Swantrata Andolan ka Tishra Charan | स्वतंत्रता आंदोलन का तीसरा चरण और महात्मा गांधी (1919-1929)
स्वतंत्रता आंदोलन का तीसरा चरण और महात्मा गांधी
भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन का तीसरा चरण और महात्मा गांधी (1919-1929)
स्वतंत्रता
संग्राम आंदोलन के तीसरे चरण में गांधीजी का सक्रिय राजनीति में प्रवेश हुआ। इस
दौरान उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अनेक आंदोलन किए। इससे पूर्व 1894 से 1914 ई.
तक गांधीजी अफ्रीका में रहे। वहाँ उन्होंने जातीय भेदभाव के विरूद्ध सफल सत्याग्रह
आंदोलन चलाया। 1915 में भारत आकर गांधीजी भारतीय राजनीति में प्रविष्ट हुए। 1916
ई. में अहमदाबाद के समीप उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना की। 1917 में बिहार स्थित चंपारण में
किसान आंदोलन चलाया गया। 1918 में खेड़ा में ‘कर नही‘ आंदोलन चलाया गया तथा अहमदाबार में मिल
मजदूरी की लड़ाई लडी गई। प्रारंभ में गांधीजी भारत में संवैधानिक सुधारों के हिमायती थे इसलिए उन्होंने तिलक एवं एनीबेसेण्ट
द्वारा चलाए गए होमरूल लीग आंदोलन में भाग नहीं लिया। किन्तु 1919 के अमृतसर
अधिवेशन के बाद गांधीजी ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई और भारतीय
राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिया। आंदोलन के इस तृतीय चरण में अनेक घटनाए घटित
हुई।
1919 से 1929 तक की प्रमुख घटनाएँ
खिलाफत आंदोलन (1919-1922)
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने भारतीय मुसलमानों
को उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया था, किन्तु उन्होंने अपने वचन का पालन नहीं
किया और टर्की में खलीफा के पद को समाप्त कर दिया । इसके प्रति मुसलमानों द्वारा
विरोध किया गया। मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली ने खिलाफत कमेटी का गठन कर
अंग्रेजों के खिलाफ ‘खिलाफत आंदोलन‘ प्रारंभ कर दिया। इस आंदोलन का समर्थन कांग्रेस द्वारा किया गया, क्योंकि महात्मगा गांधी के विचार से
अंग्रेजों के खिलाफ हिन्दू और मुसलमानों के एक होने का यह स्वर्णिम अवसर था। जब
मुस्तफा कमाला पाशा के नेतृत्व में टर्की में खलीफा की सत्ता समाप्त कर दी गई तो
1922 में यह आंदोलन स्वतः ही समाप्त हो गया।
असहयोग आंदोलन (1920-1922)
गांधीजी को रौलट एक्ट एवं मांटेग्यू चेम्सफोर्ड
सुधारों में बड़ा आघात लगा। मुसलमानों ने भी खिलाफत कमेटी का गठन कर खिलाफत आंदोलन
शुरू किया । इस आंदोलन में उन्हें कांग्रेस का सहयोग मिला। हिन्दू और मुसलमान पुनः
एक हुए। गांधीजी ने अंग्रेजो के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाने का निश्चय किया।
सितम्बर 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन बुलाया गया। इस अधिवेशन
में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा। देशबंधु चितरंजन दास एवं मदनमोहन
मालवीय ने इस प्रस्ताव का विरोध किया किन्तु मोतीलाल नेहरू एवं अली बंधुओं के
समर्थन से प्रस्ताव पारित हो गया। गांधीजी एवं अली बंधुओं ने समस्त भारत का भ्रमण कर आंदोलन का वातावरण तैयार कर
लिया। दिसंबर 1920 ई. के कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में इस प्रस्ताव की पुष्टि कर
दी गई।
असहयोग आंदोलन का प्रारंभ
