पर्यावरण प्रदूषण | पर्यावरण प्रदूषण प्रकार कारण एवं निवारण
पर्यावरण प्रदूषण Environment Pollution
परिचय
प्रदूषण की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने
भिन्न-भिन्न दी है फिर भी प्रदूषण की एक परिभाषा जिस पर अधिकतर वैज्ञानिक सहमत हैं, निम्न प्रकार है-
‘‘पर्यावरण प्रदूषण एक ऐसी परिस्थिति है जिसमें जैविक पदार्थों एवं
मानव का जीवन दुर्लभ हो जाये। पर्यावरण के प्रदूषण के लिए बहुत हद तक मानव स्वयं
जिम्मेदार है।‘‘
मेलानबी महोदय के अनुसार पर्यावरण प्रदूषण
भौतिक कारणों से हो सकता है, परंतु
1779 के औद्योगिक क्रांति के पश्चात
हानिकारक गैसों का उत्सर्जन मानव के द्वारा होता रहा है। दुःखद बात यह है कि
हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में निरंतर वृद्धि होती जा रही है।
वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर समस्या
है। वायु, जल तथा मृदा, मानव जीवन तथा अन्य सभी जीवों के लिए
अनिवार्य है। यदि प्रदूूषण एक सीमा को पार कर जाये तो लोगों की मौत भी हो सकती है।
मृदा प्रदूषण से कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल घट सकता है तथा जल प्रदूषण से
महामारी फैल सकती है । इसलिए पर्यावरण
प्रदूषण के बारे में लोक जन में जानकारी बढ़ाना अनिवार्य है।
प्रदूषण तत्व Pollutants
प्रदूषण बढ़ाने वाले तत्वों को निम्न वर्गों
में विभाजित किया जा सकता है-
1- प्रदूषण तत्वों को स्त्रोत के आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया जा
सकता है।
- प्राकृतिक प्रदूषण तत्व
- मानव द्वारा उत्पादित प्रदूषण तत्व
2- अवलोकन केे आधार पर
- नजर आने वाले प्रदूषण तत्व- जैसे- धुआँ,धुल तथा गैस
- नजर न आने वाले प्रदूषण तत्व, जैसे सूक्षम प्राणी, बैक्टेरिया, जहरीले रसायनिक पदार्थ का जल एवं वायु में मिश्रण
3- प्रदूषण तत्वों को ठोस, तरल एवं गैस के आधार पर भी विभाजित किया जा सकता है।
4- प्रदूषण निम्न प्रकार का भी हो सकता है
- भौतिक प्रदूषण
- सांस्कृतिक प्रदूषण
- जैविक प्रदूषण
सभी प्रकार के प्रदूषण तत्व जीव रसायन
प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं। कुछ
प्रदूषण तत्व तो शरीर के अंगो को कमजोर करते हैं जबकि कुछ के कारण तत्काल मृत्यु
हो जाती है। उदाहरण के लिए हाइड्रोकार्बन से कुछ जीव जैसे डाइटम की भोजन उत्पादन
शक्ति कमजोर हो जाती है, जबकि रासायनिक खाद के उपयोग से यह खाद
जलाशयों तथा नदियों में खरपतवार की मात्रा में वृद्धि करता है, जबकि पेट्रोलियम प्रदूषण से जूप्लेंकटन
पक्षियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
प्रदूषण का प्रभाव तो प्रतिकूल होता ही है, इसके स्थायित्व में भी विविधता पाई
जाती है। कुछ प्रदूषण तत्व कुछ मिनटों के लिए होता है तो कुछ पर्यावरण में हजारों
वर्ष तक रहते हैं। इसलिए इनका जैव तथा पशु पक्षियों पर भिन्न-भिन्न प्रतिकूल
प्रभाव पड़ता है।
पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रकार Type of Pollution
मूदा प्रदूषण Soil Pollution
मृदा की गुणवत्ता में प्राकृतिक एवं मानवीय
कारणों से कमी आने को मृदा प्रदूषण कहा जाता है। मृदा प्थ्वी की ऊपरी सतह पर फैला
संसाधन है जिसमें जैविक एवं अजैविक पदार्थों का मिश्रण पाया जाता है। मृदा की
उर्वरता के ह्यस के निम्न कारण हैं-
1-भौतिक प्रक्रिया
- मृदा अपरदन, उसकी उर्वरता कम होने का एक प्रमुख कारण कहा जाता है। मृदा अपरदन की मात्रा एवं विस्तार, बहत हद तक वर्षा की मात्रा, तापमान, भूमि की ढ़लान, वायु की गति तथा प्राकृतिक वनस्पति पर निर्भर करता है। जंगलों को काटने से मृदा अपरदन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है।
2- जैविक प्रक्रिया
