ उन्हें देनी अर्पित कर दी। उसने धमानी व कालिंजर पर अपना अधिकार जमाया। शिवाजी ने बुंदेलखण्ड में जाकर युद्ध प्रारंभ करने की सलाह दी। इस प्रकार 1705 ई. में औरंगजेब से उसे संधि करनी पड़ी परन्तु 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद वह बुंदेलखण्ड का एक स्वतंत्र शासक बन गया और उसने पेशवा बाजीराव को बुंदेलखण्ड का पर्याप्त बड़ा भाग जागीर के रूप में दे दिया। यहीं से प्रदेश में मराठों का प्रवेश शुरू हुआ।
मराठा काल(1707 से 1818 ई.) Maratha Kal
- मुगल सम्राट फर्रूखसियर के विरूद्ध अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए हुसैन अली (जो सैयद बन्धु का एक भाई था) ने मराठों से सहायता लेने के लिए एक संधि की जिसके अनुसार, खानदेश व गोंडवाना, जो मराठा शासकों द्वारा जीता गया था, को शाहू को सौंपे जाने की बात थी। यह स्थिति मराठा शासकों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण व मुगल शासकों के लिए नुकसानदायक थी। 1722 ई. में बाजीराव ने मालवा पर प्रथम बार आक्रमण किया। इसके बाद 1724 ई. में इस भू-भाग में चौथ के लिए युद्ध किया। इसके पश्चात् पेशवा की तरफ से मल्हार राव होल्कर, रानोजी सिन्धिया व उदय पवार आदि लोगों ने मालवा की देखरेख में तीसरी बार आक्रमण किया और उसके बाद इस भू-भाग पर मराठों के निरंतर आक्रमण होते रहे। 1737 ई. में पेशवा बाजीराव से एक संधि करनी पड़ी, जो दुरई सराय की संधि के नाम से प्रसिद्ध थी।
अंग्रेजी काल Angrajo ka Kal in MP
- प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध 1775-82 ई. तक चला। यह युद्ध अनिर्णायक समाप्त हुआ जिसके दरम्यान कंपनी व पेशवा के मध्य 1776 में पुरन्दर की संधि, 1779 में बड़गाँव की संधि व 1782 ई. में सालबाई की संधि हुई। अंततः माधव राव नारायण को अंग्रेजों द्वारा पेशवा मान लिया गया। उस समय अंग्रेज गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स था। द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध 1803-06 ई. तक चला। इसमें अंग्रेजों का पक्ष भारी रहा। इस युद्ध के दौरान कंपनी द्वारा पेशवा से बेसीन की संधि 31.12.1802 की जिसके अनुसार पेशवा के द्वारा स्वीकार किए गए तथ्यों में मुख्य रूप से म.प्र. के ताप्ती व नर्मदा के मध्य भू-भाग को कंपनी को देने की बात थी। इस क्रम में कंपनी द्वारा भोंसले से 17.12.1803 ई. में देवगाँव की संधि, सिंधिया से सूरजी अर्जन गाँव की (30.12.1803) संधि की गई। वेलेज्ली के शासन काल में होल्कर 25.12.1805 से राजपुरघाट की संधि की गई, जिसमें मराठा सरदारों द्वारा चंबल का उत्तरी भू-भाग व बंुदेलखण्ड छोड़ दिया गया। 13जून 1817 को पेशवा ने कर्नल स्मिथ के द्वारा पूना अभियान के क्रम में पूर्णतया अपने हथियार डाल दिए तथा उसने एक नई संधि पर हस्ताक्षर किए।इस संधि के द्वारा म.प्र राज्य के मालवा व बुंदेलखण्ड के भाग कंपनी को दे दिये गये। लॉर्ड हेस्टिंग्स ने सितम्बर 1817 ई. में एक विशाल सेना के साथ कानपुर पहुँचकर सिन्धिया को संधि करने के लिए कहा, जिसे उसे अन्ततः विवश होकर स्वीकारना ही पड़ा। इस संधि की मुख्य शर्तों में उसे पिण्डारियों की सहायता बंद करने और उसको समाप्त करने में अंग्रेजों का साथ देना शामिल था। इसके लिए असीरगढ़ व सिंधिया के दुर्ग के भी उपयोग करने की बात कही गई थी। होल्कर ने 6.1.1818 को मंदसौर की संधि से खानदेश सहित नर्मदा के तट का समस्त क्षेत्र कंपनी को दे दिया। तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध 1817-18 ई. तक चला। इसमें मराठों की पूर्णतया हार हो गई और उनका संपूर्ण साम्राज्य अंग्रेजी साम्राज्य में मिला गया। 1818 में पेशवा पद की समाप्ति हुई।
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होल्कर वंश |
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