1946
के उत्तरार्ध में बंगाल के बंटाईदारों ने फैसला किया कि वे अब जोतदारों को उपज का
आधा हिस्सा नहीं, बल्कि एक-तिहाई देंगे तथा बंटवारे तक उपज उनके ही खलिहानों में
रहेगी।
फ्रलाउड आयोग ने ऐसी ही सिफारिश की थी। उधर
आदिवासी नकद में लगान देने के पक्ष में थे।
बंगाल प्रांतीय किसान सभा के नेतृत्व में
संघर्ष छिड़ गया। जब सुहरावर्दी के मुस्लिम लीग मंत्रिमंडल ने बंगाल वर्गादार
अस्थायी नियमन विधेयक प्रकाशित किया तो, आन्दोलनकारियों को एहसास हुआ कि उनकी
मांगें अब गैर-कानूनी नहीं हैं। अब संघर्ष छिड़ गया और हिंसक वारदातें होने लगीं।
खानपुर में 20 किसान मारे गये। 1950 में
कांग्रेस सरकार ने वर्गादार विधेयक पारित कर आन्दोलनकारियों की मांगों की पूर्ति
की।
इस आन्दोलन के मुख्य केन्द्र रहे दिनाजपुर, रंगपुर,जलापाईगुड़ी, मैमनसिंह, मिदनापुर, 24 परगना और खुलना।
राजवंशी क्षत्रिय किसान, मुसलमान, हजोंग, संथाल व उरांवों ने इसमें सक्रिय
भूमिका निभाई।
इस आन्दोलन के प्रमुख नेता कृष्णविनोद राय, अवनी लाहिरी, सुनील सेन, भवानी सेन, मोनी सिंह, अनंत सिंह, विभूति साह, अजित राय, सुशील सेन, संभर गांगुली और गुरूदास तालुकदार थे।
बारदोली सत्याग्रह 1928
सूरत के बारदोली तालुका में लगान न देने का
आन्दोलन, असहयोग
आन्दोलन का ही देन था। यहाँ से गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन शुरू करने का फैसला लिया
था, पर
ऐसा नहीं हुआ।
स्थानीय नेता कल्याणजी व कुँवरजी मेहता, दयालजी देसाई, केशवजी गणेशजी आदि के प्रयासों से यहाँ
राजनीतिक चेतना विकसित हुई थी।
यहाँ की 60 फीसदी आबादी अश्वेतजन कालिपराज तथा
बाकी सवर्णों की थी।
हाली पद्धति (बंधुआ मजूदूरी) व सामाजिक
कुरीतियों के खिलापफ आवाज उठने लगी।
1927 के वार्षिक कालिपराज सम्मेलन की अध्यक्षता
गांधीजी ने की और‘कालिपराज’ का नाम बदल कर ‘रानीपराज’ कर दिया।
नरहरि पारिख और जगतराम दवे ने अपने रिपोर्ट में
हाली पद्धति की भर्त्सना की।
1926 में लगान में 30 प्रतिशत बढ़ोतरी को विरोध
के पश्चात् उसे घटा कर 21.97 फीसदी कर दिया गया था, पर किसान संतुष्ट नहीं हुए।
कांग्रेस के नेताओं ने ‘खेड़ा सत्याग्रह’, नागपुर झंडा सत्याग्रह व बलसाड
सत्याग्रह से जुड़े वल्लभभाई को आन्दोलन का नेतृत्व संभालने की सलाह दी।
वल्लभभाई के निष्पक्ष जाँच की माँग विफल होने
पर किसानों ने लगान देना बंद कर दिया।
इस संघर्ष में मीठबेन पेटिट, भक्तिबा, मनीबेन पटेल, शारदाबेन शाह और शारदा मेहता जैसी
महिलाओं ने भाग लिया।
अब सामाजिक बहिष्कार का अस्त्र इस्तेमाल किया
गया। 1928 में ब्रिटेन की संसद में भी इस मसले