प्रस्ताव पारित होने के पश्चात गांधीजी ने
असहयोग आंदोलन प्रारंभ कर दिया। इस आंदोलन में भारत का अपार जनसमूह गांधीजी के साथ
था। आंदोलनकारियों ने सरकारी उपाधियों का त्याग किया। वकीलों ने अदालतों का
बहिष्कार किया। विद्यार्थियों द्वारा स्कूल एवं विद्यालय त्याग दिए गए। विदेशी
वस्त्रों का परित्याग कर जगह-जगह होली जलाई गई। देशी वस्त्रों को अपनाया गया। 1921
ई. में अहमदाबाद में हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में आंदोलन को और अधिक तेज
करने का निर्णय लिया गया। गांधीजी ने पत्र द्वारा वायसराय लॉर्ड रीडिंग को सूचित
किया कि यदि सरकार ने अपना रवैया न बदला तो शीघ्र ही कर न देने का आंदोलन चलाया
जाएगा।
चौरी-चौरा काण्ड एवं असहायोग आंदोलन की समाप्ति
गांधीजी ने कर न देने का आंदोलन चलाने के लिए
ब्रिटिश सरकार को एक सप्ताह का समय दिया था। यह समय अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि 5
फरवरी 1922 ई. को उत्तरप्रदेश स्थित गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा स्थान पर
विरोधस्वरूप कांग्रेस के एक जुलूस को पुलिस द्वारा रोकने का प्रयास किया जिसमें
जनता और पुलिस में मुठभेड़ हो गई। पुलिस भागकर थाने में छिप गई। अब उत्तेजित भीड़
ने थाने को घेरकर उसमें आग लगा दी। जनता की इस हिंसात्मक कार्यवाही में एक थानेदार
व 21 सिपाही जलकर राख हो गए। इस हिसांत्मक घटना से गांधीजी को बहुत दुख पंहुचा, क्योंकि वे अहिंसा के पुजारी थे।
गांधीजी ने 12 फरवरी को बारदोली में कांग्रेस कार्य समिति की एक बैठक बुलाई, जिसमें चौरा चौरी काण्ड के कारण
सामूहिक सत्याग्रह व असहयोग आंदोलन स्थगित हो गया। अनेक भारतीय नेताओं द्वारा
गांधीजी के इसकदम की कटु आलोचना हुई तथा वे कुछ समय के लिए अलोकप्रिय भी हो गए।
उनकी अलोकप्रियता का लाभ उठाकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 10 मार्च 1922 ई. को
गिरफ्तार कर 6 वर्ष के लिए जेल भेज दिया। किन्तु बीमारी के कारण उन्हें समय पूर्व
5 फरवरी 1924 को रिहा कर दिया गया। उनकी गिरफ्तारी के साथ ही भारत में असहयोग आंदोलन
स्वतः ही समाप्त हो गया।
स्वराज्य दल की स्थापना (1923)
चौरी-चौरा काण्ड से व्यथित होकर गांधीजी ने
अपना असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया।इस समय लगभग सभी बड़े कांग्रेसी नेता जेल में
कैद थे। असहयोग आंदोलन कके स्थगन से स्वराजय की मंजिल दूर हो गई थी। जनता के मार्ग
निर्देशन के लिए किसी नए कार्यक्रम की आवश्यकता थी। अतः जेल से छूटने के बाद
चितरंजनदास ने कौंसिल प्रवेश का प्रचार किया। 1922 ई. में गया में हुए कांग्रेस के
वार्षिक अधिवेशन में डॉ. अंसारी एवं राजगोपालाचारी से मतभेद होने के कारण चितरंचन
दास ने कांग्रेस त्यागपत्र दे दिया तथा दिसम्बर 1922 में इलाहबाद में मोतीलाल
नेहरू ने स्वराज्य पार्टी की स्थापना की और पार्टी के कार्यक्रमों का प्रचार करने
के लिए देश का तूफानी दौरा किया। 1923 में चुनाव में इस पार्टी ने भाग लिया और
सफलता प्राप्त की तथा विधान सभा में सम्मिलत होकर सरकार के समक्ष परेशानियाँ
उत्पन्न की।
साइमन कमीशन का बहिष्कार (1927)
1919 के अधिनियम में यह बात कही गई थी कि भारत
में संवैधानिक सुधार हेतु प्रति दस वर्ष बाद एक कमीशन की नियुक्ति की जाएगी
