MP PSC MAINS ANSWER WRITING Paper 1 | इतिहास-भाग 03
अति लघुत्तरीय प्रशन
1. लंक बटाई
2. तुजुक-ए-बाबरी
3. जगन्नाथ
4. चकला
5. खैरूल मनाजिन
6. अधमं खां
7. वितक्ची
8. मीर जुमला
9. मुल्ला मुहम्मद याजदी
10. मजनूखां काकशाह
11. मुन्तखंब-उत-तवारीख
12. कारकून
13. पोलज
14. परती
15. चाचर
16. बंजर
लंक बटाई
यह राजस्व निर्धारण की एक प्रणाली थी। जिसमें फसल
काटने के बाद उसे खलिहान में लाया जाता था और अनाज निकाले बिना ही उस राज्य और
किसान में बांटा जाता था।
तुजुल-ए-बाबरी
यह मुगल वंश के संस्थापक बाबर की आत्मकथा है। यह
तुर्की भाषा में लिखी गयी पुस्तक है।
जगन्नाथ
ये संस्कृत के महान कवि थे। जिन्हें शाहजहाँ ने ‘ महाकवि राय‘ की उपाधि से विभूषित किया था।
चकला
यह मुगल काल में सरकार और परगने के बीच की इकाई
थी। यह इकाई शाहजहाँ ने बनायी थी।
खैरूल मनाजिन
यह एक मदरसा था। इसका निर्माण अकबर की धाय मां
माहम अनगा ने दिल्ली में करवाया था।
अधम खां
यह माहम अनगा का पुत्र था। इसे अकबर ने स्वयं मारा
था।
वितक्ची
यह मुगल प्रशासन ने अमलगुजार के बाद सरकार में
राजस्व विभाग का दूसरा मुख्य अधिकारी था। इसका कार्य भूमि लगान आदि का ब्यौरा रखना
होता था।
मीरा जुमला
यह गोलकुण्डा का प्रधानमंत्री था। औरंमजेब इसे
अपना गुरू मानता था।
मुल्ला मुहम्मद याजदी
यह जौनपुर का एक काजी था। इसने मुगल बादशाह अकबर
के विरूद्ध फतवा जारी किया था।
मजनूखां काकशाह
यह अकबर का एक सेनापति था। इसने 1569 ई. में कालिंजर अभियान किया। उस समय वहां का राजा
रामचंद्र था।
मुन्तखब-उत-तवारीख
इस पुस्तक की रचना बदायूँनी ने की थी। इसमें बदायूँ
ने हल्दीघाटी के युद्ध का आँखों देखा विवरण बताया है।
कारकून
मुगल प्रशासन में यह परगने का एक कर्मचारी था।
इसका काम परगने के हिसाब-किताब को लिखना होता था।
पोलज
यह उपज के आधार पर भूमि की एक श्रेणी थी। वह भूमि
होती थी जिसमें हर साल खेती की जाती थी।
परती
मुगल काल में यह भूमि का एक प्रकार था। ऐसी भूमि
जिसमें एक वर्ष के अंतराल पर खेती की जाती थी, उसे परती भूमि कहा जाता था।
चाचर
ऐसी भूमि जिस पर दो साल से चार साल तक खेती नहीं
की जाती थी। उसे मुगलों ने चाचर भूमि के अतंर्गत रखा था।
बंजर
उपज के आधार पर यह भूमि की एक श्रेणी थी। इसमें वह
भूमि आती थी,
जिसे पांच साल या उससे अधिक
समय तक खेती के काम में नहीं लाया जाता था।
लघु उत्तरीय प्रश्न
बुलंद दरवाजा
यह वर्तमान में उत्तरप्रदेश राज्य में आगरा के
समीप स्थित है। मुगल बादशाह अकबर के काल में यहाँ एक सूफी संत रहतें थे, जिनका नाम शेख सलीम चिश्ती था। अकबर को शेख सलीम
चिश्ती की दुआ से ही पुत्र की प्राप्ति हुई। बादशाह ने शेख सलीम चिश्ती के नाम पर
ही अपने पुत्र का नाम ‘ सलीम‘ रखा। यही सलीम आगे चलकर अकबर का उत्तराधिकारी बना
और ‘ जहांगीर के नाम से गद्दी पर बैठा। गुजरात विजय
अभियान से लौटने के बाद अकबर ने यहाँ अनेक इमारतों का निर्माण करवाया, जिसमे बुलंद दरवाजा, शेख सलीम चिश्ती का मकबरा, जामा मस्जिद इबादतखाना, बीरबल का महल आदि नाम उल्लेखनीय हैं।
पुरन्दर की संधि (1665)
मुगलों की तरफ से जयसिंह और शिवाजही के मध्य सन् 1665 ई. में पुरन्दर की संधि हुयी थी। इस संधि के तहत
शिवाजी को उपने तेईस किले मुगलों को सौंपने पड़े और कुछ ही किले शिवाजी के पास
जागीर के रूप में रहे। 1666 ई.
में शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा गए। बादशाह के दरबार में नियमों का उल्लंधन करने
के कारण शिवाजी को आगरा में गिरफ्तार कर लिया गया। अंततः शिवाजी सैनिकों को चकमा
देकर कैद से निकलने में सफल हो जाते हैं।
देवराय द्वितीय
यह विजयनगर साम्राज्य का शासक था। देवराय द्वितीय
ने गजबेटकर की उपाधि ग्रहण की। इसके शासनकाल में ईरान के शासक मिर्जा शाहरूख के
राजदूत अब्दुर्रजाक ने विजयनगर की यात्रा की। इसकी अन्य उपाधियों में प्रौढ़
देवराय, इम्मादि देव हैं। जिसने बड़े पैमाने पर सेना में
मुस्लिम सैनिकों की नियुक्ति की। सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए देवराय
द्वितीय ने अपनी सेना में तुर्की धनुर्धरों को भर्ती किया और उन्हें जागीरें
प्रदान कीं। देवराय द्वितीय धार्मिक दृष्टिकोण से सहिष्गु था। उसने तुर्की
धनुर्धरों को सेना में शामिल करने के बाद उनके लिए मस्जिदों का निर्माण करवाया।
जजिया
यह एक प्रकार का ‘कर‘ था, जो गैर मुसलमानों पर लगाया जाता था। इसे सबसे पहले
मीर कासिम ने लगाया। यह कर स्त्रियों, बच्चों, ब्राह्मणों
तथा वृद्धों से नही लिया जाता था, लेकिन
सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने ब्राह्मणों से भी जजिया वसूल किया। 1564 ई. में मुगल सम्राट अकबर ने जजिया कर को समाप्त कर
दिया। कालांतर में औरंगजेब ने 1679 में
पुनः जजिया लागू कर दिया।
बरन
उत्तरप्रदेश के आधुनिक ‘ बुलंदशहर‘ की पहचान प्राचीन बरन के रूप में की जाती थी। फुतुहात-ए-फिरोजशाही का
लेखक जियाउद्दीन बरनी , इसी बरन
नगर का ही निवासी था। अनुश्रुतियों के अनुसार अर्जुन के प्रपौत्र जनमेजय ने इस नगर
को बसाया था। पूर्व मध्यकाल में राजपूत राजाओं ने यहाँ गजवनी को कड़ी टक्कर दी। कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1193के आस-पास यहाँ के राजा को हराया था।
खानवा का युद्ध
यह युद्ध बाबर और राणा सांगा के मध्य 1527 ई. में लड़ा गया। इस युद्ध से पहले बाबर ने अपने
सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए जेहाद का नारा दिया। बाबर ने सबके सामने अपने शराब
के पात्रों को तोड़ दिया और मुसलमानों को तमगा नामक व्यापारिक कर से मुक्त कर
दिया। खानवा के इस युद्ध में बाबर विजयी हुआ। पानीपत पहले युद्ध के बाद बाबर का भारत में यह दूसरा
प्रमुख युद्ध था।
तालीकोटा का युद्ध
यह युद्ध अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुण्डा
और बीदर की संयुक्त सेनाओं तथा विजयनगर के बीच लड़ा गया। यह युद्ध 1565 ई. में हुआ। इस युद्ध को समय विजयनगर का शासक