पर सवाल उठाये जाने लगे थे। मैक्सवेल-ब्लूमपफील्ड समिति ने लगान की दर
घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दी।
मोपला विद्रोह 1921
19वीं सदी में भी मोपलाओं ने विद्रोह किया था, पर 1921 का विद्रोह अधिक व्यापक था।
अधिक लगान तथा बेदखली ने मोपलाओं को जमींदारों
के विरूद्ध संघर्ष छेड़ने पर मजबूर किया।
मंजरी के सम्मेलन में मालाबार जिला कांग्रेस ने
खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया तथा ऐसा कानून बनाने की माँग की, जो जमींदार-काश्तकार संबंधों को तय
करे।
कोझीकोड में काश्तकारों का एक संगठन बना। मोपला
तथा खिलाफत आंदोलन एक दूसरे में समा गये। गांधीजी, शौकत अली और मौलाना आजाद ने इस इलाके
का दौरा किया। 1921 में सरकार ने निषेधाज्ञा
लगा कर बैठकों पर प्रतिबंध लगाये
18
फरवरी को याकूब हसन, यू.गोपाल मेनन, पीमोइद्दीन कोया, के. माधवन नायर जैसे वरिष्ठ नेताओं की गिरफ्रतारी से नेतृत्व स्थानीय
मोपला सरदारों के हाथों में चला गया।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की दयनीय
स्थिति की अफवाह सुन कर, मोपला सरकारी आदेशों की अवहेलना करने लगे।
एरनाड तालुका में जब एक स्थानीय नेता व धार्मिक
गुरू अली मुसलियार को पकड़ने के लिए तिरूरांगडी
की मस्जिद पर छापा मारा गया, तो कोट्टाकाल, पारप्पानागड़ी व अन्य जगहों पर विद्रोह
भड़क उठा। केवल बदनाम हिन्दू जमींदारों तथा विदेशी हुकूमत के प्रतिष्ठानों को
निशाना बनाया गया।
विद्रोही हुकूमत के प्रतिष्ठानों को निशाना
बनाया गया। विद्रोही नेता कुनहम्मद हाजी ने हिन्दुओं को न मारने का आदेश दिया।
सैनिक शासन लागू होते ही इस विद्रोह का चरित्र
बदल गया। भयभीत हिन्दू हुकूमत का साथ देने लगे। अब संघर्ष साम्प्रदायिक हो गया।
1921 के अंत में विद्रोह को कुचल दिया गया।
चम्पारण सत्याग्रह 1917
बिहार के चम्पारण जिले के किसानों को अपनी जमीन
के 3/20 वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे तिनकठिया पद्धति कहते
थे।
19वीं सदी में रासायनिक रंगों ने नील को बाजार
से बाहर कर दिया। अतः यूरोपियों को नील की खेती बंद करनी पड़ी। किसान भी यही चाहते
थे। मालिकों ने किसानों को अनुबंध से मुक्त करने के लिए लगान व अन्य गैरकानूनी
अब्वाबों जैसे शरहवेशी ;बढ़ा हुआ लगान तथा तावान ;एकमुश्त मुआवजा की दर को मनमाने ढंग से
बढ़ा दिया।
1908 में पहला विद्रोह हो चुका था। 1917 में
राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चम्पारण बुलाया। उन्होंने अपने सहयोगियों - ब्रज
किशोर, राजेन्द्र
प्रसाद, महादेव
देसाई, नरहरि
पारेख, जे.बी.
