Gwalior Ke Rajvansh | Gwalior Dynasty| ग्वालियर के राजवंश
History of gawilor kingdom in hindi
ग्वालियर के राजवंश
- ग्वालियर का 1500-2000 वर्ष का इतिहास गोपाचल गढ़ अर्थात् ग्वालियर के किले के आसपास फैला हुआ है। इस क्षेत्र में ईसा पूर्व की सदियों में हूणों, शुंगों, मौर्यों और नागवंशियों का राज्य रहा है। परन्तु जहां तक ग्वालियर किले का संबंध है इस किले में पर क्रमशः पाल,परिहार, गुलाम, तोमर, मुगल और सिंधिया वंश का आधिपत्य विशेष उल्लेखनीय है।
ग्वालियर में पाल वंश-
- सन् 275 से पाल वंश के राजा जो कुश्वाह क्षत्रिय थे, गोपाचल गढ़ के स्वामी रहे। इन राजाओं की संख्या 84 बताई जाती हैं, उनमें से 63 राजाओं की प्रमाणिक सूची उपलब्ध है। अंतिम राजा बुधपाल का पुत्र तेजकरण था। उसने आम्वेर (जयपुर) की राजकुमारी से विवाह किया और फिर वहीं रह गया। इस वंश का 989 वर्षीय राज्य शांति और समृद्धि का राज्य रहा। उस समय किसी प्रकार की अशांति अथवा युद्ध की स्थिति नहीं बनी।
ग्वालियर में परिहार वंश
- पाल वंश के बाद तेजकरण के भांजे रामदेव परिहार ने राजगद्दी संभाली और उसके साथ ही ग्वालियर में परिहार वंश का राज्य आरंभ हुआ जो 102 वर्ष तक चला। किंतु उसके बाद ग्वालियर पर क्रमशः मोहम्मद गोरी एवं कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमण हुये। गोरी से प्रतिहारों या परिहारों ने संधि कर ली थी। किंतु बाद में जब ऐबक का आक्रमण हुआ तो वह किले का अधिपति बन गया। परंतु कुछ ही वर्षों में प्रतिहारों ने ऐबक से प्रतिनिधि को किले से मार भगाया। प्रतिहार या परिहार फिर ग्वालियर के किले के स्वामी बन गये। इस वंश के अंतिम राजा मलयवर्मन देव के समय इस किले पर इल्तुतमिश द्वारा पुनः आक्रमण हुआ। उसने गढ़ घेर लिया तथा ग्वालियर के किले पर विजय पताका फहराया। इस विजय के बाद इल्तुतमिश द्वारा नियुक्त मीर याकूब ग्वालियर की राज व्यवस्था देखने लगा और उसके बाद उसका पुत्र ग्वालियर के प्रशासक होते रहे। किंतु समय के साथ भारतवासियों के मन में विदेशी सत्ता को उखाड़ फेकने इच्छा जागृत हुई। ग्वालियर में भी ऐसा हुआ ऐसाह (जो ग्वालियर से 60-65 किलोमीटर की दूरी पर है और आजकल मुरैना के अंतर्गत एक गांव है।) के तोमरों ने बगावत का झंडा ऊंचा किया। उन्होंने आसपास अत्याचारी विदेशी शासकों को मार डाला और अंत में सन् 1375 में ग्वालियर के किले पर अधिकार कर लिया।
ग्वालियर में तोमर वंश
- ऐसाह के तोमरों के पूर्वजों ने सन् 736 से 1192 ई.तक हरियाणा पर राज्य किया था। तथा उनकी राजधानी ढिल्लिका (वर्तमान दिल्ली) थी। सन् 1192 में दिल्ली के तोमरों के अंतिम राजा चाहड़पाल देव, मोहम्मद गोरी के आक्रमण का सामना करते हुए तराइन के युद्ध में मृत्यु हो गई। उसके बाद उनका पुत्र तेजपाल ने दिल्लीपति हुआ। दिल्ली पर पुनः अधिकार करने के प्रयास में गोरी के गुलाम प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों मृत्यु प्राप्त हुई।