- सूक्ष्म जीव दो प्रकार के होते हैं- एक तो ऐसे हैं जिनसे मृदा की उर्वरकता बढ़ती है तथा दूसरे ऐसे जिनसे उपजाऊपन में कमी आती है। यदि मृदा में ह्यस करने वाले सूक्ष्म जैविकों की बहुतायत हो जाये तो मृदा के उपजाऊपन में कमी आ जाती है।
3- वायु आधारित स्त्रोत
- धुएँ से वायुमंडल में बहुत से हानिकारक तत्व प्रवेश कर जाते हैं। वायु से बहुत से वैषिक पदार्थ खेतों में गिरते हैं जिससे मृदा की उर्वरकता कम हो जाती है।
4-रासायनिक खाद एवं कीटाणुनाशक दवाइयों का प्रयोग
- कृषि की फसलों में रासायनिक खाद तथा कीटाणुनाशक दवाइयों का इस्तेमाल करने से बहुत से उपयोगी सुक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं, जिससे मृदा के उपजाऊपन का ह्यस हो जाता है।
5-औद्योगिक एवं नगरीय कूड़ा-करकट
- औद्योगिक एवं नगरीय कूड़ा-करकट के ठीक तौर पर प्रबंधन न करने से भी मृदा प्रदूषण की संभावना बढ़ जाती है।
मृदा प्रदूषण के परिणाम
मानव जीवन के टिकाऊ विकास के लिए मृदा का
स्वस्थ्य अवस्था में रहना अनिवार्य है। यदि मृदा प्रदूषित हो तो उसके बहुत दूरगामी
प्रतिकूल प्रभाव हो सकते हैं। कुछ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रतिकूल प्रभाव निम्न प्रकार हैं-
- कृषि क्षेत्रफल में कमी हो जाएगी।
- नाइट्रोजन स्थिरीकरण में कमी आएगी।
- लवणता में वृद्धि हो जाएगी।
- जैव विधिवता में कमी आएगी
- रासायनिक पदार्थ एवं कीटनाशक दवाईयाँ जिनका उपयोग फसल को उगाने में किया गया है वह आहार श्रृखंला के द्वारा मानव एवं पशु-पक्षियों के शरीर में प्रवेश कर जाता है जिसके कारण बहुत सी बीमारियाँ फैलती हैं तथा उसकी मृत्यु हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष लगभग सात लाख व्यक्तियों की मौत रासायनिक खाद तथा कीटाणुनाशक दवाइयों के फसलों में इस्तेमाल के कारण हो जाती है।
मृदा प्रदूषण नियंत्रण
- मृदा प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए निम्न उपयो बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं-
- मृदा अपरदन को नियंत्रित करना ताकि कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभावन पड़े।
- गोबर की खाद तथा हरी खाद का फसलों में अधिक प्रयोग किया जाना।
- वैज्ञानिक फसल चक्र से कृषि करना अर्थात मृदा उत्पादकता कम करने वाली फसलों के पश्चात, दलहन की फसलें उगाना ताकि मृदा की उर्वरकता बढ़ाई जा सके।
- औद्योगिक एवं नगरीय कूड़ा-करकट का उचित प्रबंधन।
- वृक्षारोपण।
- चराई पर नियंत्रण।
- संसाधनों का पुर्नउपयोग व पुनर्चक्रण।
जल प्रदूषण Water Pollution
जल के भौतिक एवं रासायनिक स्वरूप में परिवर्तन
करना ही जल प्रदूषण कहलाता है। हमारे जीवन का आधार जल है, परंतु विश्व में जल का तिवरण बहुत असमान
है। विश्व के बहुत से देशों में वर्षा केवल दो-तीन महीनों तक सीमित रहती है।
उदाहरण के लिए भारत के अधिकांश भाग में 80 प्रतिशत से अधिक वर्षा केवल वर्षा ऋतु के चार महीनों में रिकार्ड की
जाती है। ऐसी परिस्थिति में जल संचय के लिये नदियों पर बाँध बनाकर ही साल भर जल की
आपूर्ति की जा सकती है।
विश्व के विभिन्न देशों में जल की गुणवत्ता मे
भी भारी विविधता पाई जाती है। पानी में बहुत प्रकार के प्रदूषक मिले रहते हैं जो जल की महक और उसके स्वाद को
प्रभावित करते हैं। वर्षा के जल को अपेक्षाकृत शुद्ध माना जाता है, परंतु वर्षा का जल जब धरातल पर बहकर
नदी-नालों में प्रवेश करता है तो उनमें बहुत से प्रदूषण करने वाले पदार्थ का
मिश्रण हो जाता है। प्रदूषित जल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
निम्न जल
प्रदूषण के मुख्य कारण हैं-
1-गंदे पानी एवं कीचड़ का मिश्रण
- गंदे पानी तथा कीचड़ इतदि जल प्रदूषण का मुख्य कारण है। गंदे पानी में मानव व जानवरों का मलमूत्र , खाद्य अवशेष, शोधन अभिकर्ता तथा अन्य व्यर्थ के पदार्थ होते हैं। ऐसे प्रदूषित जल से बहुत सी बीमारियाँ फैलती हैं, जिनमें हैजा, पेचित बुखार, टाइफाइड इत्यादि मुख्य हैं।