कृपलानी आदि के साथ गाँवों का दौरा किया।
सरकार ने एक जाँच आयोग गठित की, जिसमें गांधीजी को भी शामिल किया गया।
बगान मालिक अवैध वसूली का 25 फीसदी वापस करने पर राजी हो गये।
खेड़ा आन्दोलन 1918
गुजरात के खेड़ा जिले में फसल बर्बाद होने के
बावजूद सरकार मालगुजारी वसूल कर रही थी। सर्वेंट आफ इंडिया सोसाइटी के सदस्यों, विट्ठलभाई पटेल और गांधीजी ने पूरी
जाँच-पड़ताल के बाद मालगुजारी माफ करने की माँग को जायज ठहराया।
गाँधीजी की अध्यक्षता में गुजरात सभा ने
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वल्लभभाई पटेल व इंदुलाल याज्ञनिक ने भी गाँवों का दौरा
किया।
गाँधीजी ने कहा कि यदि सरकार गरीब किसानों का
लगान माफ कर दे तो जो लगान दे सकते हैं, वे पूरा लगान दे देंगे। सरकार ने इस
सुझाव को मान लिया।
1875 का दक्कन उपद्रव
महाराष्ट्र के पूना व अहमदनगर जिलों में अन्य
रैयतवाड़ी इलाके की भांति ज्यादातर किसान कर्ज अदायगी को ले कर बाहर से आये
गुजराती व मारवाड़ी महाजनों के शिंकजे में फंसे हुए थे।
1860 के दशक में अमरीकी गृहयुद्ध से कपास के
निर्यात में बढ़ोतरी हुई जिससे उनकी कीमतें बढ़ी। परन्तु
1864 में गृहयुद्ध समाप्त होने के कारण कीमतों
में भारी गिरावट आ गयी। 1867 में सरकार ने लगान की दर में 50 प्रतिशत वृद्धी कर
दी। लगातार खराब पफसलों ने किसानों की कमर तोड़ दी।
महाजनों (वानिद्) ने इस परिस्थिति का लाभ उठा
कर कमर तोड़ ब्याज वसूल किये।
कालूराम नामक एक महाजन ने सिरूर तालुका के
करड़ाह गाँव में जब कर्जदार के घर पर कब्जा करने का प्रयास किया, तो किसानों व बुलोटीदारों ने महाजनों
का सामाजिक बहिष्कार किया जो पूना, अहमदनगर, शोलापुर और सतारा जिलों के गाँवों में
पैफल गया।
भीगथरी तालुका के सूपा इलाके में किसानों ने
इकरारनामें जला डाले। इन उपद्रवों में हिंसक वारदातें बहुत कम हुईं।
पूना सार्वजनिक सभा ने इस विरोध का समर्थन
किया। दक्कन-कृषक राहत अधिनियम 1879 से किसानों को महाजनों के खिलाफ संरक्षण
प्राप्त हुआ।
पाबना विद्रोह 1873-76
बंगाल के जमींदारों द्वारा कानूनी सीमा से अधिक
तथा 1859 के अधिनियम 10 के तहत मिली काश्तकारों की जमीन पर कब्जे के अधिकार के
विरूद्ध षडयंत्रा, बेदखली तथा कानून द्वारा शोषण से पीडि़त किसानों ने पाबना जिले के
युसुपफशाही परगना में किसान संघ की स्थापना की।
किसानों ने लगान हड़ताल की।
इस विद्रोह के प्रमुख नेता ईशानचन्द्र राय व
शंभुपाल थे।
यह लड़ाई मुख्यतः कानूनी मोर्चे तक ही सीमित थी
और हिंसक वारदातें नाममात्र की ही हुईं।
जमींदारों व अंग्रेजों ने इसे ‘साम्प्रदायिक दंगे’ का नाम दिया क्योंकि अधिकतर काश्तकार
मुसलमान व जमींदार हिन्दू थे।
1885 में बंगाल काश्तकारी कानून बना कर सरकार
ने आधे मन से अपना वचन निभाया और जमींदारों ने किसानों के विरूद्ध जो दमनकारी नीति
अपनाई थी, उसके
खिलापफ कानून बनाये। ध्यान देने योग्य बात है कि न तो यह आंदोलन जमींदारी प्रथा के
खिलाफ थी और न ही उपनिवेशवाद-विरोध राजनीति से जुड़ी थी।
इस विरोध का समर्थन करने वालों में बंकिमचन्द्र
चट्टोपाध्याय, आरसी.
