ब्राम्हण साम्राज्य |Bramhan Samrajya |शुंग वंश,कण्व वंश
ब्राम्हण साम्राज्य के अंतर्गत शुंग वंश,कण्व वंश के शासकों का अध्यन करेंगे
शुंग वंश 185-73 ई.पू.
सम्राट्
अशोक महान् की मृत्यु के उपरान्त मौर्य साम्राज्य विघटन और विनाश के गर्त्त में
चला गया। अशोक के उत्तराधिकारी (जिनके विषय में बहुत कम ऐतिहासिक सामग्री) उपलब्ध
है। सर्वथा अयोग्य और अक्षम निकले। हर्षचरित तथा पुराणों के अनुसार व्रहद्रथ
मौर्यवंश का अन्तिम शासक था। व्रहद्रथ विलासी, अयोग्य, अशक्त
और अकर्मण्य था। हर्षचरित तथा पुराणों के अनुसार वृहद्रथ के सेवापूर्ति पुष्यमित्र
ने सैन्य निरीक्षण करते समय सेना के सामने ही वृहद्रथ की हत्या कर दी और शुंग राज
वंश की स्थापना की। इस प्रकार पुष्यमित्र शुंग, शुंग राजवंश का संस्थापक था। उसका सिंहासनारोहण 184 ई.पू. माना जाता है।
जिस समय शुंग मगध साम्राज्य का स्वामी बना उस समय मगध साम्राज्य का क्षेत्र अत्यंत
सीमित हो चुका था। उसके राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत मगध उसका निकटवर्ती क्षेत्र, कुछ प्रान्त दक्षिण में
नर्मदा नदी तक का प्रदेश सम्मिलित था।
बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में पुष्यमित्र को मौर्य वंश से ही
सम्बन्धित बताया गया है। कुछ विद्वानों ने शुगों को ईरान का बतलाकर अभारतीय
प्रमाणित करने का प्रयास किया है। उनका कहना है कि चूंकि ईरान में मित्र (सूर्य)
की पूजा का प्रचलन था, इसलिए
यह वंश ईरानी प्रतीत होता है। परंतु यह मत तर्क सम्मत प्रतीत नहीं होता। केवल नाम
के आधार पर शुगों को ईरानी प्रमाणित करने का कोई औचित्य नहीं दिखलाई पड़ता
इतिहासकारों ने पुष्यमित्र शुंग के गोत्र के माध्यम से उसके वर्ण का निर्धारण करने
का प्रयास किया है। महाकवि कालिदास ने मालविकाग्निमित्रम् नामक नाटक में
अग्निमित्त को बैम्बिक वंश और कश्यप गोत्र का बतलाया है। पाणिनि ने शुगों तथा
ब्राह्मण कुल के भारद्वाज को एक-दूसरे से सम्बन्धित कहा है। किन्तु जैसा कि डॉ.
रास चौधरी ने कहा है मालविकाग्निमित्रम् और पुराणों के परस्पर विरोधी कथनों को
देखते हुए यह कहना कठिन है कि पुष्यमित्र, भारद्वाज गोत्रीय शुंग था या कश्यप गोत्री बेम्बिक।
मैस्डोनेल
और कीथ के अनुसार आश्वलायन श्रौत सूत्र के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शुंग
अध्यापक थे। हरिवंश पुराण में कलियुग में भी अश्वमेघ करने वाले ब्राह्मण सेनानी को
आोमिज्ज कहा गया है। डॉ. के.पी. जायसवाल ने पुष्यमित्र को ही वह सेनानी माना है।
इस प्रकार अधिकार साक्ष्य और पुष्यमित्र के विचार एवं कृतित्व इस तर्क का समर्थन
करते हैं कि पुष्यमित्र ब्राह्मण वर्ण में जन्मा था।
पुष्यमित्र
शुंग (185-149 ई.पू.)- समस्याएँ, संघर्ष
और साम्राज्य-निर्माण- पुष्यमित्र शुंग ने वृहद्रथ की हत्या कर मगध के गौरवशाली
राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था किन्तु उसके सामने अनेक समस्याएँ थीं।
इन समस्याओं में एक प्रमुख समस्या वे राज्य थे जो मगध साम्राज्य से अलग हो अपनी
स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर चुके थे और मगध राज्य को चुनौती दे रहे थे। उधर सीमान्त
प्रान्त पहले से ही मगध साम्राज्य से अलग हो चुके थे। इसके साथ ही इस राजनैतिक
विघटन का लाभ उठा कर यवन आक्रमणकारी उत्तर-पश्चिमी के द्वार पर दस्तक दे रहे थे।
ऐसी
स्थिति में पुष्यमित्र इन समस्याओं के समाधान तथा मगध के लुप्त गौरव को
पुन:स्थापित करने के लिए कटिबद्ध हो गया। इस प्रयास में सर्वप्रथम उसने उन राज्यों
को पुनर्गठित किया जो अभी भी मगध साम्राज्य के अन्तर्गत थे। इस दृष्टि से उसने
विदिशा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। वहाँ उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को राज्य के
प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया। अवन्ति पर पूर्ण प्रभुत्व स्थापित करने के बाद
पुष्यमित्र ने अपना ध्यान साम्राज्य-विस्तार की ओर दिया। इस प्रक्रिया में उसने
सर्वप्रथम विदर्भ से युद्ध करने का निश्चय किया। विदर्भ राज्य विदिशा के दक्षिण
में था और उसके काफी निकट पड़ता था। भातविकाग्निमित्रम में इस युद्ध का विवरण दिया
है। विदर्भ राज्य की स्थापना अभी कुछ ही दिनों पूर्व हुई थी। इसी कारण विदर्भ