2- अजैविक पदार्थ एवं खनिज
- जल में बहुत से अम्ल तथा खनिजों के तत्व भी मिल जाने से जल प्रदूषित हो जाता है। इन पदार्थों का आहार श्रृंखला में प्रवेश करने से नाना प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिनमें दिमा की बीमारी होने की आशंका बढ़ी रहती है।
3- नाइट्रेस
- जल प्रदूषण में नाइट्रेट भी प्रमुख कारण है। किसानों के द्वारा खेती में उपयोग होने वाला रासायनिक नाइट्रेट खाद जब पोखर, तालाब तथा नदियों में प्रवेश कर जाता है तो उससे जल प्रदूषण हो जाता है। भारत की अधिकतर झीलें तथा जलाश्य इससे प्रभावित हैं। धान के खेतों से बहकर भारी मात्रा में नाइट्रेट खाद का डल झील में प्रवेश करता है। जिससे झीलों का जल प्रदूषित होता है।
4-सिंथेटिक जैविक कंपाउंड
- नाना प्रकार के सिंथेटिक जैविक कंपाउंड भी जल प्रदूषण का एक मुख्य कारण हैं। औद्योगिक एवं कृषि से उत्पन्न होने वाले ऐसे कंपाउंड जे जल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता जा रहा है।
5- तेल तथा पेट्रोलियम
- तेल और पेट्रोलियम के जल में मिश्रित होने से जल की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है तथा ये प्रदूषण विशेष रूप से टेंकर तथा तेल के कुओं के द्वारा फैलता है जल एवं सागरीय प्रदूषण से परितंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
6- रेडियोएक्टिव कूड़ा-करकट
- जल प्रदूषण में रेडियोएक्टिव कूड़ा-करकट की भी प्रमुख भूमिका होती है। ऐसे हानिकारक कूड़ा-करकट मिलिट्री द्वारा निष्काषित किया जाता है।
7- विविध कारण
- ताप बिजली घरों से निकलने वाले जल से भी जल प्रदूषण होता रहता है। उपरोक्त सभी प्रदूषणों का मानव स्वास्थ्य पर खराब प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त परितंत्र बुरी तरह पड़ता है।
उद्योगों के द्वारा जल प्रदुषण
रासायनिक संयत्र, खाद्य प्रसंस्करण, आयरन
व स्टील, खनन, कागज व लुगदी,
फार्मास्यूटिकल , साबुन तथा डिटर्जेंण्ट उद्योगों से
निकलने वाले अजैविक प्रूदषक जैसे अम्ल क्षार, प्रसुप्त ठोस,
लोह सल्फेट, सल्फाइड अमोनियम कंपाउड क्षार तथा
जैविक प्रदूषक जैविक अम्ल वर्ण, उच्च
नाशकारी जैव पदार्थ तेल,फिनायल, नेप्था, सेलूलोज फाइबर, प्रोटीन, एण्टीबायोटिक्स, ग्लिसरॉल
आदि जल का अत्याधि मात्रा में प्रदूषित करते हैं।
जल प्रदूषण के प्रभाव
जल प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभाव का संक्षिप्त
विवरण निम्न प्रस्तुत किया गया है-
1.जल से उत्पन्न बीमारियाँ- बहुत सी बीमारियाँ, जैसे हैजा, पेचिस, दस्त, पीलिया, तपेदिक, टायफाइड तथा बुखार इत्यादि प्रदूषित जल
के पीने से फैलती हैं।
2. पेट की बीमारियाँ- प्रदूषित जल में कुछ ऐसे खनिज मिले होते हैं, जिनसे पेट की बीमारियाँ उत्पन्न हो
जाती हैं। पेट की बीमारी ही नहीं केंसर इत्यादि भी प्रदूषित जल के द्वारा हो सकते
हैं।
3. फेफड़ों का कैंसर- एबेस्टास रेशों से प्रदूषित जल का उपयोग यदि मानव
इस्तेमाल करे तो उसे फेफड़ों का कैंसर हो सकता है।
4. त्वचा की बीमारियाँ- जल में
जहरीले पदार्थों के द्वारा जल में अधिक प्रदूषण से त्वचा की बहुत सी बीमारियाँ हो
सकती हैं।
5. जल-परितंत्र पर प्रभाव- अम्लीय जल से जलीय परितंत्र को हानि होती है।
6. जलाशयों में अपतृण- जलाशयों में नाइट्रेट की मात्रा में वृद्धि होने
से जल में अपतृण एवं नाना प्रकार के खरपतवार उत्पन्न हो जाते हैं।
7. मृदा प्रदूषण- जल प्रदूषण से मृदा में क्षारीयता की मात्रा बढ़ जाती
है जिससे मृदा कृषि के लिए उपयोगी नहीं रह पाती।
8. सागरीय परितंत्र को हानि- यदि सागर में तेल और पेट्रोलियम से जल