जो प्रशासनिक सुधार की जाँच कर अपनी
रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु ब्रिटिश संसद ने एक वकील सर
जान साइमन की अध्यक्षता में सात सदस्यीय दल भारत भेजा। इस कमीशन का एक भी सदस्य
भारतीय नहीं था। भारत में साइमन कमीशन का जगह-जगह पर काले झण्डे दिखाकर विरोध
प्रदर्शित किया गया। साइमन वापस जाओं के नारे लगाए गए। लाहौर में लाला लाजपत राय
के नेतृत्व में विरोध किया गया। जब वे जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे, तो अंग्रेजो द्वारा जुलूस पर लाठी
प्रहार किया गया। इस लाठी प्रहार में लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हुए और उनक
मृत्यु हो गई। व्यापक विरोध के बावजूद भी साइमन कमीशन ने दो बार भारत का दोरा
किया। साइमन रिपोर्ट मई 1920 ई. प्रकाशित हुई, जिसमें निम्नलिखित बातें कही गई-
साइमन कमीशन रिपोर्ट के मुख्य सुझााव
1- प्रांतो में दोहरा शासन समाप्त करके
उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाए।
2- केन्द्रीय शासन में किसी प्रकार का
परितर्वतन नहीं किया जाए।
3- भारत के लिए संघीय शासन की स्थापना की जाए।
4- उच्च न्यायालय को भारत सरकार के अधीन कर
दिया जाए।
5- अल्पसंख्यकों के हितों के लिए गवर्नर और गवर्नर जनरल को विशेष
शक्तियां प्रदान की जाएँ।
6- प्रांतीय विधानमण्डलों के सदस्यों की संख्या
में वृद्धि कर दी जाए।
7- वर्मा को भारत से पृथक कर दिया जाए तथा सिंध
एव उड़ीसा को नए प्रांत के रूप में मान्यता प्रदान की जाए।
8- संघ की स्थापना से पहले भारत में वृहदत्तर
भारतीय परिषद् की स्थापना की जाए।
9- रिपोर्ट में मताधिकार पर विस्तार से सिफारिश
की गई।
10- प्रत्येक दस वर्ष पश्चात भारत की संवैधानिक
प्रगति की जाच को समाप्त कर दिया जाए, तथा ऐसा नवीन लचीला संविधान बनाया जो
जो स्वतः विकसित होता रहे।
यद्यपि साइमन कमीशन की बातों की तीखी आलोचनाएं
हुई तथा सर शिवस्वामी अय्यर द्वारा इसे रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक बताया गया।
किन्तु फिर भी इस कमीशन की अनेक बातों को 1935 ई. के अधिनियम में अपनाया गया।
बारदोली सत्याग्रह
गुजरात स्थित बारदौली के किसानों को जब जमीदारों द्वारा अधिक लगान
वसूल कर उत्पीडि़त किया तो लौह पुरूष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने सन 1928 में किसानों
को संगठित कर सत्याग्रह किया।
लाहौर अधिवेशन और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग (1929)
1929 में हुए लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया था, अतः लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव स्वीकार किया गया। 31 दिसम्बर 1929 की रात्रि के 12 बजे कांग्रेस ने भारत का तिरंगा झण्डा फहराया और कांग्रेस कमेटी को अधिकार दिया कि वह उपयुक्त अवसर पर सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ कर दे। यह भी तय किया गया कि प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस मनाया जाए। यही कारण है कि 26 जनवरी का दिन भारतीय इतिहास में विशेष महत्व का माना जाता है। आगे चलकर भारत का नवनिर्मित संविधान भी 26 जनवरी को ही लागू किया गया और 26 जनवरी का दिन गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
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