राज्य नव सरोपण शिथिलस्तरू (जो सघः स्थापित) है। विदर्भ शासक इस समय यज्ञसेन था।
जो पूर्व मौर्य सम्राट् वृहद्रथ के मंत्री का सम्बन्धी था। विदर्भराज ने
पुष्यमित्र की अधीनता को स्वीकार नहीं किया। दूसरी ओर कुमार माधवसेन यद्यपि
यज्ञसेन का सम्बन्धी (चचेरा भाई) था, परन्तु अग्निमित्र ने उसे (माधवसेन) अपनी ओर मिला लिया। जब माधवसेन गुप्त
रूप से अग्निमित्र से मिलने जा रहा था, यज्ञसेन के सीमारक्षकों ने उसे बन्दी बना लिया। अग्निमित्र इससे अत्यन्त
क्रुद्ध हो गया। उसने यज्ञसेन के पास यह सन्देश भेजा कि वह माधवसेन को मुक्त कर
दे। किन्तु यज्ञसेन ने माधवसेन को इस शर्त पर छोड़ने का आश्वासन दिया कि शुगों के
बन्दीगृह के बन्दी पूर्व मौर्य सचिव तथा उनके साले का मूल्य कर है। इससे
अग्निमित्र और क्रुद्ध हो गया। अत: विदर्भ पर शुगों का आक्रमण हुआ। युद्ध में यज्ञसेन
आत्म समर्पण करने के लिए बाध्य हुआ। माधवसेन मुक्त कर दिया गया। विदर्भ राज्य की
दोनों चचेरे भाइयों के बीच बाँट दिया गया। वरदा नदी को उनके राज्य की सीमा
निर्धारित किया गया। विदर्भ विजय से पुष्यमित्र शुंग की प्रतिष्ठा में अच्छी
अभिवृद्धि हुई।
पुष्यमित्र
शुंग के शासन-काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी, यवनों का आक्रमण और उसका शुंगों द्वारा प्रबल प्रतिरोध। मौर्य साम्राज्य
के पतन-काल में ही भारत के उत्तर-पश्चिम में यवनों (यूनानियों) का प्रभाव बढ़ रहा
था। वे धीरे-धीरे भारत के अन्य भागों में प्रभावी होने के लिए प्रयत्नशील थे। इसका
प्रमाण हमें पतंजलि के महाभाष्य एवं गार्गी संहिता के द्वारा मिलता है। उदाहरण के
लिए पंतजलि महाभाष्य में लिखा है अस्णाद यवनः साकेत (अर्थात् यूनानियों ने साकेत
को घेरा) तथा अस्णाद यवनों माध्यमिकां (अर्थात् यूनानियों ने माध्यमिका घेरी)। इस तथ्य
की पुष्टि गागीं संहिता द्वारा भी होती है। गागीं संहिता में लिखा है कि- दुष्ट
विक्रान्त यवनों ने मथुरा, पंचाल
देश (गंगा का दो आबा) और साकेत को जीत लिया है और वे कुसुमध्वज पाटलिपुत्र जा
पहुँचेगे। इन महत्त्वपूर्ण रचनाओं के इन अंशों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यवन
आक्रान्ताओं ने देश के आन्तरिक भाग को किस प्रकार आक्रान्त कर रखा था। यवनों का यह
आक्रमण किस समय और किसके नायकत्व में हुआ, यह निश्चित रूप से कहना कठिन हैं। प्रोफेसर राधा कुमुद मुकर्जी के अनुसार
यवनों का यह आक्रमण सम्भवत: उस समय हुआ होगा जिस समय पुष्यमित्र मौयों का सेनापति
रहा होगा और यह असम्भाव्य नहीं कि यवनों के विरुद्ध उसकी सफलता ने राज्य सिंहासन
के लिए उसकी दावेदारी को शील्ड प्रदान की होगी। प्रो. एन.एन. घोष के अनुसार
पुष्यमित्र शुंग को यवनों के दो आक्रमणों का सामना करना पड़ा। कई इतिहासकारों के
अनुसार यवनों का पहला आक्रमण पुष्यमित्र के शासन काल के प्रारम्भिक वर्षों में और
दूसरा आक्रमण उसके शासनकाल के अन्तिम वर्षों में हुआ होगा।
यवनों
के दूसरे आक्रमण का ज्ञान हमें महाकवि कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् से प्राप्त
होता है। साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यवनों का यह आक्रमण उस समय
हुआ होगा जब पुष्यमित्र शुंग वृद्ध हो चला था और उसका पौत्त वसुमित्र सेना का
नायकत्व करने में सक्षम था। यवनों के साथ वसुमित्र के संघर्ष का सजीव चित्रण
मालविकाग्निमित्रम् में हुआ है। यह युद्ध उस समय का है जबकि पुष्यमित्र शुंग के
अश्वमेध के अश्व को यवन-सरदार ने पकड़ लिया था। इस कारण यवनों और शुंग सेनाओं में
युद्ध हुआ। शुंग सेनाओं का नेतृत्व वसुमित्र ने किया। कालिदास के अनुसार यह युद्ध
सिन्धु नदी के दक्षिण में हुआ। यह सिन्धु नदी पंजाब की है या कोई अन्य, इस प्रश्न पर विद्वान् एकमत
नहीं है। युद्ध में घोर संग्राम के बाद यवन-सेनाएँ बुरी तरह पराजित हुई। यज्ञ का
अशव आदर सहित वापस लाया गया। यवनों के इन आक्रमणों का नायकत्व किसने किया, यह प्रश्न विवादास्पद है। इस
सम्बन्ध में मुख्यतया दो यूनानी नायकों का नाम लिया जाता है- डोमेट्रियस तथा
मिनेण्डर।
अश्वमेघ
यज्ञ- अपनी सफलताओं के उपलक्ष्य में पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेघ यज्ञ करने का
निश्चय किया। पुष्यमित्र शुंग द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किए जाने की पुष्टि अभिलेखिक और
