MP Ke Lokaakhyan | मध्यप्रदेश में लोक आख्यान
मध्यप्रदेश में लोक आख्यान |
मध्यप्रदेश में लोक आख्यान Lokaakhyan of MP
लोक आख्यान क्या होता है ?
आख्यानः यश की घोषणा
लोक (संसार) में हर समय कवित यशस्वी पात्रों को
खोजा करते हैं। अगर ये पात्र उन्हें अपने समय में नहीं मिलते, तो वे इतिहास जाकर उनकी गाथा खोज
निकालते हैं और अपने समय का आख्यान रचते हैं। आख्यान यश की घोषणा है।
छोटे-छोटे वैदिक गीतों के रूप में प्राचीन काल
से गाथाएँ गायी जा रही हैं। जिनमें कोई न कोई आख्यान कथा रूप में हुआ करता है। इसी तहर बोलियों में गाये
जाने वाले छोटे-छोटे लोकगीतों में आख्यानात्मक
कथानक होते हैं। लोक में ‘जस‘ यानी यश गाने की परम्परा सबसे पुरानी
है जिसमें चरित नायकों का स्तुति के रूप में यश गाया जाता है। ये लोक कथाएँ
लोककण्ठ में बसकर निरन्तर विस्त त होती
रहती है। और यश का आख्यान करती रहती हैं। लोक गाथाकार उन्हें नये-नये वाचिक रूपों
में रचते हैं। यही कारण है कि लोक गाथाओं का कोई एक पाठ सुनिश्चत करना कठिन मालूम
पड़ता है।
मध्यप्रदेश के प्रमुख लोक आख्यान
1- कारसदेव
‘के भये कनैया,
कै भये कारस, जिन्नें गइयन की राखी लाज हो।....
कारसदेव लोक आख्यान बुंदेलखण्ड में गूजर जाति
के लोगों में सदियों से प्रचलित है। बुंदेलखण्ड में गुजर जाति के लोग पुशपालन का
काम सदियों से करते आ रहे है। गूजरों ने चन्देलों से पहले बुदेलखंड जनपद में राज्य
किया। वे चम्बल और केन नदी के बीच चरागाहों में बसेरा करते थे। इन्हीं गुजरों में
राजू गूजर का नाम आता है जिनके कुल मे कारसदेव का अवतरण हुआ। गोधन के रक्षक के
कारसदेव को लोकदवेता मान लिया गया।
कारसदेव गाथा यूं आरंभ होती है- हाथियों के
बढ़ने से राजा कहा जाता है और पशुधन के बढ़ने से गढ़राझौर के गूजर।
कारसदेव गायें चराने वालों के लोक देवता के रूप
में प्रतिष्ठित हैं। गांवों में उनके चबूतरे पाये जाते हैं और उन्हीं चबूतरों के
सामने यह गाथा गाकर कारसदेव को प्रसन्न किया जाता है। वह गाथा छोटे-छोटे प्रसंगो
में गाई जाती है और प्रत्येक प्रसंग को गोट कहा जाता है। कहतें है कि यदि एक गोट
गाने में किसी व्यक्ति में कारसदेव का भाव आ जाता है तो फिर दूसरी गोट नहीं गाते।
बुन्देलखण्ड में गाये जाने वाले दिवारी गीतों में कारसदेव का आख्यान गूंजता है।
कारसदेव की गाथा का आख्यानकर्ता अज्ञात है।
2-आल्हा
आल्हा-ऊदल बड़े सूरमा, जिनमें हार गई तरवार.....
बुंदेलखण्ड की गोचारण संस्कृति के गोचरों की
यात्रा करते हए जब चारण संस्कृति के द्वार पर आते हैं तो हमें लोक महाकाव्य आल्हा
की यह घोषणा सुनायी देती है-
बाहर बरस लै कूकर जीएं, और तेरह लै जिएं सियारबरस अठार छत्री जीएँ आगे जीवन कौ धिक्कार
आल्हा दो तरह से गाया जाता है एक तो पाठ के रूप
में और दूसरा संगीत के साथ। जिस तरह रामचरितमानस को बिना संगीत के पाठ किया जाता
है। आल्हा गाथा का नाम ही इसका छन्द है तभी इसे आल्ह छन्द कहते हैं। यह एक लोक
छन्द के रूप में प्रसिद्ध हो गया है।
आल्हा का उद्गम प्राचीन देवी गीतों से है। इन गीतों को पंवारा भी कहा जाता
है। पंवारों में छोटी-छोटी वीर गाथाएँ रहती हैं। आल्हा में अनेक वीरगाथाएँ हैं।
कहते हैं कि- बावन लड़ाईयों का वर्णन मिलता है लेकिन खोजने पर प्रमाणिक रूप से अभी
पन्द्रह गाथाएँ ही मिली हैं। आल्हा की रचना का समय हिन्दी का वीरगाथा काल है।
यही वह समय है जब कालिंजर में चंदेल राजा
परमर्दिदेव हुए, जिन्हें परमाल भी कहा जाता है। उन्हीं
के राज्य में जागनिक नाम के कवि हुए जो स्वयं शूरवीर और राजा के परमर्शदाता थे।
उन्होंने महोबा के दो वीरों आल्हा और ऊदल के चरित के रूप में यह वीर काव्य रचां
जिस तरह राजा परमाल की ऐतिहासिक महत्ता स्वीकार की जाती है उस तरह आल्हा-ऊदल की नहीं। आल्हा काव्य के केन्द्र में ऐतिहासिक
नायक परमाल नहीं है।
3-धर्मासाँवरी
सुख-दुख की मरुली.....
