उत्तरवैदिक काल का इतिहास | Uttar Vedik Kal
उत्तरवैदिक काल Uttar Vedik Kal
- 1000
ई़.पू से 600 ई पू के बीच चित्रित धूसर
मृद्भाण्ड संस्कृति प्रचलित थी।
- उत्तरवैदिक
काल में आर्य सप्त सैंभव से निकलकर पूरे गंगा-यमुना दोआब के क्षेत्र में फैल
गये। ‘ शतपथ ब्राह्मण‘ में विदेह माधव के अभियान का वर्णन
प्राप्त होता है,
जो उसने सदानीरा
नदी तक किया था।
- उत्तरवैदिक
काल में ग्रामीण समाज धीरे-धीरे नगरीय समाज में परिवर्तित हो रहा था।
- परिवार
पितृप्रधान थे। तथा लोग कुटुम्ब में ही रहते थे। संयुक्त परिवार की प्रथा
होती थी।
- इस
काल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आयी तथा उन्हें घर तक ही सीमित कर दिया
गया।
- इस
काल में नियोग प्रथा प्रचलित थी। इसमें विधवा स्त्री अपने देवर से विवाह कर
लेंती थी ।
- आश्रम-व्यवस्था
का सर्वप्रथम उल्लेख छान्दोग्योपनिषद में मिलता है। ‘ जाबालि उपनिषद्‘ में चार आश्रमों का वर्णन मिलता
है।
- उत्तरवैदिक
काल के प्रांरभ में तीन आश्रम ही प्रचलित थे- ‘ ब्रह्मचर्य‘ ‘गृहस्थ‘ एवं ‘ वानप्रस्थ‘ लेकिन उत्तरवैदिक काल के अंत में
आकर चोथा आश्रम भी प्रचलित हो गया, जिसे
‘ संन्यास‘ कहते हैं।
- उत्तरवैदिक
काल में वर्ण-विभाजन स्पष्ट एवं जन्म पर आधारित हो गया।
- इस
काल में चार जातियां बनी- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र।
- इस
काल में गोत्र व्यवस्था का उदय हुआ। ‘ गोत्र‘ का उल्लेख सर्वपुथम अथर्ववेद में
मिलता है।
संस्कार Vedik Sanskar
संस्कार का अर्थ है ‘ विधिवत शुद्ध करने, कठिनायों एवं बाधाओं से बचने तथा ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के
लिए संस्कारों का पालन किया जाता है। मुख्य संस्कारों की संख्या 16 है, जो इस प्रकार हैः
- 1
गर्भाधान
संस्कार: यह पूरूष द्वारा संतान प्राप्ति हेतु स्त्री के गर्भ के बीच रोपित
करने से संबंधित है।
- 2
पुंसवन संस्कार:
यह संस्कार गर्भाधान तीसरे महीने में होता है। यह संस्कार तेजस्वी संतान की
प्र्राप्ति के लिये किया जाता है।
- 3
सीमतोन्नयन
संस्कार: यह संस्कार गर्भधारण के चैथे महीने मे किया जाता है। इसमें गर्भ की
रक्षा के लिये भगवान से प्रार्थना की जाती है।
- 4
जातकर्म
संस्कार: बच्चे के जन्म के बाद पिता अपने शिशु को घी एवं शहद चटाकर उसकी लंबी
आयु मांगता है।
- 5.
नामकरण संस्कार:
इसमें शिशु का नाम रखा जाता है। इसमें नक्षत्रों, ग्रहों, पूर्वजो इत्यादि का ध्यान रखा जाता
हैै।
- 6.
निष्क्रमण
संस्कार: इस संस्कार में शिशु को पहली बार घर सेे बाहर निकाला जाता है। उसे
सूर्य भगवान के दर्शन कराये जाते है।
- 7.
अन्नप्राशन
संस्कार: इसमें शिशु को पहली बार अन्न खिलाया जाता है। सामान्यतयाः यह
संस्कार शिशु के जन्म के बाद छठे माह के प्रारंभ या समाप्ति पर किया जाता है।
- 8.
चूड़ाकर्म
संस्कार: बालक के सिर के बालों को पहली बार हटाया जाता है। इस संस्कार का समय
अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग है।
- 9.
कर्णवधन
संस्कार: इसमें कान एवं नाक में छेदन कर सोने के आभूषण पहनाये जाते है। यह
लड़कियों के लिये ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।
- 10.