साहित्यिक दोनों साक्ष्यों द्वारा होती है। पतंजलि ने पुष्यमित्र शुंग के अवश्मेघ
यज्ञ का उल्लेख करते हुए लिखा है- इह पुष्य मित्तम् याजयाम: इसी प्रकार
मालविकाग्निमित्रम् में कहा गया है कि, यज्ञभूमि से सेनापति पुष्यमित्र स्नेहालिंगन के पश्चात् विदिशा-स्थित
कुमार अग्निमित्र को सूचित करता है कि मैंने राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेकर सैकड़ों
राजपुत्रों के साथ वसुमित्त की संरक्षता में एक वर्ष में और आने के नियम के अनुसार
यज्ञ का अश्व बंधन से मुक्त कर दिया। सिन्धु नदी के दक्षिण तट पर विचरते हुए उस
अश्व को यवनों ने पकड़ लिया। जिससे दोनों सेनाओं में घोर संग्राम हुआ। फिर वीर
वसुमित्त ने शत्रुओं को परास्त कर मेरा उत्तम अश्व छुड़ा लिया। जैसे पौत्र अंशुमान
के द्वारा वापस लाए हुए अश्व से राजा सगर ने, वैसे में भी अपने पौत्र द्वारा रक्षा किए हुए अश्व से यज्ञ किया। अतएव
तुम्हें यज्ञ दर्शन के लिए वधू-जन-समेत शीघ्र आना चाहिए। अयोध्या के एक अभिलेख से
ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्यमित्र शुंग ने एक नहीं दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। इस
अभिलेख में कहा गया है- कोसलाधियेन द्विरश्वमेघ याजिनः सनापते: पुष्यमित्रस्य इस
प्रकार पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किया जाना ऐतिहासिक दृष्टि से तर्कसंगत है।
डॉ. वि-सेण्ट स्मिथ ने इस प्रसंग में कहा है- पुष्यमित्र का स्मरणीय अश्वमेघ यज्ञ
ब्राह्मण धर्म के उस पुनरुत्थान की ओर संकेत करता है जो पाँच शताब्दियों के बाद
समुद्रगुप्त और उसके वंशजों के समय में हुआ।
पुष्यमित्र शुंग और बौद्ध धर्म
पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था, उसने ब्राह्मण धर्म के
पुनरुत्थान के लिए अनेक कार्य किए, इसमें कोई सन्देह नहीं। उसके द्वारा किए गए अश्वमेघ यज्ञ इस बात का सबल
प्रमाण है कि पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का एक निष्ठावान अनुयायी था। उधर
बौद्ध धर्म की परम्पराओं और साहित्य में पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध धर्म का घोर
विरोधी बताया गया है। तिब्बती इतिहास लामा तारानाथ तथा बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान
में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का प्रबल शत्रु कहा गया है। इनके अनुसार
पुष्यमित्र ने अनेक स्तूपों को नष्ट कराया और भिक्षुओं की हत्या करा दी। दिव्यादान
में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने साकल (स्यालकोट) जाकर घोषणा की- जो व्यक्ति एक श्रमण का सिर काटकार
लायेगा उसे मैं सौ दीनारें दूंगा- श्रमण शिरो दास्यति तस्याहं दीनार शत क्षस्यामि।
लामा तारानाथ ने भी लिखा है कि पुष्यमित्र धार्मिक मामलों में बड़ा असहिष्णु था।
उसने बौद्धों पर भाँति-भाँति के अत्याचार किए, उनके मठों और संघाराम को जलवा दिया। इन्हीं आधारों पर महामहोपाध्याय यू हर
प्रसाद शास्त्री ने यह निष्कर्ष निकाला कि पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों का उत्पीड़न
किया। प्रो. एन.एन. घोष ने भी पं. हर प्रसाद शास्त्री के विचारों से सहमति जताई
है। किन्तु अन्य अनेक आधुनिक इतिहासकारों ने पुष्यमित्र पर लगाए आरोपों का खण्डन
किया है। उदाहरण के लिए डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने तर्कसंगत आधारों पर यह सिद्ध
करने का प्रयास किया है कि पुष्यमित्र पर लगाए गए आरोप निराधार हैं। संक्षेप में
डॉ. चौधरी के तर्क इस प्रकार हैं- (1) जिस दिव्यावदान के आधार पर पुष्यमित्र शुंग
पर बौद्ध धर्म विरोधी होने का आरोप लगाया गया है, उस ग्रन्थ की प्रामाणिकता सन्देहास्पद है क्योंकि इसी ग्रन्थ में
पुष्यमित्र को अशोक का उत्तराधिकारी मौर्य सम्राट् कहा गया है। (2) पुष्यमित्र ने
बौद्ध धर्मावलम्बी मंत्रियों को अपदस्थ नहीं किया। बेटे के दरबार में पंडित कोशिकी
का बड़ा सम्मान था। (3) इस बात के साक्ष्य हैं कि लम्बे समय तक विहार, अवध, मालव तथा अन्य प्रान्तों में
अनेक बौद्ध मठ थे जहाँ हजारों बौद्ध साधु निवास करते थे। (4) भरहुत के बौद्ध
अवशेषों में यद्यपि शुंग काल का उल्लेख है तथापि उनमें यह कहीं भी नहीं कहा गया कि
जो पुष्यमित्र पुराणों के अनुसार शुगों में शामिल किया गया है, वह कभी कट्टर ब्राह्मण धर्म
का अनुयायी था।
डॉ.