प्रदूषित हो जाये तो सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र पर खराब असर पड़ता है।
जल संरक्षण
वर्तमान में विश्व के बहुत से देशों में जल की
मात्रा एवं गुणवत्ता में कमी होती जा रही है। जल की उपलब्धि एवं जल की गुणवत्ता को
बनाये रखने के लिए निम्न प्रकार के कदम उठाने की आवश्यकता है-
1. पर्यावरण शिक्षा- प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज को पर्यावरण की महत्ता
के बारे में शिक्षित करने की परम आवश्यकता है। विशेषकर लोगों में इस बात की
जागरूकता उत्पन्न करनी है कि यदि पर्यावरण का ह्यस होता रहा तो उसका पारिस्थितिकी, अर्थव्यवस्था एवं समाज पर प्रतिकूल
प्रभाव पड़ेगा।
2. औद्योगिक इकाइयों को उत्तरदायी बनाना- सभी औद्योगिक इकाइयों को
प्रदूषित जल को साफ करके निष्काषित करना चाहिए।
3. वित्तीय सहायता- सरकार को सिविक-बॉडीस को पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध
कराना चाहिए ताकि जल प्रदूषण पर नियंत्रण पाया जा सके।
4. वनरोपण- वृक्षारोपण से भी जल प्रदूषण पर नियंत्रण पाया जा सकता हैं
5. मृदा संरक्षण- मृदा अपरदन से
जल में बहुत से अजैविक पदार्थों का मिश्रण होता रहता है, इस लिए मृदा संरक्षण आवश्यक हो जाता
है।
6. कृषि में रासायनिक खादों के उपयोग में कमी करना- रासायनिक खादों के
इस्तेमाल करने जल में नाइट्रेट मी मात्रा में वृद्धि होती है जिसके कारण नाना
प्रकार के जलीय खरपतवार उत्पन्न हो जाते हैं, इसलिए रासायनिक खाद का उपयोग कृषि में कम करना चाहिए।
7. पर्यावरण के संबध में कड़े कानून बनाना- सरकार को पर्यावरण के बारे में सख्त कानून
बनाने चाहिए और उनका उल्लंघन करने वालों को कड़ी सजा देनी चाहिए।
8. विविध अन्य उपाय- पर्यावरण संबंधी नियमों का उल्लंघन करने के लिए
व्यक्ति समाज, नौकरशाही तथा उद्योगपतियों को जवाबदेह
ठहराना।
वायु प्रदूषण Air Pollution
यदि वायु में प्रदूषण-कणों की मात्रा अधिक हो
जाये तो उसको वायु प्रदूषण कहते हैं। वायु प्रदूषण प्राकृतिक /भौतिक कारणों से तथा
मानवीय कारणों से होता है। वायु प्रदूषण मुख्य रूप से कार्बन डाय ऑक्साइड, कार्बन एसिड़,जल,नाइट्रिक एसिड़ तथा सल्फ्युरिक एसिड़ इत्यादि के द्वारा होता है।
वायु प्रदूषण के परिणाम
वायु प्रदूषण का स्वास्थ्य पर भारी प्रतिकूल
प्रभाव पड़ता है। वायु प्रदूषण का महानगरों की जनसंख्या पर भारी प्रतिकूल प्रभाव
पड़ता है। इससे सॉस की बीमारियों में भारी वृद्धि हो जाती है। वायु प्रदूषण के
कारण ही दिल्ली राजधानी क्षेत्र में अस्थमा के रोगियों की संख्या में भारी वृद्धि
हुई है।
प्रमुख वायु प्रदूषक
ऐबेस्टॉस डस्ट- ऐबेस्टॉस शीट के निर्माण से डस्ट का निर्माण
होता हैं, इसके प्रभाव से मानव में ती्रव सांस
संबंधी समस्या तथा कैंसर होने की आशंका होती है।
कार्बन डाइ ऑक्साइड- जीवश्म ईंधनों के जलाने से
इसका उत्सर्जन अत्याधिक मात्रा में होता है, इसके प्रदूषण के परिणामस्वरूप सांस लेने में तकलीफ, तेज सिर दर्द, श्लेष्मा झिल्ली में नुकसान, मूर्छा व मृत्यु हो जाती है।
कार्बन मोनो ऑक्साइड- वाहनों से निकलता धुआं, जीवश्म ईंधनों का जलना,
इसके
उत्सर्जन का प्रमुख कारण है इसके प्रभाव से सांस लेने में तकलीफ तेज सिर दर्द आदि
की समस्या होती हैं.
कैडमियम- उद्योग से यह प्रदूषक पदार्थ निकलता
है इसके प्रभाव से हृदय पर बुरा प्रभाव पड़ता है.
क्लोरा फ्लोरो कार्बन- रिफ्रीजरेटर्स , जेट से उत्सर्जन, डिटर्जेण्ट आदि से इसका उत्सर्जन होता
है। इसके प्रभाव से आजोन लेयर का क्षरण होता है एवं वैश्विक तापमान में वृद्धि हो
रही है।
कोयले का चूरा- कोयले की खानने इसका प्रमुख
स्त्रोत हैं। मानव स्वास्थ्य पर इससे काला कैंसर, फेफड़े का तंतुशोध जिसमें श्वसन तंत्र कार्य करना बंद कर देता है.