दत्त तथा इंडियन एसोसिएशन के नाम उल्लेखनीय हैं। द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर
(रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई) ने इस आन्दोलन का विरोध किया था।
नील विद्रोह 1859-60
आर्थिक मांगों को लेकर किसान विद्रोहों में यह
सबसे जुझारू व व्यापक विद्रोह था।
बंगाल में ज्यादातर नील उत्पादक यूरोपीय थे तथा
वे जबरन किसानों से नील की खेती करवाते थे।
मामूली सी अग्रिम रकम देकर वे किसानों से करार
लिखवा लेते थे, जिसमें
नील की कीमत बाजार की कीमत से काफी कम होती थी।
कानून के डर से विमुख इन यूरोपीय उत्पादकों ने
बाद में आतंक की नीति का भी सहारा लिया। लोगों में यह धारणा बैठ गयी कि जो रक्षक
वही भक्षक।
डिप्टी मजिस्ट्रेट हेमचन्द्रकर ने सरकारी आदेश
पढ़ने में चूक की। ऐसा फरमान जारी किया गया जिससे लगा कि विवादों में रैयतों का
कब्जा बरकरार रहेगा और वे अपनी मर्जी के फसल उगा सकेंगे।
शुरुआती दौर में शांतिपूर्ण तरीके से अर्जियां
भेजी गयीं व प्रदर्शन किये गये, पर असफलता ही हाथ लगी।
नदिया जिले के गोविन्दपुर गाँव में एक नील
उत्पादक के भूतपूर्व कर्मचारी दिगम्बर विश्वास व विष्णु विश्वास के नेतृत्व में
लोगों ने नील उत्पादकों द्वारा भेजे गये लठैतों के हमले को नाकाम कर दिया।
1860 तक यह आंदोलन सारे बंगाल में फैल गया।
जमींदारी अधिकारों के उपयोग की धमकी के जवाब
में रैयतों ने लगान चुकाना बंद कर दिया। रैयतों ने पैसे जुटा कर कानूनी लड़ाई भी
छेड़ी।
1860 तक नील की खेती बंद हो गयी।
हिन्दू-मुस्लिम एकता, कुशल नेतृत्व, बुद्धीजीवियों के सहयोग से यह आंदोलन
सपफल हुआ।
हिन्दू पैट्रियट के संपादक हरिश्चन्द्र मुखर्जी
ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मिशनरियों ने भी पूरा सहयोग दिया।
एक आयोग के रिपोर्ट के आधार पर 1860 में
अधिसूचना जारी की गयी कि किसी भी रैयत को नील की खेती करने के लिए विवश नहीं किया
जायेगा तथा विवादों का निबटारा कानूनी तरीके से होगा।
मोपला विद्रोह 1836-54
औपनिवेशिक शासन को चुनौती देने वाले किसान
विद्रोह में मालाबार के मोपलाओं का नाम उल्लेखनीय है। ये अरब से आये लोगों के वंशज
थे जिन्होंने हिन्दू धर्म अपना लिया था।
ये मुख्यतः खेतिहर किसान, भूमिहीन मजदूर,छोटे व्यापारी या मछुआरे थे। नई
राजव्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव था ‘जनामी’ में परिवर्तन।
साझेदारी प्रणाली पर आधारित इस प्रणाली में अब
मालिक एक व्यक्ति हो सकता था, जो काश्तकारों को जमीन से बेदखल कर सकता था।
अधिक व अवैध करों जैसे अन्य कारणों के फलस्वरूप
यह विद्रोह भड़क उठा।
धार्मिक नेताओं ने सामाजिक-धार्मिक सुधारों से
मोपलाओं को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित किया। 1836 से 1854 के बीच 22 विद्रोह हुए।
कई वर्षों तक यह संघर्ष जारी रहा।
मुंडा विद्रोह 1899-1900
सभी प्रकार के शोषण तथा अत्याचारों के विरुद्ध
मुण्डा विद्रोह या ष्उलगुलानष् भी जनजातीय आक्रोश का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
मुण्डा जनजाति छोटानागपुर क्षेत्र की मुख्य