हेमचन्द्र चौधरी के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में कुछ अन्य तर्क दिए गए हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार
हैं-
शुगों
के शासन-काल में बौद्ध स्तूपों की साज-सम्भाल के लिए अनेक कार्य किए गए। उदाहरण के
लिए भरहुत तथा साँची के स्तूपों में वे अंश यथा रेलिंग आदि जो लकड़ी के बने हुए थे
उनको पक्के पत्थरों में बदला गया।
जहाँ
तक कुछ बौद्धों की हत्या का प्रश्न है, इसका कारण उन बौद्ध श्रमणों को राष्ट्र विरोधिनी गतिविधियाँ यवनों के साथ
मिलकर राज्य के विरुद्ध कर रहे थे। जैसा कि ई. बी. हवल में अपनी पुस्तक आर्यन रूल
इन इंडिया (Aryan Rule in India) में
लिखा है कि पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों का दमन इसलिए किया कि उनके संघ राजनैतिक
बलि के केन्द्र बन गए थे, इसलिए
नहीं कि वे एक ऐसे धर्म को मानते थे जिसमें वह विश्वास नहीं करता था। इस तर्क का
समर्थन डब्ल्यूडब्ल्यू. टार्न के प्रसिद्ध ग्रन्थ द ग्रीक्स बँक्ट्रिया एण्ड
इण्डिया में भी मिलता है। टार्न ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है कि पश्चिमोत्तर
सीमा में बौद्ध यूनानियों की भारत विरोधी गतिविधियों में सहायता करते थे। इस
प्रकार पुष्यमित्र शुंग पर बौद्ध धर्म विरोधी होने के तर्क युक्ति संगत नहीं है।
पुष्यमित्र शुंग का मूल्यांकन-
पौराणिक साध्यों के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्ष राज्य किया।
इस प्रकार उसकी मृत्यु 148 ई.पू. में हुई होगी। किन्तु वायु एवं ब्रह्मांड पुराण
से ज्ञात होता है कि उसने 60 वर्ष शासन किया। ऐसा प्रतीत होता है कि इन वर्षों में
पुष्यमित्र का वह काल-खण्ड भी सम्मिलित कर लिया गया होगा जिसमें वह मौर्य
साम्राज्य के अधीन अवन्ति में राज्यपाल के पद पर था। पुष्यमित्र की गणना भारत
सुयोग्य शासकों और सेनानियों में की जाती है। वह उच्चकोटि का सेनानी तथा सेनापति
तथा कुशल शासक था। उसने न केवल शुंग साम्राज्य की स्थापना की, प्रत्युत उसका विस्तार और
सुगठन भी किया। उसके साम्राज्य में पंजाब, जलधर, स्यालकोट, विदिशा तथा नर्मदा तट के
प्रान्त सम्मिलित थे। उसने न केवल अपने साम्राज्य की प्रत्युत अपने देश की यवन
आक्रान्ताओं से रक्षा की। उसने भारत की उस समय सेवा की जबकि देश पर निरन्तर यवनों
के आक्रमण हो रहे थे। यही नहीं यवनों ने उत्तर पश्चिम कुछ प्रदेशों पर अपन अधिपत्य
भी स्थापित कर लिया था। यद्यपि उस पर धार्मिक पक्षपात का आरोप लगाया है किन्तु
वस्तुत: वह धार्मिक धर्मसहिष्णु शासक था। जैसा कि डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, निश्चित रूप से पुष्यमित्र
ब्राह्मण धर्म का प्रबल समर्थक था। किन्तु शुंगकालीन भरहुत से प्राप्त बौद्ध स्तूप
और बंगला प्रभृति साहित्य में प्राप्त साक्ष्य पुष्यमित्र के साम्प्रदायिक विद्वेष
की भावना की पुष्टि नहीं करते।
पुष्यमित्र
शुंग कला का संरक्षक था। उसने सांची स्तूप में एक रलिंग लगवाई। सांची के स्तूप के
सुन्दरीकरण का श्रेय पुष्यमित्र शुंग को ही है। लरहुत स्तूप भी उसकी कलाप्रियता का
एक उत्कृष्ट नमूना है। विदिशा के गजदत्त शिल्पी द्वारा निर्मित सांची के तरण-द्वार
आज भी उस बीते हुए युग की कलात्मक प्रतिभा का गुणगान कर रहे हैं। कला के अतिरिक्त
पुष्यमित्र शुंग का शासन साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए भी प्रसिद्ध हैं। साहित्य
के क्षेत्र में महर्षि पतंजलि का नाम उल्लेखनीय है। महर्षि पतंजलि ने पाणिनि की
अष्टाध्यामी पर महाभाष्य की रचना की। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग द्वारा किए गए
अवश्मेध यज्ञ के पुरोहित (आचार्य) थे। पतंजलि के अतिरिक्त इस युग में अन्य
महत्त्वपूर्ण रचनाओं का भी प्रणयन किया गया था, जो आज सुलभ नहीं हैं।
पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी
पुराणों के अनुसार शुंग वंश के कुल दस शासक या राजा हुए। इन
राजाओं ने कुल मिलाकर 112 वर्ष तक राज्य किया। पुष्यमित्र के बाद आने वाले शुंग
राजाओं में अग्निभित्त, वसुज्येष्ठ, वसुभित्त, अन्धक (औद्रक), पुलिन्दक घोष, वज्रमित्त, भाग (भागवत) एवं देवभूति है।
नवम् शुंग शासक सम्भवत: भागवत बेसनगर गरुडध्वज स्तम्भ लेख का काशीपुत्र भागभद्र ही
है। भागभद्र के दरबार में यूनानी शासक एण्टियालकीडास ने हेलियोडोरस नाम राजदूत
भेजा था। होलियाडोरस ने भागवत धर्म से प्रभावित बेसनगर में वासुदेव के सम्मान में
एक गरुड़ध्वज स्थापित किया था। इस पर दंभ (आत्मनिग्रह), त्याग और अप्रमाद तीन शब्द
अंकित हैं।
यह एक
पर्याप्त विवादास्पद तथ्य रहा है कि पुष्यमित्र का संघर्ष किस यवन आक्रान्ता से
हुआ। टार्न की मान्यता है कि पुष्यमित्र की सेना से पराजित होने वाला एक यूनानी
सेनापति डेमेट्रियस था। उनकी इस मान्यता के कई आधार हैं। महाभारत में उल्लेखित
यवनाधिप दत्तमित्र का तादात्म्य डेमेट्रियस प्रथम से किया जाता है। खारवेल के
हाथीगुम्फा अभिलेख में विवेचित यवनराज
दिमित का समीकरण भी डॉ. जायसवाल ने डेमेट्रियस प्रत्झाम से किया है। इसी तरह युग
पुराण में आए देवमंतिय को डेमेट्रियस प्रथम ही मानते हैं। बेसनगर से प्रापर एक
मुद्रा (सील या मुद्रा) पर अंकित तिमित्र की पहचान भी डेमेट्रियस से की जाती है।
इसके समर्थन में स्ट्रेबो के विवरण का भी हवाला दिया गया है जिसके अनुसार
यूनानियों का राज्य पूर्व में भारत तक फैला था जिसका कुछ श्रेय तो मिनेण्डर को था
और कुछ एण्डिओकोस महान् के दामाद तथा यूथीडेमस के पुत्र डोमेट्रियस को। तिब्बती
साक्ष्यों को भी इसके समर्थन में लिया जाता है। इसके अतिरिक्त द्विभाषीय एवं लिपि
वाले ग्रीक तथा प्राकृत भाषा और ग्रीक तथा खरोष्ठी लिपि के सिक्कों को डेमेट्रियस
द्वितीय द्वारा अपने पिता डोमेट्रियस प्रथम के लिए जारी करने की मान्यता का उल्लेख
भी किया जाता है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर टार्न ने डोमेट्रियस प्रथम द्वारा
मिनेण्डर के साथ संयुक्त अभियान में पाटलिपुत्र तथा सौराष्ट्र आदि की विजय का
सिद्धान्त प्रतिपादित किया है।
अनेक
स्थलों से प्राप्त मिनेण्डर के सिक्कों पर दो प्रकार के मुद्रा लेख मिलते
हैं- महरज त्रतरस मनद्रस एवं महरजस
घ्रमिकस मन्द्रस। उसने चाँदी, सोने व
तांबे के सिक्के जारी किये थे। अपने शासन-काल (155-130 ई.पू.) में उसका अधिकार
स्वातघाटी और हजारा जिले पर तथा पंजाब में रावी नदी तक हो गया था। उसके सिक्के
उत्तर में काबुल तक और दिल्ली में मथुरा तक मिले हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि
उसने गंगा घाटी अचल को जीतने का प्रयत्न था लेकिन वह उसे अपने अधिकार में नहीं रख
सका। यदि पाटलिपुत्र नहीं तो यमुना क्षेत्र में अवश्य ही उसने शुंगों पर आक्रमण
किया था। उसकी पर उसका शरीर जलाया गया और वह इतना लोकप्रिय था कि उसकी अस्थि-शेष
के लिए पश्चिमोत्तर के विभिन्न नगरों ने एक दूसरे से स्पर्द्धा की।
मिनेण्डर
ने एक बौद्ध भिक्षु नागसेन के साथ वाद-विवाद किया जो मिलिन्दपञ्हों नामक कृति में
संकलित है। मिनान्डर ने पंजाब में शाकल (सियालकोट) को अपनी राजधानी बनाया। जब वह
भारत में था, उसी
समय बैक्ट्रिया में एक दूसरा वंश यूकेट्राइडस स्थापित हो गया। उसने भी भारत पर
आक्रमण किया। उसने भारत के कुछ प्रदेश जीतकर तक्षशिला अपनी राजधानी बनाई।
इंडो-ग्रीक शासकों की वंशावली उनके सिक्कों से ज्ञात होती है। उनके सिक्कों के
आधार पर बताया जाता है कि कुल 30 इंडो ग्रीक-शासकों ने भारत एक भाग पर शासन किया।
उन्होंने अपने सिक्कों में पहले यूनानी लिपि का प्रयोग किया। फिर उन्होंने खरोष्ठी
एवं ब्राह्मी लिपि का भी प्रयोग किया। उनकी महत्वपूर्ण देन उत्तर पश्चिमी भारत में
हेलनिस्टक कला का विकास है।
कण्व वंश: 75 ई.पू. – 30 ई.पू.
