Bharat ka swatantra Sangram | भारत का स्वतंत्रता संग्राम | उदारवादी काल (1885-1905)
भारत का स्वतंत्रता संग्राम
भारत में राष्ट्रीयता के तत्व तो पहले से ही
विद्यमान थे, किन्तु
उनका विकास व संगठन ब्रिटिश काल में ही हुआ। भारत में राष्ट्रीयता के विकास के
अनेकानेक कारण थे। अंग्रेज भारत में केवल अपने हितार्थ ही शासन कर रहे थे। इस बात
को भारतीयों ने भली भांति समझ लिया था। भारतीय इस बात का भी अनुभव कर रहे थे कि
अंग्रजी सरकार उन्हें किसी भी प्रकार का
लाभ नहीं पहुँचाएगी। अंग्रेजों की अत्याचारी एवं दमनकारी नीति से भारतीय त्रस्त हो
चुके थे। डलहौजी द्वारा दत्तक पुत्र को पैतृक संपत्ति का अधिकारी ने मानने के कारण
भारतीयों में रोष व्याप्त था। यह रोष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में स्पष्ट भी हो
चुका था। यद्यपि इस विद्रोह का अंग्रेजी सरकार ने दमन कर दिया था, किन्तु भारतीयों में जाग्रत
राष्ट्रीयता की भावना को नष्ट नहीं कर सके थे। ये भावनाएँ लगातार बलवती होती चली
गईं। अंग्रेजों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार इस उद्देश्य से किया था
जिससे वे भारतीय क्लर्क तैयार कर सकें, किन्तु अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार के
कारण भारतीय पाश्चत्य साहित्य के संपर्क में आए। परिणामस्वरूप अब स्वतंत्र होने की
बात सोचने लगे। अंग्रेजी गवर्नर जनरलों के प्रयासों से रेल, डाक-तार, एवं टेलीफोन द्वारा समस्त भारत एक
सूत्र में बंध चुका था। अतः इन साधनों ने राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 ई. में लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन की घोषणा
ने तो आग में घी का काम किया। समस्त भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु आंदोलन की
बाढ़ सी आ गई और यह बाढ़ 1947 ई. में जाकर शांत हुई। जब भारत पूर्णरूपेण स्वतंत्र
हो गया।
प्रारंभिक राजनीतिक संगठन
बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी
इस सोसायटी की स्थापना 1843 ई. में की गयी थी, जिसके अध्यक्ष एक अंग्रेज जार्ज थापसन
थे। सोसायटी के सदस्य जमींदार थे। इस संस्था का उद्देश्य किसानों को उचित अधिकार प्रदान करवाना तथा जनता
की उन्नति करना था।
ब्रिटिश इण्डियन सोसायटी
1838 में निर्मित बंगाल के जमींदारों की सभा
तथा बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी दोनों एक हो गए। दोनों ने मिलकर 1851 ई0 में
ब्रिटिश इण्डियन सोसायटी की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य प्रशासन में भारतीयों
के प्रतिनिधित्व की माँग करना था।
मद्रास नेटिस ऐसोसिएशन
इसकी स्थापना 1852 ई. में की गई थी। चूंकि इस
संस्था ने 1857 ई. में हुए विद्रोह की निंदा की , अतः जनसमर्थन प्राप्त न हो सका।
बंबई ऐसोसिएशन
इसमें बंबई के विभिन्न जाति और धर्मानुयायी, धनी, व्यापारी तथा मध्यमवर्गीय लोग सम्मिलित
थे। इसकी स्थापना 1852 में हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में सिविल सेवा
परीक्षा को आयोजित करना तथा सरकारी पदों पर भारतीयों की नियुक्ति करना था।
पूना सार्वजनिक सभा
इस सभा की स्थापना 1870 ई. में इस उद्देश्य से
की गई ािी कि यह संस्था सरकार व जनता के मध्य मध्यस्थता बनाए रखेगी।
इण्यिन लीग
इसकी स्थापना 1875 ई. में शिशिर कुमार घोष
द्वारा की गई। लीग का मुख्य उद्देश्य नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना को जाग्रत