जनजातियों में से एक हैए जो जनसंख्या के दृष्टिकोण से भी भारत की महत्वपूर्ण
जनजातियों में गिनी जाती है।
अपने पड़ोसी संथालों की भाँति मुण्डा जनजाति के
पास भी अपनी भूमि थी।
इस सामूहिक भू.स्वामित्व की व्यवस्था को
ष्खूँटकट्टीष् कहा जाता था।
मुण्डा जनजातियों के जीवन में सबसे अधिक अधिकार
इनके सरदारों को था।
मुण्डा जनजाति के कुछ आपसी मतभेदों के कारणइनके
कुछ क्षेत्र पड़ोसी हिन्दू रजवाड़ों की संस्कृति के निकट आ गये। हिन्दू राजाओं के
सम्पर्क में आने से ये लोग हिन्दुओं की परम्पराओं तथा रीति.रिवाजों को अपनाने लगे।
मुण्डा सरदारों ने हिन्दू पुरोहितों को दान में
भूमि भी देना प्रारम्भ कर दिया। पर धीरे.धीरे इन पुरोहितों का व्यवहार जमींदारों
जैसा हो गया।
जनसंख्या व्रद्धि से कृषि योग्य भूमि की अधिक
आवश्यकता हुईए जिसके फलस्वरूप राजस्व भी बढ़ गया।
निर्धन मुण्डा किसानए बढ़ी हुई राजस्व की दरों
को चुकाने में सक्षम नहीं थे। ऐसी स्थितियों ने उन्हें धूर्त साहूकारों की दया पर
जीवित रहने को विवश किया तथा इन साहूकारों ने इनकी विवशता का अधिक से अधिक लाभ
उठाया।
अंग्रेजी राज्य के विस्तार के समय अंग्रेजी
प्रशासकों ने भी इन सभी प्रचलित नियमों को अपनी स्वीकृति दे दी।
1806 में अंग्रेज प्रशासकों ने जमींदारों को
पुलिस के सभी अधिकार दे दिये। मुण्डा जनजाति के शोषण के संदर्भ में अंग्रेजी
साम्राज्य की मौन स्वीकृति के कारण इस जनजाति में असंतोष की भावना ने जन्म लिया
तथा ष्दिकूष् शब्द सभी बाहरी लोगों के लिए प्रयोग होने लगा।
असंतोष के बढ़ने के कारण कहीं.कहीं हिंसक
घटनाएं भी हुईंए पर अंग्रेजी प्रशासकों ने इन विद्रोहों को दबाने में शोषकों का
साथ दिया।
इन स्थितियों से परेशान मुण्डा जनजाति के लोगों
ने मिशनरियों की शरण ली। अपने अधिकारों के वापस मिलने तथा अपने हितों की रक्षा
होने के आश्वासन पर इन लोगों ने ईसाई धर्म को भी स्वीकार किया परन्तु मिशनरियों ने
भी उनका साथ नहीं दिया।
अब बिरसा नामक एक साहसी मुण्डा युवक ने नेतृत्व
संभाला। उसने आनंद पाण्डेय नामक एक व्यक्ति को अपना गुरु बनाया। उसने घोषणा की कि
मुण्डा जनजाति को बाहरी तत्त्वों से मुक्ति दिलाने तथा उनके उत्थान के लिए उसे
भगवान ने भेजा है।
बिरसा ने मिशनरियों की भाँति प्रार्थना सभाओं
का आयोजन किया। इन सभाओं में वह अपनी जनजाति के लोगों से साहस का परिचय देने की
अपील करता था। वह उन्हें समझाता था कि उसकी मानवेत्तर शक्तियों के कारण कोई भी लौकिक
अस्त्र उन्हें मार नहीं सकता।
सन् 1895 तक बिरसा ने छह हजार समप्रित मुण्डाओं
का एक दल तैयार कर लिया। अंग्रेजों के राजनैतिक प्रभुत्व को समाप्त करनाए सभी
बाहरी व विदेशी तत्त्वों को बाहर निकालना तथा स्वतंत्रा मुण्डा राज्य की स्थापना
करना उनका मुख्य उद्देश्य था।
इस मूलतः धार्मिक आन्दोलन का साथ राजनीतिक
सरदार व खेतिहर भी देने लगे। विद्रोह के प्रारम्भ
में साहूकारों मिशनरियों अधिकारियों तथा सभी
बाहरी लोगों पर हमला किया गया। इसी बीच बिरसा जो अब बिरसा भगवान के नाम से
प्रसिद्ध थाए बन्दी बना लिया गया। कैद से मुक्ति के बाद 25 दिसम्बर 1899 को