मगध के इस नव स्थापित राजवंश का प्रवर्तक
वसुदेव था। कण्व शासक भी शुंगों की भाँति ब्राह्मण ही थे। हर्षचरित से जानकारी
मिलती है कि स्त्री व्यसन के कारण देवभूति को अमात्य वसुदेव ने रानी वेश धारिणी
दासी पुत्री द्वारा मरवा दिया। ऐसा ही कथन विष्णु पुराण में मिलता है। कहा जा सकता
है कि वसुदेव ने स्त्री व्यसनी देवभूति की षड्यन्त्र द्वारा हत्या करवाकर-मगध की
गद्दी पर अधिकार किया। कण्वों के राज्य शासन का बहुत थोड़ा वृतान्त मिलता है।
संभवत: उनका राज्य मगध एवं उसके आसपास तक ही सीमित था। परन्तु मगध के शासक होने से
इस वंश के शासकों को सम्राट् की उपाधि प्रदान की गई। पुराणों में चार कण्व राजाओं
का उल्लेख आया है जिन्होंने यथाक्रम मगध पर शासन किया- वासुदेव (9 वर्ष), भूमिमित्र (14 वर्ष), नारायण (12 वर्ष), तथा सुशर्मण (10 वर्ष)।
इस तरह कुल 45 वर्ष के शासन-काल में कण्वों ने
किसी क्षेत्र में कोई विशेष कीर्ति अर्जित नहीं की। माना जाता है कि 30 ई.पू. में
आन्ध्र भृत्यों (सातवाहन) ने इन्हें उखाड़ फेंका।
सातवाहन वंश
सातवाहन वश का उद्भव दक्षिण भारत है। आन्ध्र से
सम्बन्धित होने के नाते इन्हें आन्ध्र या आन्ध्र सातवाहन भी कहा जाता है। सातवाहन
शब्द कुल या वंश का बोधक है, आन्ध्र
एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले समान भाषा और परम्पराओं से जुड़े लोगों का।
सातवाहन राजवंश की स्थापना पहली शताब्दी ई. में हुई थी। सातवाहन ने दक्षिण भारत के
पश्चिम और दक्षिण में अपने राज्य की स्थापना की थी।
पुराणों में सातवाहन वंश के राजाओं के लिए आंध्र शब्द का प्रयोग किया
गया है। गोदावरी और कृष्णा नदी के मध्य भाग में रहने वाले क्षेत्र को आन्ध्र कहा
जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि सातवाहन लोग द्रविड़ थे। कुछ विद्वानों के
अनुसार सातवाहन लोग मूलतया द्रविड़ नहीं थे किन्तु अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार
सातवाहन द्रविड़ थे। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार सातवाहन लोगों का आदि स्थान
महाराष्ट्र था क्योंकि उनके बहुसंख्यक लेख महाराष्ट्र में मिले हैं। इससे ऐसा
अनुमान लगाया जाता है कि वह पहले महाराष्ट्र में शासन करते थे और बाद में शकों
द्वारा पराजित होने पर वे आंध्र आ गए। इसीलिए उन्हें आन्ध्र-सातवाहन कहा गया है।
उनके मूल निवास-स्थान की भाँति उनकी जाति के विषय में भी इतिहासकारों में मत-भेद
है। डॉ. के. गोपालाचार्य ने उन्हें क्षत्रिय कहा है। किन्तु डॉ. हेमचन्द्र
रायचौधरी ने उन्हें ब्राह्मण कहा है। जिनके रल्ड में कुछ नागा-जाति के रल्ड का
समावेश था। इस तथ्य की पुष्टि द्वात्तिशल्युत्तलिका से होती है। डॉ. भण्डारकर ने
सातवाहनवंश को ब्राह्मणोतर माना है। किन्तु नासिक अभिलेख में गौतमी पुत्र शातकर्णि
को क्षत्रियों के गर्व और मान को मर्दन करने वाला ब्राह्मण कहा गया है। अतएव उपलब्ध
साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि सातवाहन राजवंश ब्राह्मण था।
मत्स्य पुराण में कहा गया है कि आध्रों ने 450
वर्षों तक राज्य किया। वायु पुराण में सातवाहनों का शासन-काल 300 वर्ष बतलाया गया
और उनके 19 राजाओं का उल्लेख है। किन्तु आजकल यह मत सर्वमान्य है कि कण्ववंश के
शासन का अंत 27 ई.पू. और उसके बाद सातवाहन शासन का प्रारम्भ हुआ। डॉ. राधाकुमुद
मुखर्जी के अनुसार सातवाहनों ने 30 ई. से 250 ई. तक शासन किया। सातवाहन वंश का
संस्थापक सिमुक को माना जाता है। शातकर्णी के नानाघाट गुहा (चित्रफलक) लेख में
सिमुक का चित्त प्रथम तथा राजभहिषी पर दर्शाया गया है। पुराणों में कहा गया है कि
शातकर्णी के नानाघाट गुहा (चित्रफलक) लेख में सिमुक का चित्र प्रथम तथा राजमहिषि
नायायिका और उसके पति शातकणीं दोनों को अष्टम फलक में द्वितीय स्थान पर दर्शाया
गया है। पुराणों में वर्णन आया है कि आन्ध्र वंश का सिमुक काण्यवायन सुशर्मा को
नष्ट कर भूमि प्राप्त करेगा। सिमुक का समय 60-37 ई.पू. है। उसने शुंगों और कण्वों
की शक्ति का विनाश कर सातवाहन वश की स्थापना की। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान या पैठन
थी जो गोदावरी तट पर स्थित थी।
शातकर्णी- प्रथम पुराणों से जानकारी मिलती है
कि कृष्ण (कान्ह) के बाद शातकर्णी (27-17 ईसा पूर्व) गद्दी पर बैठा। इसका उल्लेख
साँची के स्तूप तोरण लेख गुम्फा नानाघाट गुहालेख एवं नानाघाट गुहा चित्र-फलक लेख
में आया है। हाथीगुफा अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसकी पूर्वी सीमा कलिंग शासक खारवेल
की पश्चिमी सीमा से लगी हुई से थी। यद्यपि अभिलेख के उक्त अनुच्छेद की व्याख्या
अलग-अलग ढंग से की गयी है किन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है की उसके खारवेल
से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि कृष्णा नदी के दक्षिणी
भाग पर जो शातकर्णी के राजत्व में था, खारवेल
ने आक्रमण किया था।
शातकर्णी को सिमुक वंश की वृद्धि करने वाला कहा
है सिमुक सातवाहनस् वंश वधनस। उसने महाराष्ट्र के महारथी त्रण कियरो की कन्या
नायायिका के साथ विवाह किया। शातकर्णी के दो पुत्र थे शक्ति-श्री एवं वेदश्री।
उसकी मृत्यु के बाद नायायिका ने इनकी अभिभाविका के रूप में शासन संचालित किया था।
इन दो पुत्रों में वेदश्री की मृत्यु हो गई और शक्ति श्री ने कुछ समय तक शासन
किया।
शातकर्णी विशाल साम्राज्य का स्वामी था। अपने
गौरव के अनुरूप उसने दो अश्वमेध यज्ञ किये। हाल का कथन है कि एक-शासनकाल के
प्रारम्भ में तथा दूसरा अपने जीवन के अन्तिम समय में। शातकर्णी के बाद कुछ समय के
लिए इस वंश का पराभव हो गया। पुराणों में शातकर्णी एवं गौतमीपुत्र शातकर्णी के
मध्य अनेक शासकों का उल्लेख आया है। अपलक, कुन्तल
शातकर्णी तथा हाल का नाम अनेक साक्ष्यों में मिलता है। संभवत: ये मुख्य शाखा से
सम्बद्ध नहीं थे। इसमें जहाँ तक हाल का प्रश्न है इसने लगभग पाँच वर्ष (20-24 ई.)
