पहल्व के बाद कुषाण भारत आए, जो यूची एवं तोखरी भी कहलाते हैं।
यूची नामक एक कबीला पाँ कुलों में बँट गया था, उन्हीं में एक कुल के थे कुषाण।
कुषाण वंश का संस्थापक कुजल कडफिसेस था। इस वंश
का सबसे प्रतापी राजा कनिष्क था। इनकी राजधानी पुरूषपुर या पेशावर थी। कुषाणों की
द्वितीय राजधानी मथुरा थी।
कनिष्क ने 78 ई. (सिंहासन पर बैठने के समय) में
एक संवत चलाया, जो
शंक-संवत कहलाता है। जिसे भारत सरकार द्वारा प्रयोग में लाया जाता है।
बौद्ध धर्म की चौथी बौद्ध संगीति कनिष्क के
शासनकाल में कुण्डलवन (कश्मीर) में प्रसिद्धबौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में हुई।
कनिष्क बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का
अनुयायी था।
आरंभिक कुषाण शासकों नेभारी संख्या में स्वर्ण मुद्राएँ जारी की,ं जिनकी शुद्धता गुप्त काल की स्वर्ण
मुद्राओं से उत्कृष्ट है।
कनिष्क का राजवैद्य आयुर्वेद का विख्यात
विद्वान चरक था। जिसने चरकसंहिता की रचना की।
महाविभाष सूत्र के रचनाकार वसुमित्र हैं। इसे
ही बौद्धधर्म का विश्वकोष कहा जाता है।
कनिष्क के राजकवित अश्वघोष ने बौद्धों की
रामायण ‘बुद्धचरित‘ की रचना की।
भारत का आइन्सटीन नागार्जुन को कहा जाता है।
इनकी पुस्तक माध्यमिक सूत्र में नागार्जुन ने साक्षेपिकता का सिद्धान्त प्रस्तुत
किया।
कनिष्क की मुत्यु 102 ई. में हो गई। कुषाण वंश
का अंतिम शासक वासुदेव था।
गांधार शैली एवं मुथुरा शैली का विकास कनिष्क
के शासन काल में हुआ था।
रेशम मार्ग पर नियंत्रण रखने वाले शासकों में
सबसे प्रसिद्ध कुषाण थे।
कुजुल कदफिस नामक कुषाण शासक ने यूची कबीला को
संगठित किया। कुजुल कदफीसस ने कश्मीर और सिंधु नदी के पश्चिम का क्षेत्र जीता।
उसका उत्तराधिकारी विम कदफिसेस हुआ। विम कदफिसेस ने सिंधु नदी के पूर्व का क्षेत्र
जीता। उसने रोमन पद्धति पर सोने के सिक्के चलाये।
कुजुल-कदफिसेस के बाद उसका पुत्र यन-काओ-चेन
(विम कैडफिसेस) ने सत्ता प्राप्त की। सिक्कों में उसे महाराज उमियमकवाथस, वेम या विम कडफाइसिस कहा है।
कदफिसेस द्वितीय की मुद्राओं के पृष्ठ भाग में
प्राय: शिव का अंकन मिलता है एवं खरोष्ठी में महरजस राजाधिराज सर्वलोग इश्वरस, महिश्वरस् विमकदफिसस त्रतरस अंकित है
अर्थात् महान् राजा, राजाओं का राजा, समस्त संसार का स्वामी, माहेश्वर (धर्म) रक्षक।
सोटर-मेगस, विम कदफिसेस का गवर्नर था, क्योंकि हाउ-हान-शू नामक चीनी ग्रंथ
में विवरण आया है कि विम ने अपने भारतीय प्रदेशों के शासन संचालन के लिए गवर्नर
नियुक्त किया था।
भारत के कुषाण राजाओं में कनिष्क सबसे
शक्तिशाली और प्रतापी सम्राट् था। वह एक महान् विजेता था। लेकिन इससे भी अधिक
महत्त्व उसके बौद्ध धर्म के संरक्षक होने में है।
बौद्ध धर्म के इतिहास में कनिष्क के राजत्व काल
में होने वाली चतुर्थ बौद्ध संगीति का विशेष महत्त्व है। इस चतुर्थ बौद्ध संगीति
का आयोजन कश्मीर के कुण्डलवन विहार में किया गया था।
कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य
में अफगानिस्तान, सिंध, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के कुछ प्रदेश सम्मिलित थे।
ह्वेनसांग के विवरण और अन्य चीनी ग्रंथों से जानकारी
मिलती है कि गान्धार कनिष्क के अधिकार में था जो तत्कालीन कला का प्रख्यात केन्द्र
था। इस काल में एक विशिष्ट कला प्रणाली का विकास हुआ जिसे गांधार कला के नाम से
अभिहित किया जाता है।
राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर कनिष्क
के साम्राज्य का एक अंग था। यहाँ उसने कनिष्कपुर नामक नगर की स्थापना की थी एवं एक
स्तम्भ भी खड़ा करवाया था जो आज भी उसके नाम से विख्यात है।
उत्तरी भारत में मथुरा, श्रावस्ती, कोशाम्बी एवं सारनाथ से कनिष्क के
अभिलेख प्राप्त हुए हैं। सारनाथ लेख में उसके शासनकाल के तीसरे वर्ष का उल्लेख आया
है। उसकी मुद्रायें आजमगढ़, गोरखपुर से प्राप्त हुई हैं। कनिष्क कालीन मूर्तियां भी मथुरा, कौशाम्बी, सारनाथ, श्रावस्ती आदि स्थानों से मिली हैं।
कनिष्क के उत्तराधिकारी-
कनिष्क उत्तराधिकारियों में वाशिष्क हुआ किन्तु उसके
विषय में इतिहास में अपेक्षित सामग्री उपलब्ध नहीं।
वाशिष्क के बाद हुविस्क
उत्तराधिकारी हुआ। हुविष्क ने कश्मीर में हुष्कपुर नामक नगर बसाया था। हुविष्क एक
शक्तिशाली शासक था। उसने कनिष्क द्वारा स्थापित साम्राज्य की रक्षा की। उसके
द्वारा चलाए हुए अनेक सिक्के मिले हैं।
हुविष्क ने 30 वर्षों तक शासन किया। उसके बाद वासुदेव शासक बना। उसका राजत्व-काल 145-176 ई. माना जाता है। वासुदेव कुषाणवंश का
अंतिम शासक था।
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