Madhya Pradesh me Kalchuri Vansh ka Itihas |कल्चुरी वंश
कल्चुरी वंश- Kalchuri Vansh
कलचूरी वंश के बारे में स्मरणीय तथ्य
- महिष्मती के कलचूरी वंश का कृष्णराज प्रथम शासक था।
- इसके बाद शंकरगण और बुद्धगण हुए।
- बुद्धगण को चालुक्य शासक मंगलेश ने हराकर महिष्मति पर अधिकार किया।
- उसके बाद कल्चुरी वंश ने त्रिपुरी को राजधानी बनाया।
- त्रिपुरी के कलचूरी वंश का संस्थापक कोककल-I था।
- कोककल के बारे में बिलहरी लेख (जबलपुर) से जानकारी मिलती हैं।
- ”उसने समस्त पृथ्वी को जीतकर दक्षिण में कृष्णराज और उत्तर में भोज को अपने दो कीर्ति स्तम्भ के रूप में स्थापित किया।“
- इसके बाद शंकरमण और युवराज प्रथम शासक बने। प्रसिद्ध कवि राजशेखर युवराज प्रथम के दरबार में रहते थे।
- विद्धसालभंजिका में युवराज-स को उज्जयिनी भुजंग कहा गया हैं। लक्ष्मणराज ने उड़ीसा (अभियान के दौरान प्राप्त सोने एवं मणियों से निर्मित कालियानाम को सोमनाथ मंदिर(सौराष्ट्र, ) को अर्पित किया।
- कर्णदेव ने चालुक्य नरेश भीम के साथ मिलकर परमार शासक भोज को पराजित किया।
जैजाकभुक्ति के चन्देलों के राज्य के दक्षिण
में आ जबलपुर के निकट कलचुरि का राज्य था। कलचुरि लोग हैहय वंश के क्षत्रिय थे । बाद के कलचूरी शासन ने वर्तमान जबलपुर के निकट तक सीमित रह गया। अब कलचुरी राज्य की राजधानी
त्रिपुरी हो गई। इसलिए उनको चेदि, दहल अथवा त्रिपुरी के कलचुरि कहा जाने लगा। कलचुरि की एक शाखा
गोरखपुर में भी स्थापित हुई थी।
कलचुरी वंश की चार शाखाएं थीं जो इस प्रकार हैं
महिष्मति (महेश्वर)
संस्थापक- कृष्णराज प्रथम (आदि पुरूष)
अंतिम शासक- बुद्धराज प्रथम
त्रिपुरी (जबलपुर)
प्रांरभिक शासक वामराज देव
संस्थापक -कोक्कल प्रथम
रतनपुर
संस्थापक - कलिंगराज
अंतिम शासक- रघुनाथ सिंह
रायपुर
प्रथम शासक - रामचंद्रदेव
अंतिम शसक- अमरसिंह
त्रिपुरी के कलचुरि राजवंश के शासक
कोक्कल-प्रथम (875-925)
कोक्कल-प्रथम कलचुरि वंश का संस्थापक तथा प्रथम ऐतिहासिक शासक था
जिसने राष्ट्रकूटों और चन्देलों के साथ विवाह-सम्बन्ध स्थापित किये। प्रतिहारों के
साथ कोक्कल-प्रथम का मैत्री-सम्बन्ध था। इस प्रकार उसने अपने समय के शक्तिशाली
राज्यों के साथ मित्रता और विवाह द्वारा अपनी शक्ति भी सुदृढ़ की। कोक्कल-प्रथम
अपने समय के प्रसिद्ध योद्धाओं और विजेताओं में से एक था।
गांगेयदेव
गांगेयदेव लगभग 1019 ई. में त्रिपुरी के राजसिंहासन पर बैठा। गांगेयदेव को अपने
सैन्य-प्रयत्नों में विफलता भी प्राप्त हुई किन्तु उसने कई विजयें प्राप्त की और
अपने राज्य का विस्तार करने में काफी अंश तक सफलता प्राप्त की। उसके अभिलेखों के
अतिरंजनापूर्ण विवरणों को न स्वीकार करने पर भी, यह माना गया है कि गांगेयदेव ने कीर देश अथवा कांगड़ा घाटी तक उत्तर
भारत में आक्रमण किये और पूर्व में बनारस तथा प्रयाग तक अपने राज्य की सीमा को
बढ़ाया। प्रयाग और वाराणसी से और आगे वह पूर्व में बढ़ा। अपनी सेना लेकर वह
सफलतापूर्वक पूर्वी समुद्र तट तक पहुँच गया और उड़ीसा को विजित किया। अपनी इन
विजयों के कारण उसने विक्रमादित्य का विरुद धारण किया। उसने पालों के बल की
अवहेलना करते हुए अंग पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में उसे सफलता प्राप्त हुई। यह
सम्भव है कि गांगेयदेव ने कुछ समय तक मिथिला या उत्तरी बिहार पर भी अपना अधिकार
जमाये रखा था।
लक्ष्मीकर्ण
गांगेयदेव के उपरान्त उसका प्रतापी पुत्र
लक्ष्मीकर्ण अथवा कर्णराज सिंहासन पर बैठा। वह अपने पिता की भांति एक वीर सैनिक और
सहस्रों युद्धों का विजेता था। उसने काफी विस्तृत और महत्त्वपूर्ण विजयों द्वारा
कलचुरि शक्ति का विकास किया। कल्याणी और अन्हिलवाड के शासकों से सहायता प्राप्त कर