तक शासन किया। यह उच्च कोटि का कवि और साहित्यकार था। हाल ने स्वयं गाथा सप्तशती
की रचना की थी। उसी के शासन-काल में गुणाढ्य ने अपनी प्रसिद्ध रचना तेहत्कथा का
प्रणयन किया था।
गौतमीपुत्र शातकर्णी- प्रारम्भिक राजाओं द्वारा
महाराष्ट्र में स्थापित राज्य दूसरी सदी के आरम्भ में शक वंश के क्षहरात नरेश
नहपान के उद्भव के साथ कुछ समय के लिये समाप्त हो गया था। नहपान का समय 119 ई. से
125 ई. के मध्य माना जाता है। इसके अधिकार क्षेत्र में उत्तरी महाराष्ट्र, मालवा, काठियावाड़,
राजपूताना थे। महाराष्ट्र सातवाहनों का
मूल प्रदेश था किन्तु उन्हें क्षहरातों के दबाव से दक्षिण में विस्थापित होना
पड़ा। लेकिन क्षहरातों द्वारा सातवाहनों का पराभव अस्थायी सिद्ध हुआ। गौतमीपुत्र
शातकर्णी के नासिक गुहा अभिलेख से जानकारी मिलती है कि महाराष्ट्र गौतमीपुत्र
शातकर्णी के अधीन था। अभिलेख में आया है कि उसने क्षहरातों को निकाल बाहर किया। इस
तथ्य की पुष्टि अन्य प्रमाणों से भी होती है। जोगलथम्भी (नासिक) से प्राप्त
सिक्कों की निधि से नहपान की चाँदी की मुद्रायें और उसके अन्य सिक्के जिन्हें
गौतमीपुत्र शातकर्णी ने दुबारा ढलवाया था, मिले
हैं। अत: कहा जा सकता है कि सातवाहनों का महाराष्ट्र क्षेत्र पर पुन: प्रभाव
स्थापित हो गया। उसके राज्यारोहण से पूर्व सातवाहन शक्ति को शक क्षत्रपों ने आघात
पहुँचाया था, उन्हें अपनी शक्ति के विस्तार से रोका।
गौतमीपुत्र शातकणीं ने ही संभवत: क्षहरात शासक नहपान की शक्ति को नष्ट किया।
नहपान का उन्मूलन संभवतः अपके शासन के 18वें
वर्ष में किया अथवा यह कहा जा सकता है कि 124-125 ई. नहपान की अन्तिम तिथि है।
गौतमीपुत्र शातकर्णी के राज्यकाल के 18वें वर्ष
के नासिक दानपत्र अभिलेख में कुछ भूमि को दान देने का उल्लेख आया है। उक्त भूमि
पूर्व में ऋषभदत्त (उषवदात) के अधिकार में थी। ऋषभदत्त निश्चित रूप से शक गवर्नर
था। जिसके अधिकार में नासिक एवं पुणे जिले थे और वह नहपान का दामाद था। यह
उल्लेखनीय है कि भू-आवंटन की कार्यवाही सैनिक कैम्प के दौरान की गई जो उस समय
सफलता के पथ पर थी। गौतमीपुत्र के लेख में आवंटित क्षेत्र को गोवर्धन (नासिक) जिले
में स्थित बेणाकटक नामक विजय स्कन्धावर से सम्बन्धित बताया है। स्पष्ट है कि इस
प्रदेश में गौतमीपुत्र शातकर्णी की उपस्थिति जो सेना का मुख्य अधिपति भी था, क्षहरातों के विरुद्ध अभियान का द्योतक
है। इस अभियान द्वारा उसने ऊपरी दक्खन, पश्चिमी
तथा मध्यभारत को स्वतंत्र करवाया। इसी तरह एक ग्राम करजिका मामल आहार (पुणे जिले
में स्थित) जिसे मूलतः ऋषभदत्त ने दान किया था, को
पुन: सातवाहन शासक गौतमीपुत्र द्वारा दान किया जाना उत्तरी महाराष्ट्र से सत्ता
हस्तान्तरण को इंगित करता है। राज्यारोहण के 24वें वर्ष में उसने कुछ साधुओं को
भूमिदान की जिसकी जानकारी एक अभिलेख के उत्कीर्ण करवाये जाने से मिलती है। नह्रपान
को परास्त करने से गौतमीपुत्र शातकर्णी की साम्राज्य सीमा बहुत विस्तृत हो गई थी।
दक्षिण में कृष्णा नदी से,
उत्तर में मालवा एवं काठियावाड़ तथा
पूर्व में बरार से पश्चिम में कोंकण के मध्य समस्त प्रदेश, सातवाहन साम्राज्य के अंग थे।
गौतमी पुत्र शातकर्णी अपने वंश का सबसे प्रतापी
और पराक्रमी राजा था। उसकी माता गौतमी बल श्री के नासिक गुहालेख से, उसकी विजयों, उसके शासन, उसकी सफलताओं तथा उसके प्रभावपूर्ण
व्यक्तित्व के प्रशंसनीय गुग्गों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। गौतमी पुत्र की
दिग्विजयों का वर्णन नासिक गुहा-लेख में मिलता है। इसमें कहा गया है कि- उसके
वाहनों ने तीन समुद्रों (पूर्व पयोधि, पश्चिम
सागर और दक्षिण में हिन्द महासागर) का जल पिया। नासिक अभिलेख में उसके व्यक्तिगत
गुणों का भी अच्छा उल्लेख किया गया है। उसका मुखमण्डल दीप्तवान तथा प्रभावशाली था।