सुख-दुख की मुरली बजाती एक गाथा धर्मासाँवरी की
है। जैसे अनेक लोक गाथाओं में प्रक्षपेण हुआ है वे इसमें भी हैं ओर गाथ कुछ भटकी
सी जान पड़ती ह। पर यह गाथा बड़ी दिलचस्प है, जो कहती है कि जरूरी नहीं, तुम्हारा न्याय इस जन्म हो जाये। राजा के आदेश अगले जन्म ही पीछा
करते हैं। धर्मासाँवरी गाथा इस तरह प्रारंभ होती है-
लागी हैं दुआरो अब बीजा बन में रे
भैया बैटी चिरैया मोरे राम...
धर्मासांवरी एक चिड़िया की कहानी है जिसमें
चिड़िया राजा के फैसले से निराश होकर मर जाती है और अगले जन्म वे वह चिड़िया राजा
बाणासु के यहां जन्म लेती है। वह अब धर्मासांवरी कहलायी। कथा में पुरूष प्रधान
समाज के निर्णयों पर कटाक्ष है जो महिलाओं के जीवन को जन्म-जन्मों तक प्रभावित
करते हैं।
4-हरदौला
इतिहास से निकलकर देवत्व की यात्रा
आख्यान और जीवन साथ-साथ चलते हैं - जीवन की
घोषणा के लिए आख्यान चाहिए और आख्यान की रचना के लिए भरा पूरा जीवन चाहिए। जैसे
जीवन उसी तरह आख्यान एक निरन्तर रचना प्रक्रिया से गुजरते हैं। कितना सारा जीवन
बीत जाता है, तब कहीं जाकर वह आख्यात में जगह पाता
है। कई चरित नायक ऐसे होते हैं जिन्हें इतिहास से लोक आख्यान तक की यात्रा में
सदिया बीत जाती हैं।
एक ऐसी बुंदेली गाथा है ओरछा नरेश के भाई हरदौल
से जुड़ी है। वह अभी गीतों में रची-बसी है और पिछले तीन सौ वर्षों से गाथा बनने की
प्रक्रिया में है। कथा सिर्फ इतनी है कि हरदौल अपनी भाभी के प्रति वैसा ही आदर
रखते हैं जैसे लक्ष्मण जी सीता के प्रति मर्यादा का आचरण करते हैं। पर कान भरने पर
राजा अपने भाई पर ही संदेह करने लगते हैं और आज्ञा देते हैं कि यदि हरदौल का मन
साफ है तो वे अपनी भाभी के के हाथों से बनाया हुआ विषाक्त भोजन ग्रहण करें। हरदौल
भाभी के हाथ का बनाया भोजन करते हैं और अमरता के मार्ग पर चल पड़ते हैं।
बुंदेलखण्ड के गांवो में हरदौल के चबुतरे बन
गये हैं दूल्हा-दुल्हन विवाह के बाद हरदौल का आर्शीवाद लेने उनके चबूतरों पर जाते
हैं। स्त्रियां गीत गाती हैं-
‘नजरियों के सामने तुम हरदम लाला रैयो, जैसे प्रीत करती भौजी से, ऊंसई सबै निभैयो।‘
5- वसुदेवा का गीत
पाई पुण्य गंगा की जायें, कै हरे मोरे राम...