विद्यारम्भ
संस्कार: यह संस्कार विद्या अध्ययन प्रारंभ करने के समय किया जाता है।
- 11.
उपनयन संस्कार:
इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ संस्कार भी कहते है। यह संस्कार बालकों का होता है।
इसकें बाद बालक द्विज हो जाता है।
- 12.
वेदारंम्भ
संस्कार: इस संस्कार का आयोजन वेदों का अध्ययन प्रारंभ करने के लिये किया
जाता है।
- 13.
केशांत संस्कार:
यह संस्कार बालक के 16वें वर्ष में किया जाता है। इसमें
वयस्क होने पर पहली बार दाढ़ी-मूछों की सफाई की जाती है।
- 14.
समावर्तन
संस्कारः संतान की शिक्षा की समाप्ति के अवसर पर यह संस्कार किया जाता है।
- 15.
विवाह संस्कार:
इस संस्कार के द्वारा वर एवं वधू परिणय सूत्र में बंधकर गृहस्थ जीवन प्रारंभ
करतें है।
- 16.
अंत्येष्टि
संस्कार: यह मनुष्य का अंतिम संस्कार है। मृत्यु के उपरांत आत्मा की शांति
एवं मोक्ष दिलाने के लिये यह संस्कार किया जाता है।
- उत्तरवैदिक
साहित्य में गार्गी,
वाकाकनावी, मैत्रेयी आदि विद्षियों का उल्लेख
मिलता है।
- उत्तरवैदिक
काल में काबीलों से जनपद बनने लगे। इस काल में केकय, गांधार, काशी कोशल, मद्र आदि प्रमुख एवं शक्तिशाली
राज्य थे।
- इस
काल में राजत्व का दैवी सिद्धांत सामने आया तथा राजनीति में महिलाओं की
भागीदारी कम हो गयी।
- पुरू‘ एवं ‘ भरत ‘ जनपदों के मिलने से ‘ कुरू‘ जनपद तथा ‘ तुर्वश ‘ एवं क्रिवि ‘ जनपदों के मिलने से ‘ पंचाल ‘ जनपद बना।
- राजा
‘ राजसूय‘ ‘अश्वमेध ‘ एवं ‘ वाजपेय‘ - जैसे विशाल यज्ञों का आयोजन करता
था।
- पूर्व
के राजा ‘सम्राट् ‘ पश्चिम के राजा ‘ स्वराट्‘ उत्तर के राजा ‘ विराट्‘, दक्षिण के राजा ‘ भोज ‘ तथा मध्यप्रदेश के राजा ‘ राजा ‘ कहलाते थे।
- राजा
का पद अनुवाशिंक हो गया तथा उसके पद महत्व बढ़ गया।
- उत्तरवैदिक
काल में प्रशासनिक पदाधिकारियों को ‘ रत्निन
‘ कहतें थे।
- इस
काल में भी पुरोहित के बाद सेनापति, दौवारिक
( राजमहल के द्वार का प्रमुख अधिकारी ), संगृहीतृ
( कोषाध्यक्ष ),भागदुध ( कर संग्राहक ), क्षत्रि ( घरेलू कार्य का अध्यक्ष
), पालागल ( दूत या संदेशवाहक ) सूत्र
अथवा भार, प्रतिहारी, अक्षवाप ( जुआ निरीक्षक ) आदि मुख्य
पदाधिकारी थे।
विवाह Vivah ke Prakar
विवाह के कुल 8 प्रकार होते है। विवाह के आठ पकारों में से चार प्रकारों- ब्रह्म
विवाह, आर्य विवाह एवं प्रजापत्य
विवाह को उत्तम माना गया है। इसका वर्णन इस प्रकार है-
- 1
ब्रह्म विवाह:
इस विवाह में कन्या के माता पिता उसे वस्त्र एवं आभूषण पहनाकर उसे वर को
सौपते हैं। विवाह के सभी प्रकारों में इस सर्वश्रेष्ठ माना गया हैं।
- 2
दैव विवाह: इस
प्र्रकार के विवाह में यज्ञ कराने वाले ऋषि के साथ कन्या का विवाह किया जाता
है।
- 3
आर्ष विवाह: इस
प्रकार विवाह में वर को दो गायें दान में देतें है।
- 4
प्रजापत्य
विवाह: इसमें कन्या के माता-पिता से वर कन्या सौपने का आग्रह करता है।
- 5
राक्षस विवाह:
इसमें वर सोती हुई कन्या का अपरहण करके उससे विवाह करता है।
- 6
गन्धर्व विवाह:
इसमें विवाह वर एवं वधू में आपस में पे्र्रम हो जाने से होता है। वे सहमति से
विवाह कर लेते हैं।
- 7
आसूर विवाह: इस
विवाह में वर या वधू शुल्क दिया जाता है। यह क्रय विवाह है।
- 8
पैशाच विवाह: इस
प्रकार विवाह में वर सोयी हुई कन्या से बलपूर्वक संभोग करता है। फिर उससे
विवाह करता है।
- वैदिक
काल में सबसे निचले स्तर का अधिकारी, ग्राम
अधिकृत , था।
- ब्रह्माण
की हत्या को इस समय सबसे बड़ा अपराध माना जाता था।
- अथर्ववेद
में ‘ सभा ‘ एवं समिति ‘ को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा
गया था।
- इस
काल में भी सभा ‘
समिति एवं विदथ
नामक तीन राजनीतिक संस्थायेें थीं, हालांकि
समिति सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक संस्थान बन गयीं।
- रन्तिन
की संख्या 12
थी, जिनके नाम इस प्रकार थे- 1 राजा, 2 युवराज, 3 सेनानी-सेनापति, 4 पुरोहित-मंत्री, 5 महिषि-पटरानी, 6 भागदुध-कर संग्राहक, 7 सूत्र-सारथी, 8 पालागल-राजा का मित्र, 9 संग्रहीता-कोषाध्यक्ष, 10 क्षतृ-प्रतिहारी, 11 ग्रामीण- लड़ाकू दल का नेता एवं 12 अक्षवाप-पाँसे के खेल में राजा का
सहयोगी।
- उत्तरवैदिक
काल में पशुपालन की जगह कृषि अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार बन गई।
- अलीगढ़
के पास अतंरजीखेड़ा से लोहे के फाल का प्रयोग करने के प्रमाण पाये गये हैं।
- विदे्रह, काशी, कौशाम्बी आदि प्रमुख व्यापारिक
केन्द्र थे।
- निष्क, शतमान और कृष्णल इस काल में सिक्के
थे।
- इ्रंद्र
के स्थान पर प्रजापति ( शिव ) सबसे प्रमुख देवता बन गये। रूद्र का भी महत्व
बढ़ा। शुद्रों के देवता ‘
पूषन् ‘ थे। उत्तरवैदिक काल में पुनर्जन्म, मोक्ष तथा कर्म के सिद्धांतों की
स्पष्ट रूप से स्थापना हुई।
- यज्ञ
जटिल एवं खर्चीलें हो गये तथा उनमें पशु बलि दी जाने लगी।
- सात
पुरोहित यज्ञ में भाग लेते थे। यज्ञों का सम्पादन का कार्य ‘ ऋत्विज‘ करतें थे। इसके चार प्रकार थे- ‘ होता‘ ऋचाओें का पाठ करता था, अध्वर्यु‘ कर्मकाण्ड का भार वहन करता था, ‘ उद्गाता ‘ गायन करता था और ‘ ब्रह्मा‘ कर्म का अध्यक्ष होता था।
- वेदव्यास
ने उत्तराखण्ड के बदरिका आश्रम में महाभारत ग्रंथ लिखा था।
- अगस्त्य
मुनि ने दक्षिण में आर्य सभ्यता का प्रचार किया था।
- इतिहास
एवं पुराण को पंचमवेद कहा जाता है।
- शतपथ
ब्राह्मण सबसे पुराना ब्राह्मण है।
- वैदिक काल के प्रमुख यज्ञ इस प्रकार के थे- 1 राजसूय यज्ञः राजा के राज्याभिषेक के लिये , 2 अश्वमेध यज्ञः राजा के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिये, 3 वाजपेय यज्ञः शौर्य एवं शक्ति का प्रदर्शन करने के लिये रथदौड़, 4 अग्निष्टोम यज्ञः सोम रस का पान तथा अग्नि में पशु बलि तथा 5 पंच महायज्ञः ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ पुरूष यज्ञ, देव यज्ञ एवं भूत यज्ञ।
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