मिशनरियों तथा जमींदारों पर हमला किया गया।
राँची से सेना बुलाई गयी और सैल रकाब की
पहाडि़यों में विद्रोहियों की पराजय हुई। बिरसा पकड़ा गया व हैजा से जेल में ही
उनकी मृत्यु हो गयी।
1908 का
छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट ने खूँटकट्टी के अधिकारों को मान्यता दी तथा जबरन
बेगार पर प्रतिबंध लगाया। बिरसा की पूजा पृथक झारखण्ड आंदोलन के पैगम्बर या अति
वामपंथ के नायक के रूप में होती है।
संथाल विद्रोह (1855-56)
संथाल भारत की महत्वपूर्ण जनजातियों में से एक
है।
इस जानजाति का केन्द्र नव-गठित झारखंड राज्य
में है किन्तु प. बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बिहार तथा बांग्ला देश के एक बड़े भू-भाग में इस जनजाति के लोग रहते
हैं। यह पूरा क्षेत्रा बंगाल प्रेसीडेंसी के अन्तर्गत शामिल था।
भागलपुर से राजमहल तक का पूरा इलाका ‘दामन- ए-कोह’ के नाम से जाना जाता था।
1855 और 1856 के बीच संथालों ने गैर आदिवासी
(दिकू) को भगाने तथा अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए संघर्ष छेड़ा। अन्य जनजातियों
की भांति संथालों के पास भी वन व भूमि सम्पदा थी। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए
अंग्रेज सरकार ने भू-स्वामित्व की ऐसी प्रणाली बनायी, जिसने जमींदारी प्रथा को जन्म दिया।
इन जमींदारों का प्रयोग सरकार अपने हितों को
बचाने तथा अपनी स्वार्थों की पूर्ति के लिए करती थी। इसके साथ-साथ ईस्ट इंडिया
कम्पनी द्वारा वसूल किये जाने वाला वार्षिक कर को भी तिगुना कर दिया गया।
बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण बहुत से बाहरी लोग
यहाँ आकर बस गये। संथालों की आर्थिक दुर्बलता ने साहूकारों तथा जमींदारों के लिए
एक आदर्श स्थिति बना दी।
ब्याज की उँची दरें नहीं चुकाने पर बहुत से
संथालों को भूमि गँवानी पड़ी।
स्थानीय अधिकारी तथा अंग्रेजी कारिन्दे भी इन
साहूकारों तथा शोषकों का साथ देते थे।
धीरे-धीरे सरकारी तंत्रा तथा न्यायालयों पर से
भी संथालों का विश्वास उठ गया।
ऐसे समय में स्थितियों की माँग को देखते हुए
सीदू व कान्हो जैसे दो साहसी भाइयों ने नेतृत्व का भार संभाला। 1855 में
भगनाडीहमें एक सभा हुई जिसमें विद्रोह करने का निर्णय लिया गया। यह स्थान वर्तमान
में पाकुड़ जिला झारखण्ड में है।
सीदू, कान्हो चाँद और भैरव नामक चारों भाई
इसी गाँव में पैदा हुए थे। इनका मानना था कि ठाकुरजी भगवानद ने उन्हे हथियार उठाने
को कहा है।
इस विद्रोह के पहल चरण में बहुत से साहूकारों
तथा पुलिस अफसरों को मारा गया। इसके पश्चात् बाहरी लोगों की दुकानों को लूटा गया।
सेना की मदद से विद्रोह को कुचल दिया गया। 1855
में सीदू मारा गया तथा 1866 में कान्हो को पकड़ लिया गया।
15 हजार से अधिक संथाल मारे गये।
एस.एस. मूले ने संथालों के इस विद्रोह को ‘मुठभेड़’ की संज्ञा दी है।
कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक ‘नोट्स आन इण्डियन हिस्ट्री’ में कहा है कि सात महीने की लगातार
छापामार युद्ध के बाद 1856 में यह विद्रोह दबाया जा सका।