कर्ण ने परमार राजा भोज को परास्त कर दिया। उसने चन्देलों और पालों पर विजय
प्राप्त की। उसके अभिलेख बंगाल और उत्तर प्रदेश में पाये गये हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि इन भागों पर
उसका अधिकार था। कर्ण का राज्य गुजरात से लेकर बंगाल और गंगा से महानदी तक फैला हुआ था। उसने कलिंगापति की उपाधि ली।
यशकर्ण
यश कर्ण सन सन 1703 के लगभग त्रिपुरी के सिंहासन पर बैठा।
उसने वेंगी राज्य और उत्तरी बिहार तक धावे बोले। उसके पिता के अंतिम दिनों में
उसके राज्य की स्थिति काफी डावांडोल हो गयी थी और इसी डावांडोल स्थिति में उसने
राज्सिनासन पर पैर धारा था। परन्तु अपने राज्य की इस गड़बड़ स्थिति का विचार न करते
हुए यशकर्ण ने अपने पिता और पितामह की भांति सैन्य-विजय क्रम जारी रखा। पहले तो
उसे कुछ सफलता मिली, लेकिन शीघ्र ही उसका राज्य स्वयं अनेक
आक्रमणों का केंद्र बिंदु बन गया। उसके पिता और पितामह की आक्रमणात्मक
साम्राज्यवादी नीति से जिन राज्यों को क्षति पहुंची थी, वे सब प्रतिकार लेने का विचार करने
लगे। दक्कन के चालुक्यों ने उसके राज्य पर हमला बोल दिया और अपने हमले में वे सफल
भी रहे। गहड़वालों के उदय ने गंगा के मैदान में उसकी स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला।
चंदेलों ने भी उसकी शक्ति को सफलतापूर्वक खुली चुनौती डी। परमारों ने यश कर्ण की
राजधानी को खूब लूटा-खसोटा। इन सब पराजयों ने उसकी शक्ति को झकझोर दिया। उसके
हाथों से प्रयाग और वाराणसी के नगर निकल गए और उसके वंश का गौरव श्रीहत हो
गया।
यशःकर्ण के उत्तराधिकारी और कलचुरी वंश का पतन
यशः कर्ण के उपरांत उसका पुत्र गया कर्ण सिंहासनारूढ़ हुआ किन्तु वह
अपने पिता के शासन काल में प्रारंभ होने वाली अपने वंश की राजनैतिक अवनति को वह
रोक न सका। उसके शासन-काल में रत्नपुरी की कलचुरि शाखा दक्षिण कौशल में स्वतन्त्र
हो गई। गयाकर्ण ने मालवा-नरेश उदयादित्य की पौत्री से विवाह किया था। इसका नाम
अल्हनादेवी था। गयाकर्ण की मृत्यु के बाद, अल्हनादेवी ने भेरघाट में वैद्यनाथ के मन्दिर और मठ का पुनर्निर्माण
कराया। गयाकर्ण का अद्वितीय पुत्र जयसिंह कुछ प्रतापी था। उसने कुछ अंश तक अपने
वंश के गौरव को पुनः प्रतिष्ठापित करने में सफलता प्राप्त की। उसने सोलंकी नरेश
कुमारपाल को पराजित किया। जयसिंह की मृत्यु 1175 और 1180 के मध्य किसी समय हुई। उसका पुत्र
विजयसिंह कोक्कल-प्रथम के वंश का अन्तिम नरेश था जिसने त्रिपुरी पर राज्य किया।
विजयसिंह को 1196 और 1200 के बीच में जैतुगि-प्रथम ने, जो देवगिरि के यादववंश का नरेश था, मार डाला और त्रिपुरी के कलचुरि वंश का उन्मूलन कर दिया।
कलचुरि राजवंश के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य:
- त्रिपुरी के कलचुरियों की वंशावली किस नरेश से आरम्भ होती है, उसके बारे में अनुमान किया जाता है कि कोकल्लदेव से आरम्भ होती।
- कोकल्लदेव के वंशज कलचुरी कहलाये।
- कलचुरि हैदयों की एक शाखा है। हैदयवंश ने रतनपुर और रायपुर में दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक शासन किया।
- जाजल्लदेव के गुरु थे गोरखनाथ।
- कलचुरियों विद्वानों को प्रोत्साहन देकर उनका उत्साह बढ़ाया करते थे। राजशेखर जैसे विख्यात कवि उस समय थे। राजशेखर जी कि काव्य मीमांसा और कर्पूरमंजरी नाटक बहुत प्रसिद्ध हैं।
- कलचुरि शासको शैव धर्म को मानते थे। उनका कुल शिव-उपासक होने के कारण उनका ताम्रपत्र हमेशा “ओम नम: शिवाय” से आरम्भ होता है।
- हैहय-वंश के अन्तिम काल के शासक में योग्यता और इच्छा-शक्ति न होने का कारण हैदय-शासन की दशा धीरे-धीरे बिगड़ती चली गयी और अन्त में सन् 1741 ई. में भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने हैहय शासक की शक्ति प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया
माहिष्मति के कलचुरि वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- कलचुरियों की प्राचीन राजधानी माहिष्मति थी जहाँ वे छठीं शताब्दी में शिखर पर पहुँचे।इस वंश के तीन शासक कृष्णराज, शंकरगण और बुद्धराज थे जिनके ताम्रलेख महाराष्ट्र और गुजरात में अभोना, संखेड़ा, वड़नेर और सरसवणी से प्राप्त हुए हैं। दक्षिण के चालुक्यों के आगमन से इनकी शक्ति को ग्रहण लग गया।
त्रिपुरी के कलचुरि वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- कलचुरि वंश की इस शाखा की स्थापना वामराज ने की थी। उसकी तीन पीढ़ियों के बाद शंकरगण प्रथम शासक बना, जिसके शासनकाल के दो अभिलेख छोटी देवरी और सागर से मिले हैं जिनके आधार पर उसके शासन काल का समय आठवीं शताब्दी ई. का निश्चित किया गया है।
- अगला कलचुरि शासक लक्ष्मणराज प्रथम था जिसका कारीतलाई से मिला अभिलेख कलचुरि संवत् 593 का है। उसके क्रमश: उत्तराधिकारी बने कोकल्ल प्रथम, शंकरगण द्वितीय, बालहर्ष और युवराजदेव प्रथम । यद्यपि इसके शासनकाल का कोई भी अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ है, तथापि उनके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों से पता चलता है कि उसके शासन के दौरान कलचुरि साम्राज्य दूर-दूर तक फैल गया था। लक्ष्मणराज द्वितीय युवराजदेव प्रथम का उत्तराधिकारी बना जो अपने पिता की ही तरह एक शक्तिशाली शासक था। कारीतलाई से प्राप्त एक अभिलेख और अन्य साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि उसने कई राज्यों पर अधिकार कर लिया था। उसका उत्तराधिकारी पहले शंकरगण तृतीय और फिर युवराज द्वितीय बना। उसके शासनकाल के शिलालेखों से पता चलता है कि जब वह शासन कर रहा था तब त्रिपुरी को बुरे दिन देखने पड़े। उसके उत्तराधिकारी कोकल्लदेव का गुर्गी शिलालेख इस बात की ओर संकेत करता है कि साम्रज्य की खोई हुई समृद्धि को वापस लाने के लिए नए सिरे से प्रयास किए गए थे। 1015 ई. में गांगेयदेव कलचुरि सिहांसन पर बैठा। उसके शासनकाल के दो अभिलेख मकुंदपुर और पियावन से मिले हैं। उसके उत्तराधिकारी के अभिलेखों से मिले प्रमाण यह बताते हैं कि कलचुरि वंश के तब तक ज्ञात सभी शासकों में वह सबसे अधिक शक्तिशाली था।
- गांगेयदेव का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी कर्ण, अपने पिता से अधिक योग्य निकला। अपनी राजनैतिक उपलब्धियों के कारण उसे हिन्दू नेपोलियन कहा जाता है। उसके समय के नौ अभिलेखों में से चार म.प्र. में रीवा, सिमरा और सिमरिया से मिले हैं। 1073 ई. में कर्ण ने अपने पुत्र यश: कर्ण के लिए सिंहासन छोड़ दिया। अन्य प्रमाणों के साथ खैरहा, जबलपुर और बरही के तीन अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि उत्तराधिकार में पाए अपने साम्राज्य को अखंड रखने में वह असफल रहा।
- तेवर और बहुरीबंद से ही उसके उत्तराधिकारी गयाकर्ण के अभिलेख, आल्हाघाट, भेड़ाघाट और लाल पहाड़ से मिले। अगले शासक नरसिंह के शासनकाल के तीन अभिलेख और उसके उत्तराधिकारी जयसिंह के छ: अभिलेख जो करनबेल, तेवर, जबलपुर और रीवा से प्राप्त हुये, से स्पष्ट होता है कि संबंधित शासकों द्वारा सभी प्रयास करने के बावजूद कलचुरि साम्राज्य की समृद्धि फिर लौटाई नहीं जा सकी। विजयसिंह के शासन में स्थिति और बदतर हो गयी। उसके समय के दस अभिलेख करनबेल, तेवर, भेड़ाघाट, कुम्भी, रीवा, उमरिया और झूलपुर से प्राप्त हुये हैं। त्रिपुरी के कलचुरियों का अंतिम जाना-माना शासक त्रैलोक्यमल्ल था। उसके तीन अभिलेख धुरेटी और रीवा से मिले हैं। उसका शासन कब और कैसे समाप्त हुआ इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है।
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