असमतापी (ectotherms) अर्थात् शीत-रक्त प्राणियों के शरीर का तापमान, वातावरण के तापमान के समान होता है। मेंढक, साँप आदि असमतापी जीव हैं जिनके शरीर का तापमान वातावरण से
नियंत्रित होता है। छिपकली, कछुआ, मगरमच्छ, मछली आदि भी शीत-रक्त प्राणी
हैं।
समतापी (endotherms) अर्थात् गर्म-रक्त प्राणी अपने शरीर का तापमान शारीरिक
क्रियाओं द्वारा एक जैसा बनाए रखते हैं। बाहर का तापमान बदलने पर भी वह अपने शरीर
का तापमान शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से सहन सीमा तक रखने में सक्षम होते हैं।
पक्षी एवं स्तनधारी इस तरह के प्राणी हैं।
किसी तंत्र की स्वनियमन या
स्वअस्तित्वन की क्षमता को समस्थापन (homostasis) कहते हैं। यह जैविक निकायों की
उस प्रवृत्ति का द्योतक है जिसके कारण वह परिवर्तनों का विरोध करते हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र में समस्थापन पुनर्भरण की क्रियाविधि द्वारा संचालित होता है।
बाहरी वातावरण में परिवर्तन होने के
बावजूद आंतरिक वातावरण में स्थिरता बनाए रखना ही समस्थापन है। पारितंत्र की
समस्थापन क्षमता सीमित होती है। समस्थापन के लिये नकारात्मक पुनर्भरण-प्रक्रिया
उत्तरदायी होती है।
किसी भी तंत्र में निवेशों (inputs) तथा निर्गतों (outputs) के प्रति अनुक्रिया होती है।
जैसे-हमारे सामने कोई ऐसा सर्प आ जाए जिसे हम विषैला समझते हैं तब, हमारे शरीर में एड्रीनलीन का स्तर उच्च हो जाता है, हृदय-गति बढ़ जाती है आदि। तत्पश्चात् हम प्रतिक्रिया स्वरूप ठहर
जाते हैं या साँप से दूर भागते हैं। इस घटना में साँप एक निवेश (inputs) है और ठहर जाना या दूर भागना निर्गत (outputs) है।
नकारात्मक/ऋणात्मक पुनर्भरण (negative feedback) के अंतर्गत होने वाली अनुक्रिया निवेश के विपरीत दिशा में
होती है, जैसे-शरीर का तापमान बढ़ने से उसे घटाने या नियत बिंदु तक लाने की
कोशिश करना। एक तरह से यह समस्थापन को ही इंगित करता है।
धनात्मक/सकारात्मक पुनर्भरण (positive feedback) के अंतर्गत निवेश में होने वाली वृद्धि निर्गतों में भी
वृद्धि करती है, यथा-पर्यावरण के तापमान वृद्धि से
शरीर के तापमान में वृद्धि होना। ऐसे में शरीर का तापमान बढ़ता चला जाए तो अंततः
व्यक्ति की मौत हो जाएगी।
ऋणात्मक पुनर्भरण प्रक्रिया ने
पारितंत्र का संतुलन किया है, जिसे कुल मिलाकर पारितंत्र की
प्राथमिक नियमन क्रियाविधि कहा जाता है। इसके अतिरिक्त, आग, सूखा, खनन, वनोन्मूलन, अत्यधिक सरलीकरण (एकधान्य कृषि) आदि धनात्मक पुनर्भरण प्रक्रिया के
उदाहरण हैं, जो समस्थापन को बिगाड़ते हैं।
समतापी जीवों में 37°C या 98.6°Fताप पर जीव रासायनिक क्रियाएँ
सबसे अधिक क्रियाशील होती हैं। साथ ही जीवों द्वारा अनुकूलन-ऊष्मा ह्रास दर को कम
करने के लिये अपनाए जाते हैं, ताकि ये शीत स्थितियों में भी
स्वयं को सक्रिय रख सके।
गहरे जलाशयों में विभिन्न गहराइयों पर
जल के तापमान में अंतर होता है, जो कि ताप प्रवण स्तर द्वारा
विभिन्न स्तरों में विभाजित रहता है। इस तरह ताप-प्रवणता (Thermocline) एक ही जलाशय में भिन्न-भिन्न ताप स्तरों का निर्माण करती हैं
। ऐसे में जल का ऊपरी स्तर अधिसर (epilimnion) और निचला स्तर अधसर (hypolimnion) कहलाता है।
शीतोष्ण झीलों में सर्दी-ऋतु में
सतहों का जल हिमकारी ताप पर जबकि निचले स्तरों का तापमान करीब 4°C रहता है।
ताप उत्पादकता विभिन्न ऋतुओं में गहरे
जलाशयों में किसी भी ऋतु में संपूर्ण जलराशि का ऊर्ध्वाधर मिश्रण है।
ताप उत्पादकता के परिणामस्वरूप जलाशय
के जल का तापमान एक-समान हो जाता है।
झीलों में जब ताप उत्पादकता की क्रिया
घटित होती है,
उस दौरान सतही जल ठंडा हो जाता है।
ज्यों ही जल ठंडा होता है उसका घनत्व बढ़ जाता है, जिससे सतही-जल नीचे