- तेजपाल के पुत्र अचल ब्रम्हा ने दिल्ली विजय के प्रयास किये किंतु विफल रहे और दिल्ली छोड़कर चंबल घाटी में, चंबल के किनारे ऐसाह गॉव में आ बसा। उसने ऐसाह को अपनी राजधानी बनाया और उसे समृद्ध किया। उसने ऐसाह के समीवपर्ती क्षेत्र को भी अपने हाथ में लिया और अनेक अत्याचारी तुर्कों को मार गिराया। कालांतर में दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने अचल ब्रम्हा के उत्तराधिकारियों को ऐसाह का राजा मान्य किया। इस प्रकार वे तुगलक वंश के सामंत बन गये।
- आगे चलकर इस वंश में वीर सिंह देव हुये , उन्होंने दिल्ली की अधीनता के विरूद्ध अपनो विद्रोही तेवर प्रकट किया तब तुगलकवंशी सुल्तान मोहम्मद शाह ने उनके दम के लिए अपने सेनापति इस्लाम खॉ को भेजा। वीरसिंह देव पराजित हुए और संधि की शर्तो के अनुसार उन्हें दिल्ली जाना पड़ा। कुछ समय पश्चात मोहम्मद शाह की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र अलाउद्दीन सिंकदरशाह हुमांयू खॉ ने वीरसिंह देव को ग्वालियर के किले का प्रशासक बना दिया। किंतु ग्वालियर के किले के तुर्की किलेदार ने वीरसिंह देव को किले का आधपित्य देने से इंकार कर दिया दिया जिससे तुर्की किलेदार और वीरसिंह देव के बीच छोटी-मोटी लड़ाईयां हुई जिसके बाद वीरसिंह देव ने स्वयं को ग्वालियर के किले का स्वतंत्र स्वामी घोषित कर दिया गया।
- वीरसिंह देव की यह घोषण सुनकर दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान नासिरूद्दीन मुहम्मद तुगलक ने ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी। किंतु वीरसिंह देव ने उसके हमले को नाकाम कर दिया और इस प्रकार वह 1375 ई. में ग्वालियर के पहले तोमरवंशी महाराजा हो गये। उनके बाद गणपतिदेव, डुंगरेन्द्रसिंह, कीर्ति सिंह, कल्याण मल्ल मानसिंह एवं विक्रमादित्य गद्दी पर बैठे। तोमरवंशी इन महाराजाओं ने 1375 से 1523 ई तक लगभग डेढ़ सौ वर्ष ग्वालियर पर राज किया। तोमरवंशी शासक शूरवीर, कुटनीतिज्ञ, प्रजापालक एवं कला उन्नायक थे। उन्होंने अपने साहस, सैन संगठन एवं नीति नैपुण्य से राज्य को स्वाधीन और सुरक्षति बनाये रखा तथा संगीत, सहित्य, स्थापत्य एवं सभी कलाओं को समुन्नत किया।
ग्वालियर पर मुगलों का आधिपत्य
- तोमरवंशी राजओं में मानसिंह सर्वाधिक विख्यात हुये। उनका पुत्र विक्रामादित्य भी बहुत धीर,वीर, और नीतिवान था। किंतु विक्रमादित्य के गद्दी पर बैठते ही दिल्ली के सुल्तान सिंकदर लोदी, इब्राहिम लोदी ने ग्वालियर पर आक्रमण कर आधिपत्य स्थापित करने का असफल प्रयास किया। किंतु बाद में बहलोल लोदी ने अपने पुर्वजों की असफलता से बहुत उत्तेजित एवं उद्यत होकर ग्वालियर पर भारी-भरकम सेना के साथ आक्रमण किया शहर को लुटा, मंदिरों को नष्ट भ्रष्ट किया और फिर ग्वालियर के किले को घेर लिया।
- युद्ध के अंत में विक्रमादित्य को पराजय स्वीकार करनी पड़ी और इब्राहिम लोदी के साथ अपनाजनक संधि करने के लिए विवश होना पड़ा। संधि के अनुसर विक्रमादित्य को किला छोड़कर शमशाबाद (वर्तमान में म.प्र. के विदिशा जिले में) का जागीरदार होना स्वीकार करना पड़ा। यहीं नहीं उसे इब्राहिम के साथ आगरा जाने और बाद में बाबर के विरूद्ध पानीपत के मैदान में उसके साथ युद्ध करने के लिए भी सहमत होना पड़ा। पानीपत के प्रथम युद्ध 20 अप्रैल 1526 ई. में इब्राहिम लोदी एवं विक्रमादित्य की रणभूमि में मृत्यु हो गई।