सदाशिवराय था। इस युद्ध से बरार अलग रहा, क्योंकि बरार और गोलकुण्डा के बीच शत्रुता थी। इस युद्ध में विजयनगर
की तरफ से युद्ध करते हुए रामराय मारा गया। इस युद्ध को ‘राक्षस-तांगड़ी ‘ के युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। तालीकोटा के युद्ध के तुरन्त
बाद एक विदेशी यात्री सीजर फ्रेडरिक ने विजयनगर की यात्रा की और स्थिति का वर्णन
किया। इस युद्ध के बाद ‘ अरविडु
वंश‘ स्थापित हुआ।
शेरशाह
1540 में कन्नौज या बिलगा्रम के युद्ध के बाद शेरशाह ने
बादशाह की उपाधि ली और शासक बना। शेरशाह के बपचन का नाम ‘ फरीद ‘ था। शेरशाह ने जौनपुर से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद सासाराम की
जागीर की
देखभाल शुरू कर दी। दक्षिण
बिहार के सूबेदार बहारखां लोहानी ने इसकी योग्यता से प्रभावित होकर इसे ‘ शेर खां‘ की उपाधि दी और अपने पुत्र का संरक्षक नियुक्त किया। शेहशाह, बाबर के साथ चंदेरी के युद्ध में शामिल रहा।
शेरशाह ने एक राजकीय मार्ग का निर्माण करवाया था। जो ग्राण्ड टंªक ( जीटी ) रोड के नाम से जाना जाता है। उसने
सड़कों के किनारे छायादार पेड़ लगवाए। शेरशाह ने राहगीरों के लिए बहुत सी सरायों
का निर्माण भी करवाया। सरायों को साम्राज्य की धमश्री कहा जाता था।
हरिहर प्रथम
इसके द्वारा स्थापित वंश करे संगम वंश के नाम से
जाना जाता हैै। हरिहर के पिता का नाम संगम था। अतः यह संगम वंश कहलाया। इसकी पहले
राजधानी तुंगभद्रा तट पर स्थित अनेगोंडी थी। बाद में उसने विजयनगर को अपनी राजधानी
के रूप में प्रतिस्थापित प्रणाली की रूपरेखा तैयार की। उसने राज्य में कृषि के
विकास के लिए भी कार्य किया। विजयनगर के ध्वंसावशेष आज के हम्पी में मिलते हैं।
इसकी मृत्यु के बाद बुक्का प्रथम राजा बना।
एंटोनी मांसेराट
यह फादर एक्वाविवा के साथ लगभग 1578 ई. में मुगल बादशाह अकबर के दरबार में आया था।
मांसेराट ने अपनी यात्रा का विवरण प्रस्तुत किया है। इसे शहजादा मुराद का शिक्षक
नियुक्त किया गया था। मांसेराट के अनुसार उस समय शहजादों और शहजादियों की शिक्षा
पर अधिक ध्यान दिया जाता था। उसने उन शहरों के बारे में विस्तार से लिखा है, जिन शहरों और मार्गों से होकर उसने यात्रा की।
मांसेराट ने माण्ड, सूरत
सिरोंज, दिल्ली, ग्वालियर, पानीपत, लाहौर समेत अन्य शहरों का विवरण दिया है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न: बाबरनामा पर ऐतिहासिक स्त्रोत के संदर्भ में एक संक्षिप्त निबंध लिखिए?