रविन्द्रनाथ टैगोर ने इस विद्रोह के नायकों का
स्मरण सम्मानपूर्वक किया है।
इस आंदोलन को गैर-आदिवासियों के विरूद्ध मानना
उचित नहीं। संथालों की लड़ाई अंग्रेजी तथा देशी शोषकों के विरूद्ध थी जिसमें गरीब
वर्ग के अनेक लोगों की भावनाएं उनके साथ थीं। नाई, कुम्हार, रजवाड़ आदि कई शोषित जाति के लोगों ने
तो विद्रोह में खुलकर भाग भी लिया।
विद्रोह समाप्त होने के बाद वीरभूमि तथा
भागलपुर जिलों के राजमहल, पाकुड़, गोडु, देवध्र, दुमका ओर मताड़ा को मिलाकर संथाल परगना जिला का गठन किया गया। इसका
मुख्यालय दुमका बनाया गया और इसे भागलपुर प्रमंडल के अधीन रखा गया।
भील विद्रोह (1818-1831, 1846)
अंग्रेजों के आधिपत्य तथा बाहरी लोगों के
अतिक्रमण से खानदेश जिला के भील आहत हुए।
बाजीराव द्वितीय के विद्रोही मंत्री
त्रायम्बकजी ने अंग्रेजों के आधिपत्य जमाने के विरोध में भीलों को उकसाया। वास्तव
में कृषि संबंधी कष्ट तथा नई सरकार से भय ही इस विद्रोह के कारण थे।
अंग्रेजों की बर्मा में हुई पराजय की सूचना ने
भीलों के उत्साह को बढ़ाया।
1825 में सेवरम के नेतृत्व में पुनः विद्रोह
हुआ। 1831 तथा 1846 में भी विद्रोह हुए।
सूरत का नमक आंदोलन
1844 में नमक कर 1/2 रुपया प्रति मन से बढ़ा कर
एक रुपया प्रति मन कर दिया गया। विरोध को देखकर सरकार ने अतिरिक्त कर हटा दिया।
इसी प्रकार जब 1848 में सरकार ने एक मानक
नाप-तौल लागू करने का प्रयत्न किया तो लोगों ने दृढ़ता के साथ इसका बहिष्कार कर
सत्याग्रह किया। अन्त में सरकार ने इसे भी वापस ले लिया।
कच्छ का विद्रोह (1816-32)
कठियावाड़ में राजा भारमल व झरेजा के समर्थक
सरदारों में रोष व्याप्त था।
1819 में भारमल को हटाकर उसके अल्पवयस्क पुत्र
को गद्दी पर बैठाया गया। हालांकि वास्तविक शासन एक प्रतिशासक परिषद को दे दिया
गया।
अत्यधिक भूमि कर और बर्मा के युद्ध में
अंग्रेजों की हार के कारण लोगों में रोष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया। विद्रोहियों
ने भारमल को पुनः स्थापित करने की माँग की।
1831 में पुनः विद्रोह भड़का और अंत में कम्पनी
को अनुरंजन की नीति अपनानी पड़ी।
कोल्हापुर व सावंतवाड़ी विद्रोह
1844 के पश्चात् कोल्हापुर राज्य के प्रशासनिक
पुनर्गठन से लोगों में असंतोष पैफल गया।
गड़कारी जो वंशानुगत सैनिक जाति थी उसकी छंटनी
कर दी गयी जिससे उन्होंने विद्रोह कर दिया।
समनगढ़ व भूदरगढ़ के दुर्ग जीत लिये गये। इसी
प्रकार सावंतवाड़ी में भी विद्रोह हुआ। सेना की मदद से दोनों विद्रोहों को कुचल
दिया गया।
संन्यासी विद्रोह (1763-1800)
बंगाल में अंग्रेजी राज्य की स्थापना तथा उसके
फलस्वरूप नई अर्थव्यवस्था लागू होने से जमींदार कृषक व शिल्पी सभी नष्ट हो गये।
राजस्व की वसूली में तेजी लाने, ईस्ट इंडिया कम्पनी और उसके मुलाजिमों
द्वारा कारीगरों के शोषण और पुराने जमींदारों की समाप्ति ने परिस्थिति को विस्फोटक
बना दिया।
तीर्थ स्थानों पर आने जाने पर लगे प्रतिबन्ध से
सन्यासी लोग बहुत क्षुब्ध हुए। सन्यासियों में अन्याय के विरूद्ध लड़ने की परम्परा
थी। सन्यासी विद्रोह सन् 1763 से 1800 तक चला।
