Aadhunik Jiv Vigyan | Modern Biology |आधुनिक जीव विज्ञान


आधुनिक जीव विज्ञान

आधुनिक जीव विज्ञान (Modern Biology)

जैव-विकास मत( Theory of Organic Evolution)

आधुनिक जीव विज्ञान में कुछ ऐसे में एकीकरण(Unifying) सिद्धांतों को मान्यता दी गई है जो सभी जीवों पर समान रूप से लागू होते हैं जैसे-

संघठन का सिद्धांत( Concept of organiszation)


इसके अनुसार 'जीवन' से संबंधित सारी प्रक्रियाएं रसायनिक एवं एवं भौतिक सिद्धांतों पर आधारित होती हैं। दूसरे शब्दों में जैव- क्रियाएं जीव पदार्थ के घटकों पर नहीं, वरन् इसके भौतिक एवं रासायनिक संघटन पर निर्भर करती है। यदि हमें इस संघठन का पूरा ज्ञान हो जाए तो हम परखनली में "जीव की उत्पत्ति" कर सकते हैं।

जीवात्- जीवोत्पत्ति सिद्धांत( Concepts of Biogenesis)


वैज्ञानिक मानते हैं कि "जीव पदार्थ" की उत्पत्ति निर्जीव पदार्थ के संघठन में क्रमिक विकास से हुई है। ऐसे "रसायनिक उद्विकास( Chemical evolution)" के लिए आवश्यक वातावरणीय दशाएं पृथ्वी पर अब नहीं है ।अरबों साल पहले आदि पृथ्वी पर थीं। वर्तमान दशाओं में पृथ्वी पर नए जीवों की उत्पत्ति केवल पहले से विधमान जीवों से ही हो सकती है। वर्तमान वाइरसों को हम चाहे सूक्षमतम् जिव माने या न माने ,इनकी उत्पत्ति भी पहले से विद्दमान वाइरसों से ही हो सकती है।

कोशिका मत( Cell Theory)

यहां सिद्धांत  शलाईडेन और शवान ने दिया कि सारे जीवो (जंतु ,पादप ,जीवाणु या बैक्टीरिया आदि) मैं शरीर एक या अधिक कोशिकाओं और इनसे उत्पादित पदार्थों का बना होता है। नई कोशिकाएं केवल पहले से विद्वान कोशिकाओं के विभाजन से बन सकती है।समस्त कोशिकाओं की भौतिक संरचना ,रासायनिक संघठन एवं उपापचय मैं एक मूल समानता होती है था होती है था तथा किसी भी बहुकोशिकीय जीव का जीवन इसके शरीर की समस्त कोशिकाओं की क्रियाओं का योग होता है।

जैव-विकास मत( Theory of Organic Evolution)

प्रकृति में आज विद्मान विविध प्रकार के जीवो में से किसी की भी नवीन(de novo)सृष्टि नहीं हुई है- इन सब की उत्पत्ति किसी न किसी समय रचना किसी की उत्पत्ति किसी न किसी समय रचना किसी समय रचना में अपेक्षाकृत सरल पूर्वजों से ही किंचित परिवर्तनों  के पीढ़ी-दर- पीढ़ी संचय के फलस्वरूप हुई है।

जीन मत(Gene Theory)