- पानीपत की विजय के पश्चात बाबर ग्वालियर आया और फिर ग्वालियर लगभग 250 वर्षों तक के लिए मुगलों के हाथ में चला गया। कुछ समय के लिए ग्वालियर का किला शेरशाह सूरी के हाथों आया किंतु मुगलों के सामने ज्यादा समय तक टिक नहीं पाया। मुगल काल में ग्वालियर के किले का उपयोग शाही बंदीगृह के रूप में अधिक किया गया। औरंगजेब ने अपने भाई दारा शिकोह तथा मुराब बख्श को यहीं कैद कर रखा था।
मुगलों का पतन
- सन् 1770 में मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात उसके तीनों पुत्रों मुअज्जम, आजम और कामबख्श में बादशाहत के लिये संघर्ष शुरू हुआ। उसमें शहजादा मुअज्जम विजयी रहा। उसने बहादुरशाह का खिताब धारण कर मुगल साम्राज्य की बागडोर संभाली। 1739 में नादिरशाह के आक्रमण से मुगल बेहर कमजोर और कंगाल हो गये इसके बाद ग्वालियर मुगलों के आधिपत्य से बाहर हो गया।
- मुगलों के पतन के पश्चात ग्वालियर के किले पर अधिकार जमाने के लिए तीन शक्तियों ने प्रयास किया। ग्वालियर के पास स्थित गोहद के जाट राणा भीम सिंह, मराठा फौज के सरदार विट्ठल राव और अंग्रेज सेनापति पोफेम ने किले को हस्तगत करने में छुटमुट लडाईयां लड़ीं। आरंभ में अंग्रेजों की सहायता से गोहद के राणा ने सफलता प्राप्त की। 1782 में महादजी सिंधिया ने किले और पूरे क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। उनके बाद उने पुत्र श्रीमंत दौलतराव सिधिंया सिंहासनारूढ़ हुये। उन्होंने 33 वर्ष राज्य किया। 1827 में निःसंतान दिवंगत हुये। अतएव उनकी पत्नी बायजा बाई ने एक बालक को गोद लिया जो जनकोजीराव के नाम से राजगद्दी पर बैठा। जनकोजीराव के भी कोई पुत्र नहीं थे अतएव राजपरिवार ने पुनः एक पुत्र को गोद लिया उसे जयाजीराव का नाम दिया गया। 1857 की लड़ाई के समय जयाजीराव ग्वालियर नरेश थे। श्रीमंत जयाजीराव 1896 में दिवंगत हुए उनके बाद उनके पुत्र माधवराव सिधिंया सिंहासन पर बैठे। श्रीमंत माधवराव सिंधियाने छोटी रेलवे लाईन भी बिछवाई और इस प्रकार ग्वालियर से भिण्ड, श्विपुरी एवं श्योपुर-संबलगए़ के लिए सिंधिया लाइट रेल्वे (एस.एल.आर) तथा ग्वालियर लाईट रेलवे के अंतर्गत रेलगाडि़यों का आवागमन आरंभ हुआ। सन् 1925 में श्रीमंत माधवराव सिंधिया का निधन हो गया। उनके बाद जीवाजीराव ग्वालियर नरेश हुये। 1947 में देश आजाद हो गया। अंग्रेजों ने भारतीयों को सत्ता सौंप दी। उसके साथ ही भारत की समस्त देशी रियासतों में उत्तरदायी शासन स्थापति हुये। 1948 में ग्वालियर, इंदौर आदि रियासतों को मिलाकर एक नया प्रांत बना। ग्वालियर नरेश श्रीमंत जीवाजीराव इस नये प्रांत मध्यभारत के राजप्रमुख बनाये गये। सन् 1947 में भारत में राजतंत्र समाप्त हो गया। इस प्रकार जीवाजीराव सिंधिया ग्वालियर के अंतिम सिंधिया वंशीय महाराजा हुये।
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