कपास का चूरा- सूत्री वस्त्र उद्योग इसका
प्रमुख स्त्रोत हैं, इसके प्रभाव से फेफड़ों के ऊतकों का
ह्यस , हाइपरटेंशन, श्वसन संबंधी समस्या, आंख, नाक, गले में जलन तथा श्वसन तंत्र का ह्यस
होता है।
हाइड्रोकार्बन- सीसायुक्त पेट्रोल से
हाइड्रोकार्बन का उत्सर्जन होता है, इस प्रदूषक के कारण मानव मस्तिष्क व केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र किड़नी
को हानि तथा क्षीण बुद्धि होती है।
पारा- उद्योगों से इसका उत्सर्जन होता है इसके
प्रभाव से तंत्रिका तंत्र का विकार, स्मृति ह्यस,
उत्तेजना, चिडचिड़ापन , कंपकपी तथा मिनमाटा रोग होते हैं।
नाइट्रोजन ऑक्साइड- थर्मल पॉवर प्लॉट उद्योगों
इसके उत्पादन का प्रमुख स्त्रोत हैं। इसके प्रभाव से फेफड़ों में जलन, सॉस लेने में दिक्कत , श्वसन तंत्र में एंजाइमों के कार्यों
में विकार जिससे ब्रोन्काइटिस तथा अस्थ्मा हो सकता है.
रेडियो एक्टिव प्रदूषक- कास्मिक किरणें, एक्स किरणें, बीटा किरणें रेड़ान तथा रेडियम इसके
प्रमुख स्त्रोत हैं। इसके प्रभाव से जीवित ऊतकों तथा रक्त कोशिकाएं नष्ट हो जाती
हैं। कोशिका झिल्ली व एंजाइम के प्रकार को प्रभावित करता है। पूर्ण रूप से
अनुवांशिकी परिवर्तन कर सकता है।
सिलिका का चूरा- सिलिकान की खान इसका प्रमुख
स्त्रोत है। सिलिका चूरा के प्रभाव से फेफड़े प्रभावित होते हैं।
धुआँ- उद्योग तथा वाहनों से निकला प्रदूषण इसके
कारण श्वसन संबंधी समस्याएं तथा ऑखों मे तेज जलन होती है।
सल्फर ऑक्साइड- थर्मल पावर प्लांट तथा उद्योग
इसके प्रमुख स्त्रोत हैं। इसके कारण ऑखों व गले में जलन, बलगम, एलर्जी, श्वसन तंत्र में विकार, फेफड़ों से गैसों के आदान-प्रदान में
कमी व समस्या पैदा होती है।
सस्पेन्डेड पार्टिक्यूलेट मैटर- वाहनों से
निकला प्रदूषण तथा जीवश्म ईंधन के जलने से निकला प्रदूषण इसका प्रमुख स्त्रोत है
इसके प्रभाव से फेफड़ों में जलन तथा फेफड़ों द्वारा ढंग से कार्य न कर पाना है।
तंबाकू का धुआँ- सिगरेट , सिगार तथा तंबाकू उत्पाद इसका प्रमुख
स्त्रोत है इसके प्रभाव से स्थायी ब्रोनकाइटिस, अस्थमा, तथा फेफड़ो का कैंसर, ऑख, नाग तथा गले में जलन की समस्या उत्पन्न होती है।
वायु प्रदूषण प्रबंधन
वायु प्रदूषण के प्रबंधन के लिए निम्न उपाय करने की आवश्कता है-
- वाहनों एवं सड़कों का अनुरक्षण एवं रखरखाव
- सक्षम सरकारी परिवहन तंत्र
- कूड़ा-करकट को जलाने का उचित प्रबंध
- झूम कृषि पर प्रतिबंध
- सौर ऊर्जा, पन बिजली का अधिक उत्पादन
- वृक्षारोपण
- पुराने औद्योगिक एवं ताप बिजली घरों की मशीनों के स्थान पर नई मशीनें लगाना।
वायु प्रदूषण का नियंत्रित करने के लिए विश्व
स्तर पर उठाये गए प्रमुख कदम
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए वर्ष 1970 में विश्व सम्मेलन आयोजित किया गया।
- पर्यावरण के अम्लीकरण के बारे में वर्ष 1982 में स्टॉकहोम विश्व सम्मेलन आयोजित किया गया ।
- वर्ष 1982 में ओटावा में 30 प्रतिशत क्लब का संगठन किया गया।
- वर्ष 1984 में पर्यावरण संबंधी म्यूनिख विश्व सम्मेलन आयोजित किया गया।
- 1986 में अम्लीकरण के बारे में अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेस को आयोजित किया गया।
- 1988 में सोफिया में पर्यावरण संबंधी मीटिंग आयोजित की गई।
- इसके अतिरिक्त प्रत्येक देश में वायु प्रदूषण के बारे में कानून बनाये गये तथा शिक्षा के द्वारा समाज में पर्यावरण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास किये गये हैं।
- वायु प्रदूषण के नियंत्रण में बाधाएँ
- वायु प्रदूषण के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष बहुत से कारण हैं, जिनमें से बहुत से प्रदषण कारणों का पता ही नहीं चलता है।
- विश्व के विभिन्न देशों में विभिन्न प्रकार के प्रदूषण तत्व पाये जाते हैं।
- वायु प्रदूषण सहन करने की क्षमता भी व्यक्ति एवं समाज की भिन्न भिन्न होती है।