उसके बाल सुन्दर तथा भुजाएँ बलिष्ठ थीं। उसका स्वभाव अत्यन्त मृदुल तथा कारूणिक
था। सभी की रक्षा करने को वह सदैव तत्पर रहता था। अपनी माता का वह एक आज्ञाकारी
पुत्र था और अपने दुर्धष शत्रु पर भी प्रहार करने में संकोच करता था। वह एक
प्रजावत्सल शासक था और अपनी प्रजा के सुख दु:ख को अपना सुख दु:ख समझता था। वह अपनी
प्रजा पर आवश्यकता से अधिक कर नहीं लगाता था। ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का
श्रेय उसको है। किन्तु धार्मिक दृष्टि से वह एक सहिष्णु शासक था। वह एक महान्
निर्माता भी था। उसने नासिक जिले में वेकटक नामक नगर का निर्माण कराया था।
वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी-गौतमी पुत्र की मृत्यु
के पश्चात् वशिष्ठी पुत्र पुलुमावी राजा हुआ। उसने भी लगभग 24 वर्ष (130-54) तक
शासन किया। पुराणों में उसे पुकोमा कहा गया है। शासनकाल के 19वें वर्ष के वशिष्ठीपुत्र
पुलुमावी के नासिक गुहालेख में बलश्री अपने को वर्तमान नरेश की दादी एवं भूतपूर्व
सम्राट् की माता कहती है। इस विवरण को पुलुमावी का अपने पूर्वज गौतमीपुत्र
शातकर्णी के साथ सम्बन्ध असन्दिग्ध रूप से निश्चित हो जाता है जिसके पुत्र रूप में
उसने लगभग 130 ई. में उत्तराधिकार प्राप्त किया। उसका तादात्म्य टॉलमी द्वारा
उल्लिखित सिरोपोलेमेउ से किया जाता है जिसकी राजधानी गोदावरी के किनारे स्थित पैठन
(प्रतिष्ठान) थी। उसे (पुलुमावी) नवसार का नरेश भी कहा जाता है। नवनगर (नयानगर या
नवनोर) से अभिप्राय भण्डारकर पैठन से ही लेते हैं। पूर्व की भाँति पुलुमावी का
दक्षिण पर अधिकार बरकरार रहा। उसके अभिलेख एवं प्राप्त मुद्राओं से स्पष्ट होता है
कि कृष्णा नदी क्षेत्र उसके साम्राज्य का अंग था। आन्ध्र को उसी ने सातवाहन
साम्राज्य में सम्मिलित किया था। जैसा विदित है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी के
साम्राज्य में कृष्णा नदी क्षेत्र शामिल नहीं था। नासिक एवं कार्ले गुहा लेखों से
ज्ञात होता है कि महाराष्ट्र भी उसके अधिकार में था। उसे सम्बोधित किया गया कालें
गुहा लेख अन्तिम है। इसमें अंकित तिथि उसके राज्य का 24वाँ वर्ष है। उसका
राज्यारोहण 130 ई. में स्वीकार किये जाने के आधार पर कहा जा सकता है कि उसने 154
ई. तक शासन किया।
टॉलेमी ने अपने भूगोल में चष्टन को पश्चिमी
मालवा तथा उज्जैन का स्वामी कहा है। चष्टन की मुद्रायें गुजरात में काठियावाड़ से
मिली हैं किन्तु चष्टन के पुत्र जयदामन की मुद्रायें पुष्कर से भी प्राप्त हुई हैं, यह प्रदेश पूर्व में सातवाहनों के
अधिकार में था। अत: अनुमान किया जा सकता है कि पुलुमावी को पराजित करके ही शकों ने
इस पर अधिकार जमाया होगा। चष्टन ने अपने कुछ सिक्कों पर सातवाहनों के मुद्रा चिह्न
चैत्य को अंकित करवाया था।
पुलुमावी के बाद यज्ञश्री शातकर्णी अन्तिम
शक्तिशाली सम्राट् था जिसने 165 ई. से 195 ई. तक शासन किया। कृष्णा जिले के चिन्न
नामक स्थान से शासन के 27वें वर्ष का अभिलेख प्राप्त हुआ है तथ कन्हेरी एवं
पांडुलेण (नासिक) में उसके लेख उपलब्ध हुए हैं।
यज्ञ श्री शातकणीं- यज्ञ श्री शातकर्णी सातवाहन
वंश का अन्तिम पराक्रमी सम्राट् था। उसने 27 वर्षों (165-192 ई.) तक शासन किया।
उसका शासन महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश दोनों पर था। उसने रूद्रदायन के
उत्तराधिकारियों से उत्तरी कोंकण को अपने आधिपत्य में कर लिया था। थाना और नासिक
के जनपदों में जो अभिलेख मिले हैं उनसे यह सिद्ध हो जाता है कि यज्ञ श्री शातकर्णी
का राज्य काफी दूर तक फैला था। उसके समय में व्यापार की बड़ी उन्नति हुई। उसने अपने
पूर्वजों को पुनःस्थापित करने का प्रयास किया।
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