बंगाल के कार्यरत सैनिकों और विस्थापित
जमींदारों ने इस विद्रोह में भाग लिया। इस विद्रोह का नेतृत्व धार्मिक मठवासियों
और बेदखल जमींदारों ने किया।
ये लोग धनाढ्य लोगों तथा सरकारी अधिकारियों के
घरों व अन्न भण्डारों में छापा मार कर इन्हें लूटा करते थे।
बोगरा व मेमन सिंह में उन्होंने अपनी सरकार
बनाई थी। ये लोग कम्पनी के सैनिकों के विरूद्ध बहुत वीरता से लड़े तथा वारेन
हेस्टिंग एक लम्बे अभियान के पश्चात् ही इस विद्रोह को दबा पाया था।
इसी सन्यासी विद्रोह का उल्लेख वन्दे मातरम् के
रचयिता बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने प्रसिद्ग उपन्यास आनन्दम में किया है।
इस विद्रोह की खासियत हिन्दू-मुस्लिम एकता थी।
इस विद्रोह के प्रमुख नेताओं में मंजर शाह, मूसा शाह, भवानी पाठक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
विद्रोहों -आन्दोलनों से जुड़ी शब्दावली
आधियार या भागचाशी: आधी पफसल लेने की व्यवस्था।
अब्वाब: जमींदार अथवा सरकारी अधिकारियों द्वारा
लगाये गये नाना प्रकार के उपकर व महसूल।
काश्तकार: वह किसान जिसने जमींदार को लगान देकर
उसकी जमीन पर खेती करने का अधिकार प्राप्त किया हो।
कालिपराज: बारदोली के अश्वेतजन।
खावती:
अनाज के रूप में ऋण।
खूँटकट्टी: आदिवासियों की सामूहिक भू-स्वामित्व
की प्रणाली।
जिसती जमीन: जमींदारों द्वारा स्वयं अपने लिए
रखी गयी जमीन, जिस
पर खेतिहर मजदूर काम करते थे।
जिरात: इस पद्धति में ठेकेदारी पट्टे के धारक
यूरोपीय नील उत्पादक, अल्प वेतन वाले खेतिहर मजदूरों के माध्यम से स्वयं नील की खेती करते
थे।
जनामी: मालाबार में भूमि से संबंधित साझेदारी
प्रणाली।
तिनकठिया: नील उत्पादक क्षेत्र की वह पद्धति, जिसमें किसानों को अपनी भूमि के 3/20
वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था।
दिकू: मुंडा आदिवासियों द्वारा बाहरी लोगों के
लिये प्रयोग किया गया शब्द।
उलगुलान: महान हलचल
तावान: एकमुश्त मुआवजा
पट्टेदार: वह व्यक्ति जिसे भूस्वामी या जमींदार
द्वारा किसी स्थायी संपत्ति या जमीन के उपभोग का अधिकार दिया गया हो।
पोलिगार: दक्षिण भारत के छोटे पद के सेनापति या
जमींदार, जिन्हें
राजस्व वसूली का वंशानुगत अधिकार प्राप्त था।
पोडु: झूम खेती
पोथांग: बिना मजदूरी दिए अधिकारियों के सामान
उठाने के लिए बाध्य आदिवासी
बलूटा प्रथा: गाँव के 12 सेवक व कारीगर ;बढ़ई, लोहार, नाई, धेबी, कुम्हार, मोची आदि जिन्हें ‘बलूटादार’ कहा जाता थाद्ध से गाँव का सारा काम
करवाया जाता था तथा बदले में प्रत्येक कृषक को अपनी वार्षिक फसल का एक निश्चित
हिस्सा उनके निर्वाह के लिए रखना पड़ता था।
बकाश्त भूमि: वह भूमि जिसे मंदी के कारण लगान न
दे पाने के कारण किसानों ने जमींदारों को दे दिया था। बकाश्त का अर्थ है - स्वयं
का जोता हुआ।
मुट्टादार: पहाड़ी मुखिया
बेठ-बेगार: बिना किसी वेतन अथवा भुगतान की
मजदूरी
वेटी: मुफ्त मजदूरी
वेतीचाकरी: मुफ्त सेवाएं
वर्गादार: पूर्वी भारत के वे किसान जिन्हें
भूस्वामी जब चाहे निकाल सकता था।
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