- चूंकि एक ही समय पर आदमी पर बहुत से प्रदूषण तत्वों का प्रभाव पड़ता है इसलिए यह कहना कठिन है कि मानव की स्वास्थ्य एवं परितंत्र पर किस प्रकार के प्रदूषण का अधिक प्रभाव है।
ध्वनि प्रदूषण Noise Pollution
यदि ध्वनि के द्वारा शोर-शराबा अत्याधिक हो और
उससे बेचैनी उत्पन्न हो या स्वास्थ्य पर खराब प्रभव पड़े तो उसको ध्वनि प्रदूषण
कहते हैं। जैसे-जैसे औद्योगिकरण एवं नगरीकरण बढ़ रहा है, ध्वनि प्रदूषण की समस्या भी बढ़तीी जा
रही है। भारत में ध्वनि प्रदूषण के मुख्य कारण निम्न हैं-
1. सामाजिक सभाएँ- भारत जैसे विकासशील देशों में सामाजिक सभाएं प्रदूषण
का मुख्य कारण हैं।
2. धार्मिक स्थल अथवा उपासना स्थल- धार्मिक एवं उपासना के स्थलों पर
लाउड स्पीकर का इस्तेमाल करने से ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि होती हैं
3. वाणिज्य प्रक्रियाएँ- सड़कों पर खड़े होकर माल बेचना, साप्ताहिक बाजार, एवं पेठ बाजार से भी ध्वनि प्रदूषण में
वृद्धि होती है।
4. तीज त्योहार- विश्व भर में त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाये जाते हैं, भारत में त्योहार ढोल-ढमाकों के साथ
मनाये जाते हैं जिससे भारी मात्रा में ध्वनि प्रदूषण बढ़ जाता है।
5. औद्योगिक प्रक्रियाएँ- कारखानों की मशीनों की गड़गडाहट से भी ध्वनि
प्रदूषण बढ़ता है।
6. वाहन तथा परिवहन तंत्र- वाहनों में यदि उत्तम प्रकार के
खशामक/साइलेंसर न लगे हो तो उनसे भारी मात्रा में ध्वनि प्रदूषण होता है। रेलों
तथा हवाई जहाज से भी वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है। निर्माण उपकरण तथा
विनिर्मणा प्रक्रियाएं भी ध्वनि प्रदूषण का स़्त्रोत हैं।
7.ऊर्जा उत्पादन- ताप बिजली तथा पन बिजली उत्पादन से भी ध्वनि प्रदूषण
बढ़ता है।
8. कृषि यंत्रो के द्वारा- कृषि में काम आने वाली मशीनें, जैसे ट्रैक्टर, हार्वेस्टर इत्यादि से भी ध्वनि
प्रदूषण में वृद्धि होती है।
9. घरेलू यंत्रो के द्वारा- घरेलू बिजली के उपकरण जैसे ग्राइंडर तथा
मकानों के निर्माण में प्रयोग की जाने वाली मशीन से भी भारी ध्वनि प्रदूषण होता
है।
ध्वनि प्रदूषण का समाज पर प्रभाव
ध्वनि प्रदूषण का समाज पर प्रत्यक्ष एवं
अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण का समाज पर निम्न प्रकार से
प्रभाव पड़ता है-
सामान्य प्रभाव- ध्वनि प्रदूषण का मानव
स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, सुनने और बोलने पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विद्यार्थियों, शिक्षकों एवं वैज्ञानिकों की सेहत पर
खराब असर पड़ता है।
मनोवैज्ञानिक प्रभाव- मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि ध्वनि प्रदूषण से
मानव व्यवहार तथा पशु पक्षियों का व्यवहार भी प्रभावित होता है।
शारीरिक प्रभाव- ध्वनि प्रदूषण से सुनने की
शक्ति समाप्त होकर आदमी बहरा हो सकता है, ब्लड प्रेशर ,
पुनरूत्पादक, प्रजनन, तथा गर्भपात जैसी समस्याओं की आशंका बनी रहती है।
तंत्रिका तंत्र- इसमें दर्द , कानों
में घंटी की ध्वनि तथा थकान होती है, जिससे मानव शरीर की कार्य प्रणाली बुरी तरह प्रभावित होती है।
ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण
- विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रदूषण की सभी समस्याओं में ध्वनि प्रदूषण का नियंत्रित करना आसान होता है। निम्न उपायों के द्वारा ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण पाया जा सकता है-
- ध्वनि प्रदूषण के बारे में जनता में जागरूकता उत्पन्न करना।
- ऐसे उपकरणों का आवष्किार करना जिससे कम शोर उत्पन्न हो।
- कानों को ध्वनि प्रदूषण से बचाने के लिए कनटोप का प्रयोग करना।
- शिक्षा संस्थानों को अस्पतालों से दूर स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए।
- सड़को के पास भारी मात्रा में वृक्षारोपण से ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव कम हो जाता है।