पीढ़ी-दर-पीढ़ी,माता-पिता के लक्षण संतानों में किसी कैसे जाते हैं? इसके लिए चार्ल्स डार्विन(Charles Darwin) ने अपने "सर्वजनन मात(Theory of Pangenesis)" में कहा कि माता-पिता के शरीर का प्रत्येक भाग अतिसूक्ष्म नमूने या प्रतिरूप(models) बनाता है जो अंडाणुओं(ova) एवं शुक्राणुओं(sperms)में समाविष्ट होकर संतानों में चले जाते हैं। ऑगस्ट विजमान(August Weizmann,1886)ने अपने "जनन द्रव्य theory of continuity  of  of germplasm) में  कहा कि अंडे नएं जीव शरीर के भ्रूणीय परिवर्धन के दौरान ,प्रारंभ में ही "जननद्रव्य( germplasm)"देहदद्रवय(Somatoplasm) से पृथक हो जाता है ।यही जननद्रव्य संतानों में प्रदर्शित होने वाले लक्षणों को जनको से ले जाता है। अब हम् स्पष्ट बीजान गए हैं कि यह जननद्रव्य कोशिकाओं के केंद्रक में उपस्थित गुणसूत्रों(chromosomes) के डीएनए(DNA)अनुओं के रूप में होता है और इन अनुओं   के शूक्ष्म खंड ,जिन्हें जिन्स(genes)कहते हैं, अनुवांशिक लक्षणों को जनको से संतानों में ले जाते हैं। जींस में किंचित परिवर्तनों के संचित होते रहने से समान पूर्वजों से नई-नई जीव-जातियों का उद्विकास होता है।

एंजाइम मत(Enzyme Theory)

प्रत्येक जीव कोशिका मैं प्रतिपल हजारों रासायनिक अभीक्रियाएं होती रहती हैं।इन्हें सामूहिक रूप से कोशिका का उपापचय(metabolism)कहते हैं। प्रत्येक अभिक्रिया एक विशेष कार्बनिक उत्प्रेरक की मध्यस्थता के कारण सक्रिय होकर पूरी होती है।

जैव रासायनिक अनुवांशिकी(Biochemical Genetics)

जॉर्ज बीडल और एडवर्ड टैटम(George Beadle and EdwardTatum,1 945)की बहुस्वीकृत परिकल्पना "एक जीन-एक एंजाइम -एक उपापचय अभिक्रिया" के अनुसार जीव के प्रत्येक  संरचनात्मक एवं क्रियात्मक  लक्षण पर जिनी नियंत्रण होता है, क्योंकि प्रत्येक उपापचय अभिक्रिया एक विकर अर्थात एंजाइम (enzyme) द्वारा और प्रत्येक एंजाइम का संश्लेषण एक जीन विशेष के द्वारा नियंत्रित होता है।

विभेदक जीन क्रियाशीलता (Variable Gene Activity)

किसी भी बहुकोशिकीय जीव शरीर की समस्त कोशिकाएं युग्मनज अर्थात जाइगोट(zygote) नामक एक ही कोशिका से प्रारंभ होकर बारंबार के समसूत्री(mitotic)विभाजनो के फलस्वरुप बनती है, इन सब में जीन-समूह(gene complement) बिल्कुल समान होता है।अतः बीडल और टैटम की उपरोक्त परिकल्पना के अनुसार तो एक शरीर की सारी कोशिकाएं रचना और क्रिया में समान  होनी चाहिए ,परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता। आंख ,नाक, यकृत ,वृक्क,हडडी, त्वचा,कान  आदि शरीर के विविध अंग और प्रत्यय अंगके विविध भाग ,रचना और कार्यिकी मे ,बहुत ही असामान कोशिकाओं के बने होते हैं। एक ही जीव शरीर की सारी कोशिकाओं में समान जीन-समूह होते हुए भी इनके बीच परस्पर इतने विभेदीकरण का कारण यह होता है कि विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में जिन-समूह के कुछ अंश ही सक्रिय होते हैं, शेष अंशोंको निष्क्रिय कर दिया जाता है।

समस्थैतिकता (Homoeostasis)

सफल "जीवन" के लिए जीवों में अपने वातावरण में होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित होकर इन्हीं के अनुसार अपने शरीर की कार्यिकी एवं उपापचय(Metabolism) में आवश्यक परिवर्तन करके शरीर एवं  आंतरिक  वातावरण की अखंडता बनाए रखने की अभूतपूर्व क्षमता होती है। इसकी खोज क्लॉडी अर्नाल्ड बरनार्ड(1865) ने की। अन्तः वातावरण अखंडता बनाए रखने की क्षमता को वॉल्टर बी.केनन(1932) ने समस्थापना या समस्थैतिकता अर्थात होमियोस्टैसिस(homeostasis) संज्ञा  प्रदान किया।

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