चला जाता है। यही उच्च घनत्वीय जल अधस्तर के जल को ताप उत्पादकता हेतु प्रेरित
करता है।
ताप-उत्पादकता झीलों/जलाशयों में ऑक्सीजन एवं अन्य पोषक
तत्त्वों का पुनर्वितरण करता है। जिससे जलाशयों में पादपप्लवकों की संख्या में
वृद्धि हो जाती है।
ताप-उत्पादकता (turnover) जलाशय के जल की ऋतुवत् गतिविधि (seasonal movement) है। उथली झीलों में यह क्रिया निम्न स्तर पर घटित होती है जबकि
वृहद् एवं गहरी झीलों में जल के स्वतंत्र मिश्रण से व्यापक बदलाव देखने को मिलता
है।
ग्रीष्म एवं सर्दी (winter) ऋतु में ऑक्सीजन एवं पोषक तत्त्वों की कम उपलब्धता के कारण
पादपप्लवकों की वृद्धि बहुत कम हो जाती है। वहीं शरद्/पतझड़ एवं बसंत में
पादपप्लवकों की वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक होती है।
संसाधन, परिस्थिति या आवास के रूप
प्रयुक्त जल, पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से उपलब्ध एक
मात्र अकार्बनिक तरल है।
पृथ्वी पर जल की कुल मात्र समान रहती
है, जबकि इसका स्थानांतरण होता है और जीवों की विभिन्न-प्रक्रियाओं को
नियंत्रित करता है। साथ ही यह वनस्पति के प्रकार तथा उसके संघटन को भी प्रभावित
करता है।
वायु तथा जल के बीच, जलीय-तंत्र के जल का संचलन ही
जलीय-चक्र है। जलीय-चक्र में पौधों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उष्णकटिबंधीय
वनों में तो वार्षिक वर्षा का 3/4 भाग पौधों द्वारा वायुमंडल में
वापस कर दिया जाता है।
जलवाष्प वायुमंडल का एक महत्त्वपूर्ण घटक है जो पर्याप्त नमी का ही
परिणाम है, यही संघनित होकर वर्षण (कोहरा, बर्फ, वर्षा) आदि का निर्माण करता है।
वह बल जिससे कि मृदा, जल के साथ संलग्न/बँधा रहता है
तथा जिसे दबाव के रूप में परिमाणित किया जाता हैजल-विभव (water potential) को परिभाषित करता है।
मृदा-विभव तभी एक सार्थक पद होता है
जब उसे किसी विशेष फसल के उत्पादन के संदर्भ में व्याख्यायित किया जाता है। उदाहरण
के लिये मृदा का एक प्रकार किसी विशेष फसल के उत्पादन में सक्षम नहीं है, लेकिन वह चारा के उत्पादन में सक्षम है।मृदा में जल उपलब्धता की
ऊपरी सीमा को ही मृदजल धारिता (field capacity) कहते हैं। जबकि
मृदा में जलउपलब्धता की निचली सीमा को म्लानि बिंदु (wilting point) कहते हैं।
मृद्जल धारिता पर मृदा का जल-विभव लगभग -0.01MPa(मेगापास्कल्स) होता है। और म्लानि बिंदु के संदर्भ में यह -1.5MPa होता है। ध्यातव्य है कि समुद्रतल पर वायुमंडल द्वारा प्रेषित दबाव
‘एक बार’ जो लगभग 0.1 मेगापास्कल्स (MPa) होता है।
जल-विभव की ऋणात्मकता पौधों के लिये कम जल उपलब्धता को दर्शाती है।
इस प्रकार जल-विभव एवं जल उपलब्धता में समानुपाती संबंध होता है।
मृदा से जल का पौधों की जड़ों में प्रवेश परासरणी विभव का परिणाम
है।
जल-उपलब्धता अनुकूलन अर्थात् पौधों के लिये उपलब्ध जल की कमी एवं
अधिकता से अनुकूलित करने के लिये आवासीयवरण, घटनाविज्ञानी समायोजन सहित जल
उपयोग की उच्च दक्षता भी उत्तरदायी है।
अपक्षीण भू-पर्पटी की ऊपरी परत ही मृदा कहलाती है। मृदा का निर्माण
मूल शैल, जलवायु, सजीवों, समय तथा स्थलाकृति के बीच पारस्परिक क्रियाओं द्वारा संपन्न होता
है।
इन क्रियाओं के द्वारा मृदा का निर्माण तब होता है जब शैलों का
अपने स्थान पर अपक्षयन होता है। इस तरह मृदा का खनिज अवयव उसके मूल पदार्थों के
खनिज तथा अपक्षयता के समान ही होता है।
मृदा की ऊर्ध्वाधर स्तरीय संरचना मृदा-परिच्छेदिका कहलाती है। इसका
निर्माण अपक्षय प्रक्रिया, कार्बनिक पदार्थों के जमाव तथा
खनिज पदार्थों के रिसने से होता है।
मृदा के अभिलक्षण उसमें पाए जाने वाली छिद्र-गुहिकाओं तथा उसके
कण-आकार पर निर्भर होते हैं।
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