- इमारतों की डिजाइन में सुधार करना और उनको ध्वनि प्रूफ बनाना।
- ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए कड़े कानून बनाना।
- भारत सरकार द्वारा भारतीय दंड विधान की धारा 133 के अनुसार 1986 में लाउड स्पीकर के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई गई है। अस्पताल, शिक्षा संस्थाओं एवं अदालतों के पास लाउड स्पीकर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया है।
ठोस अपशिष्ट Solid Waste
ठोस अपशिष्ट वह पदार्थ है जिसकी एक निश्चित
आकृति व आयतन होता है तथा कुछ मूल गुण होता है। ये व्यर्थ व परित्यक्त पदार्थ होते
हैं। ठोस अपशिष्ट में कूड़ा, कीचड़, तथा अन्य प्रकार के व्यर्थ पदार्थ होते
हैं। ये ठोस, अर्द्धठोस, द्रव्य या गैसयुक्त पदार्थ होते हैं, जो औद्योगिक, वाणिज्यिक, खनन संबंधी व कृषि कार्यों को करने के
परिणामस्वरूप बनते हैं।
ठोस अपशिष्ट के प्रमुख स्त्रोत कृषि क्षेत्र, उद्योग व खनिज, होटर कैटरिंग, सड़कें व रेलवे, अस्पताल, सांस्कृतिक मनोरंजक स्थल तथा पर्यटन व इकोटूरिज्म।
ठोस अपशिष्ट की श्रेणियां
1. नगर निगम का अपशिष्ट- इस अपशिष्ट में घरों से निकलने वाला कूड़ा-करकट, घरों के निर्माण की सामग्री, तोड़-फोड़ का मलवा गलियों व कूचों से
निकला अपशिष्ट इत्यादि आते हैं।
2. अस्पतालों का अपशिष्ट- अस्पतालों का अपशिष्ट रोग निदान, मानवों व जानवरों का उपचार करने के
दौरान सृजित होता है। यह जैविक अनुसंधान या उत्पादन गतिविधियों या मानवों व
जानवरों पर औषधियों के परीक्षण इत्यादि करने के दौरान सृजित होता है।
3. खतरनाक अपशिष्ट- उद्योगों एवं अस्पतालों से निकला अपशिष्ट खतरनाक
अपशिष्ट कहलाता है, क्योंकि इन अपशिष्टों में जहरीले तत्व
पाये जाते हैं।
ठोस अपशिष्ट का प्रबंधन व निपटान- अपशिष्ट भराव
क्षेत्र, सेनेटरी भराव क्षेत्र, खुले गड्ढे, कम्पोस्टिंग,
इत्यादि
हैं।
नाभिकीय/न्यूक्लियर प्रदूषण
रेडियोएक्टिव पदार्थों के विकिरण से भी जैव
जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। रेडियोएक्टिव पदार्थों में रेडियम, यूरेनियम, प्लूटोनियम, पोडोनियम इत्यादि सम्मिलितहैं। इन
पदार्थों से निकलने वाले विकिरण का पशु-पक्षियों एवं मानव समाज पर खराब प्रभाव
पड़ता है तथा इस प्रकार के विकिरण के प्रभाव से बचना कठिन कार्य है।
नाभिकीय प्रदूषण का प्रभाव
नाभिकीय प्रदूषण के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव
को संक्षिप्त में निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
- नाभिकीय विकिरण के संपर्क में आने वालों की तुरंत मृत्यु हो सकती है। शरीर के बाल झड़ सकते हैं तथा मसूढ़ों से रक्त स्त्राव हो सकता हैं
- नाभिकीय प्रदूषण से शरीर की हड्डियां कमजोर पड़ सकती हैं तथा यह बीमारियों को सहन करने की शक्ति को घटा सकता है।
- दिमा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- रक्तस्त्राव अथवाा हेमरेज हो सकता हैं
- कैंसर हो सकता तथा वंशागत बीमारी हो सकती हैं
- प्राकृतिक वनस्पति एवं फसलों पर खराब प्रभाव पड़ता है।
- धातुओं को पिघला सकता है।
- जैविक विधिता में कमी आती है।
नाभिकीय प्रदूषण पर नियंत्रण
- नाभिकीय विकिरण की रोकथाम के लिए पूरे प्रयास करने चाहिए।
- नाभिकीय हथियारों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगना चाहिए।
- न्यक्लियर परीक्षण पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
- न्यक्लियर ऊर्जा उत्पादन कारखानों पर विकिरण के रोकथाम का पूर्ण प्रबंध होना चाहिए।
- सागरों में नाभिकीय कूड़ा-करकट डालने पर सख्ती से रोक लगाई जानी चाहिए।
- औषधियों एवं इलाज में न्यूक्लियर तत्वों का इस्तेमाल कम किया जाना चाहिए।
- न्यक्लियर वेस्ट का सुनिश्चत एवं ठीक ढग से प्रबंधन होना चाहिए।
सागरीय प्रदूषण Marine pollution