कहते हैं कि किसी पुराने समय में मात्र पुजा ही
काफी थी। फिर उसका विस्तार यज्ञों के रूप में हुआ और फिर कर्म की कुशलता को ही योग
कहा गया। पूजा, यज्ञ और योग में बिरलों को ही साधना
फलीभूत होती देखकर बाकी बचे लोगों को गुणगान का सहारा ही उत्तम कहा गया। तभी नाम
जप की महिमा गायी गई। जब अपना कोई यश न हो तो उसे बढ़ाने के लिए पहले हो गये
महापुरूषों का यश गाकर ही अपना काम चलना पड़ाता है। यही यश मार्ग दिखाता है।
बघेलखण्ड और बुन्देलखण्ड में पाये जाने वाले
वसुदेवा बड़े सबेरे दान की महिमा और दानियों का यश गाकर गाॅव-गाॅव सबको जगाया करते
हैं। वे हरिशचन्द्र, गर्ण, और राजा मोरध्वज की गाथा गाते हैं। वे सि द्वार पर दान मांगने जाते
हैं उसे घर मालिक को पहले हो गये महादानी राजाओं की महिमा से जोड़ देते हैं। वे
उसके दान की महिमा को भी गाने लगते है। वसुदेवा दानियों के यश को गाते हुए-‘हरे मोर राम‘ औ ‘जय गंगा‘ की टेक का प्रयोग करते हैं।
वसुदेवाओं को ‘हरबोले‘ भी कहा जाता है क्योंकि उनकी टेक ‘जय हरि बोल‘ की भी होती है। हरबोले के नाम का स्मरण
कवियत्री सुभद्रा कुमारी चैहान ने अपनी कविता ‘झांसी की रानी‘ में
किया है - ‘बुन्देले हरबोलों के मुख से हमने सुनी
कहानी थी.......।
6- काठी भगत
कहो ते हम गाॅवा रे रजा राम हरिचन्द
संत सिंगाजी की भूमि निमाड़ अंचल के गाठी गायक
भी वसुदेवाओं से काफी मिलते-जुलते हैं हालूकि निमाड़ का काठी गायन लोकनाट्य और
नृत्य रूप में भी पहचाना जाता है।
कहते हैं कि गुजरात के कच्छ काठियावाड़ में काठी
नामक जाति ही थी। इस जाति के लोगों द्वारा विवाह के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य
इतना लोक प्रसिद्ध हुआ कि राजा ने अपने राज्य का नाम ही काठियावाड़ रख दिया। काठी
गायन और उसका लोक नाट्य काठियावाड़ से ही निमाड़ में आया। काठी पार्वती की पूजा का
लोक अनुष्ठान है जो देव प्रबोधिनी एकादशी से प्रारंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलता
है। काठी एक यात्रा है जो निमाड़ के गांवो में चार महीने तक चलती है। इसमें नृतय, नाट्य और गाथा तीनों का समावेश है।
ध्वाजा चढ़ाकर काठी दल निकलते हैं, जिन्हें
भगत कहते हैं। ये दोनों भगत काठी नृत्य भी करते हैं। काठी माता इनके साथ चलती है
जिसे एक भगत लिये चलता रहता है और दूसरा भगत थाली बजाता है। निमाड़ी काठी गायान में
शिव पार्वती की केन्द्रीय भूमिका है।
7-जोगी राजा भर्तृहरि
मालवा में लोक आख्यान की चर्चा राजा भर्तृहरि
के स्मरण से करना चाहिए। वे विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। उन्होंने नीति, श्रृंगार और वैराग्य शतक रचकर सहृदयों
का मन मोह लिया है। व्याकरण दर्शन पर उन्होंने वाक्यपदीय की रचना की। वे पातंजल
महाभाष्य के टीकाकार के रूप में भी जाने जाते है। उनकी रानी पिंगला नाम से
प्रसिद्ध हैं जो तंत्र की ज्ञाता थीं। बारह वर्ष तक राज्य करने के बाद राजा
भर्तृहरि सन्यासाी हो गये। भारत की अनेक
लोक भाषाओं के काव्य में राजा भर्तृहरि का यश गाया जाता है।
जैसे बडे़े सबेरे बुन्देलखण्ड और बघेलखण्ड के
गांवों में वसुदेवा राजा हरिशचन्द्र की गाथा गाते हुए सबको जगाया करते हैं। ऐसे ही
मालवा के गांवो में नाथ पंथ के जोगी राजा भरथरी की गाथा गाया करते थे। गले में
सेली, कंधे पर सिंगी और हाथ में चिकारा लिए
ये जागी भिक्षा माॅगा करते थे।
मालवा का भरथरी गायन कुछ इस प्रकार है ‘ कागज पर लिखा तो बाॅचा जा सकता है पर
किस्मत का लिखा नहीं बाॅचा जाता‘
कागद होवे तो राणी वाॅचला जीकरम वाॅचो नी जावे राणी पिंगला जी।
8- तेजा जी का तेजस्व
लोक गाथाओं के नायक सदियो से एक से दूसरे जनपद
में आवाजाही करते रहे हैं। लोक विश्वासों के विस्तार में हमेशा भौगोलिक सीमाएं
छोटी पड़ती रही हैं। तेरहवी सदीं के आसपास राजस्थान से मालवा में तेजा जी का
शुभागमन हुआ और वे भी अपनी गाथा के साथ मालवा के कण्ठ में रच बस गये हैं।
सत्यवान तेजा जी वैसे तो ऐतिहासिक नायक हैं पर
जिस तरह राजस्थान में,उसी रतहा मालवा में लोक देवता के रूप
में समादृत हैं। कहते हैं कि राजस्थान की खरनाल रियासत के राजा ताड़ के यहाँ कोई
संतान न होने पर राजा ने दूसरा विवाह किया। उनकी पहली रानी लक्ष्मी मायके चले गई।
उसने बारह वर्ष तक तक्षक नाग की पूजा की । नाग पंचमी के दिन लुटेरों ने गाॅव की
सारी गायें चुरा ली। उस दिन गांव में दुध नहीं मिला। तब रानी ने अपना स्तन काटकर
दूध निकला और तक्षक नाग की पूजा की। तक्षक
के आर्शीवाद से रानी लक्ष्मी के गर्भ से तेज कुँवर (तेजाजी) का जन्म हुआ मालवा के
लोकनाट्य में तेजाजी की जीवन गाथा को गाते और अभिनीत करते हैं।
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