करना तथा उन्हें राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885)
यद्यपि अंग्रेजों ने 1857 में हुए विद्रोह को
दबा दिया था, किंतु
वे भारतीय हृदयों में जन्मी राष्ट्रीयता की भावना को नहीं दबा सके। राष्ट्रीयता की
भावना में उत्तरोत्तर तीव्र वृद्धि होती जा रही थी। यही कारण था कि राजनीतिक
अधिकार प्राप्त करने हेतु देशव्यापी आंदोलन चलाने के लिए भारतीय एक राष्ट्रीय
संस्था की आवश्यकता अनुभव कर रहे थे। 1857 के पश्चात 1885 ई. तक अनेक संस्थाओं का
निर्माण भी हुआ, किन्तु
इन संस्थाओं को कुछ विशेष सफलता न मिली । 1979 ई. में नीति संबंधी मतभेद होने के
कारण लॉर्ड लिटन ने एक अंग्रेज अधिकारी एलन ओक्टोवियम ह्यूम की पदावनति की थी। इस
घटना से उसे राजनीतिक आंदोलनकारी बना दिया। बाद में तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड डफरिन
की सलाह पर इस अंग्रेज अधिकारी ने भारतीय नेताओं से विचार विमर्श कर 1885 ई. में
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। पूना में इसका प्रथम अधिवेशन बुलाया
जाना तय हुआ। किन्तु पूना में प्लेग फैल जाने के कारण वहां अधिवेशन न बुलाया जा
सका। अतः पूना के स्थान पर यह अधिवेशन बंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत विद्यालय
में हुआ। इस अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमशचन्द्र बनर्जी ने की। इस अधिवेशन में 72
प्रतिनिधियों ने भाग लिया। ए.ओ.ह्यम को इस संस्था का सचिव नियुक्त किया गया । इस
संस्था की एक शाखा 1889 ई. में इंग्लैण्ड में भी खोली गई।
यद्यपि ए.ओ.ह्यूम ने रक्षा अर्थात् सेफ्टी वाल्व
के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी, किन्तु शीघ्र ही कांग्रेस स्वाधीनता
संग्राम के लिए कटिबद्ध हो गई। ब्रिटिश सरकान ने पहले कांग्रेस से सहयोग किया, फिर उदासीनता का दृष्टिकोण अपनाया, किन्तु बाद में विरोध के उपरांत दमन की
नीति अपनाई। यहीं से कांग्रेस की नीति में परिवर्तन हो गया जो स्वतंत्रता प्राप्ति
तक चलता रहा।
आंदोलन का प्रथम चरण या उदारवादी काल (1885-1905)
बंबई में हुए प्रथम अधिवेशन के पश्चात कांग्रेस की शक्ति में लगातार वृद्धि होती गई। प्रारंभिक 20 वर्षों में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपाकृष्ण गोखले, व्योमेश चंद्र बनर्जी एवं पंडित मदनमोहन मालवीय ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व किया। चूंकि इन नेताओं पर ब्रिटिश उदारवाद का पूरा-पूरा प्रभाव था, अतः ये उदारवादी कहलाए तथा इनका युग उदारवादी युग कहलाया। उदारवादी वैधानिक तरीकों से प्रतिवर्ष कांग्रेस के अधिवेशन में पारित मांगों को समाचार-पत्रों एवं भाषणों के माध्यम से जनता में प्रसारित करते थे। याचिकाओं एवं स्मरणपत्रों को विनम्र भाषा में लिखकर गृह सरकार के समक्ष मांग प्रस्तुत करते थे। अपने उदारपूर्ण तरीकों से कांग्रेस ने प्रतिवर्ष अधिवेशन कर राष्ट्रीय जागृति, राजनीतिक शिक्षा तथा भारतीयों में संगठन की भावना उत्पन्न करने का कार्य किया। 1892 में इण्डियन कांउसिल एक्ट पारित कराया, जिसमें अनेक विद्वानों ने उदारवादियों की कार्यपद्धति की कटु आलोचना भी की। जो भी हो इतना तो सत्य है उदारवादियों ने अपने तरीके से स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघर्ष किया।
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