पृथ्वी के धरातल का लगभग 71 प्रतिशत भाग महासागरों से युक्त है।
महासागर, प्राकृतिक व मानव निर्मित पदूषकों का
अंतिम स्थान हैं। नदियां,
अपने प्रदूषण को
समुद्र में डालती हैं। समुद्रतटीय नगरों, शहरोंएवं गांवों के गंदे पानी व कूड़ा-करकट को समुद्र में डाला जाता
है।
समुद्री प्रदूषकों में नौसंचालन के निस्सरण से
निकला तेल, अपमार्जक, मलयुक्त जल, कूड़ा-करकट, रेडियोएक्टिव अपशिष्ट, अपतटीय तेल खनन, तेल पलटना तथा ज्वालामुखीय उद्भेदन आदि
हैं।
यूँ तो सागरीय प्रदूषण भौतिक एवं मानवीय कारको
से होतें है, परंतु वर्तमान समय में प्रदूषण का
मुख्य कारण मानवीय हैं सागरों में ज्वालामुखियों के उदगार से प्रदूषण होता रहता
है। मानव द्वारा सागरों में तेल, पेट्रोलियम, रासायनिक पदार्थ पोलीबैग, कूड़ा-करकट डालने से जल प्रदूषण की
समस्या उत्पन्न होती है।
सागरीय प्रदूषण के प्रमुख कारण
कच्चा तेल एवं पेट्रोलियम- सागरों में
प्राकृतिक ढंग से कच्चे तेल का रिसाव होता रहा है, परंतु जहाजों व टैंकरो से तेल, पेट्रोलियम एवं रासायनिक पदार्थों की ढुलाई से प्रदूषण में वृद्धि
होती रहती है।
सागरों
में जान बूझकर रासायनिक पदार्थां का निकास- कच्चे तेल एवं पेट्रोलियम को
जहाजों एवं टैंकरों में भरते समय लापरवाही के कारण समूद्रीय जल का प्रदूषण होता
है।
जैविक कूड़ा-करकट सागरों में डालने से- सागरों
में जैविक कूड़ा करकट डालने से भी जल प्रदूषित होता है।
गंदे पानी का सागरों में निकास- सागरों में विभिन्न देशों से भारी
मात्रा में गंदा पानी आदि निष्काषित किया जाता है, जिससे सागरों के प्रदूषण में वृद्धि होती है।
ज्वालामुखी प्रस्फुटन- ज्वालामुखीय प्रस्फुटन
महासागरों में विशाल मात्रा में कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, सल्फर के मिश्रण आदि को मिलाता है।
अंररिक्षीय कूड़ा- अंतरिक्ष से उल्का आदि के
महासागरों में गिरने को टेक्टाइस कहा जाता है। यह भी समुद्री प्रदुषण का
महत्वूपर्ण स्त्रोत है।
सागरीय प्रदूषण का सागरीय परितंत्र पर प्रभाव
तेल एवं पेट्रोलियम प्रदूषण का सागरीय जीवों पर
क्या प्रभाव पड़ता हैख् यह कहना मुश्किल है। यह प्रभाव स्थानिक रूप से भिन्न-भिन्न
हो सकता है तथा मौसम के अनुसार बदलता रहता है। विभिनन जीव-जातियों की तेल को सहने
करने की क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती हैं सामान्यतः प्रदूषण विघटित ऑक्सीजन को कम
करता है तथा इस प्रकार संवेदनशील प्राणियों
जैसे-प्लेंकटोंस, मोलयूसिस, तथा मछलियों को खत्म कर देते हैं।
लेकिन कुछ सहनशील प्रजातियों जैसे ट्यूबीफेक्स एनिलिड कीट तथा कुछ कीड़ों का
लार्वा उच्च स्तरीय प्रदूषित जल में जीवित रह सकता है। इन प्रजातियों को को
प्रदूषित जल हेतु संकेतक प्रजाति कहा जाता है।
सागरीय प्रदूषण नियंत्रण
1. मलजल अभिक्रिया- मलजल को शोध करने के लिये प्रत्येक नगर में एक अथवा
अनेक कारखाने लगाये जाने चाहिए।
2. कीचड़ प्रक्रम-कीचड़ में बहुत से प्रदूषित तत्व मिले होते हैं, उनको साफ-स्वच्छ करने का प्रबंध होना
चाहिए।
3. उत्तम प्रकार के टैंकर- तेल की ढुलाई के टैंकर इतनी उत्तम प्रकार के
बनाए जाने चाहिए जिनसे तेल रिसाव न हो सके।
4. तेल शोध कारखाने तटों के निकट स्थापित करना- सागरों से खनन किये गये
कच्चे तेल को साफ करने के लिये शोध कारखाना सागरीय तटों पर लगाये जाने चाहिए।
5. टैंकर दुर्घटनाओं का रोकना- तेल को लाने ले जाने के लिए सावधानी
पूर्ण नवगमन करने की आवश्कयता है।
6. सागरीय प्रदूषित जल की सफाई का प्रबंध- यदि तेल वाहक टैंकर की
दुर्घटना हो जाये तो सागरीय जल को साफ करने की जिम्मेदारी उसी देश की होनी चाहिए
जिसके टैंकर की दुर्घटना हुई है।
7. प्रभावशाली अंतर्राष्ट्रीय कानून- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सागर
प्रदूषण संबंधित कड़े कानून बनाने की आवश्यकता है।
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