उत्तर: अगर ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो बाबरनामा
की महत्ता दो प्रमुख बातों में निहित मिलती है। पहला, बाबर का फरगना और अपने पूर्वजों के सम्बन्ध में
विवरण तथा दूसरा, बाबर का
भारत में अनुभव। बाबर ने इसमें अपनी मनोदशाओं और भारत के अनुभवों का वर्णन किया
है। बाबर की इस कृति को तुर्की काव्य शैली की एक महत्वपूर्ण रचना मानी गयी है। इस
ग्रंथ को सामान्यः ‘ तुजुक-ए-बाबरी‘ के नाम से भी जाना जाता है। अकबर के समय में इसका
फारसी अनुवाद हुआ और इसे ‘बाबरनामा
के नाम से जाना गया। बाबर ने इस आत्मकथा में अपने जीवन की शुरूआती कठिनाईयों का
वर्णन किया है। इसके साथ ही साथ उसने बाबरनामा में फरगना के प्राकृतिक सौंदर्य और
वहां के वातावरण को भी उद्धृत किया है। बाबर ने अपने गंन्थ में यहाँ ( भारत ) की
जलवायु खासकर गर्म वातावरण की निंदा की है। उसे भारत में उद्यानों और कृत्रिम
फव्वारों का पूर्णतः अभाव दिखता है। बाबर ने ग्वालियर में बने राजा मानसिंह तोमर
के दुर्ग का विवरण प्रस्तुत किया है। बाबर इसकी मजबूत वास्तु रचना को देखकर बहुत
प्रभावित होता है। अगर हम मुगलकाल में राजकीय संरक्षण में लिखे गए इतिहास से
बाबरनामा की तुलना करें, तो यह
गं्रथ ज्यादा इतिहासपरक नहीं जान पड़ता, लेकिन अगर एक बादशाह द्वारा उसकी अनुभूतियों का सवाल है, तो यह गं्रथ निःसंदेह महत्वपूर्ण है।
प्रश्न: मनसबदारी व्यवस्था पर टिप्पणी ?
उत्तर: मनसबदारी व्यवस्था का प्रचलन मुगल शासक
अकबर द्वारा किया गया। यह एक विशिष्ट प्रशानिक व्यवस्था थी। मनसबदारी व्यवस्था
मुगल साम्राज्य की सैनिक और सिविल सेवाओं का आधार थी। अकबर के शासन के ग्यारहवें
वर्ष में पहली बार हमें मनसब दिए जाने का उल्लेख मिलता है। इससे मुगलों के प्रशासन
की सेवाओं के क्रम में किसी व्यक्ति अथवा अमीर की स्थिति का आभास होता था। यह कोई
पदवी नहीं थी। मनसबदारी व्यवस्था से ही ‘ जात और
सवार‘ का सम्बन्ध है। जात से व्यक्ति के वेतन और पद का
बोध होता था,
जबकि सवार से मनसब की
श्रेणी का बोध होता था।
अबुल फजल ने अपने ग्रन्थ आइने-अकबरी में मनसब की 66 श्रेणियों का उल्लेख किया है, लेकिन व्यवहार में 33 श्रेणियों में ही मनसब प्रदान किये जाते थे। सभी मनसबदारों द्वारा
अपने सैनिक दस्तों की व्यवस्था स्वयं की अलग-अलग की जाती थी। निम्न श्रेणी के
मनसबदारों के निर्देशन में कार्य करना होता था, परंतु वे उनके अधीन नहीं थे। सबसे बड़ा मनसब राजकुमारों तथा कुछ
विशिष्ट व्यक्तियों को ही दिया जाता था। कालान्तर में अकबर के उत्तराधिकारियों ने
इसमें कुछ परिवर्तन भी किये।
जहांगीर के समय में सवार के पद में बदलाव हुआ और
दु-अस्पा तथा सिह-अस्पा की व्यवस्था में सवार पद में अप्रद्यत्यक्ष रूप से
बढ़ोत्तरी करके किसी मनसबदार के पद-प्रतिष्ठा में वृद्धि की जाती थी। आगे चलकर
शहजादों के मनसब में भी वृद्धि की गयी। शाहजहाँ ने जागीरों की वास्तविक वसूली के
आधार पर शिशमाहा और सीमाहा जागीरों को शुरू किया। इस व्यवस्था के अनुसार अगर किसी
जागीर से पचास प्रतिशत राजस्व वसूली होती थी, तो उसे शिशमाहा जागीर माना जाता था और यदि वसूली कुल जमा की
एक-चौड़ाई होती थी, तो
वह जागीर सीमाही मानी जाती थी।
यह सत्य है कि मनसबदारी व्यवस्था ने मुगल
साम्राज्य के विस्तार में प्रमुख भूमिका निभायी .
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