भूकम्प एवं भूकंपीय तरंगे | भूकम्प के कारण |भारत के भूकम्प क्षेत्र


भूकम्प

भूकम्प एक आकस्मिक प्रायः विनाशकारी इसके कारण जहाँ सैकड़ों मकान धराशायी हो जाते हैं, वहीं अनगिनत व्यक्ति असमय ही कालकवलित हो जाते हैं और कभी-कभी नदियाँ अपना मार्ग बदल देती हैं।
भूकम्पशब्द का साधारण अर्थ है- पृथ्वी का हिलना, पृथ्वी के गर्भ में होने वाली किसी हलचल के कारण जब धरातल का कोई भाग अचानक हिलने लगता है तो उसे भूकम्पकहते हैंपृथ्वी एक गतिशील पिंड है अतः इसमें लगातार कंपन तो होते ही रहते हैं, किन्तु अधिकांश कंपन बहुत हल्केक होते हैं और उनका हमारे दैनिक जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सामान्यतः हम पृथ्वी के उन झटकों को ही भूकम्प कहते हैं जिनका मुनष्य को पता चलता है और जिनके द्वारा जान-माल की क्षति होती है।

भूकंपीय तरंगे Earthquake waves

भूकंपीय तरंगे तीन प्रकार की होती हैं P,S, L

P तरंगे

ये प्राथमिक तरंगे हैं। इनका संचरण ध्वनि तरंगो के समान होता है अर्थात् इनमें अणुओं का कंपन तरंगों की दिशा में आगे-पीछे  होता रहता है। इन्हें अनुलम्ब तरंग या सम्पीडन तरंग भी कहते हैं। ध्वनि तरंगों की तरह ठोस, गैस एवं तरल माध्यमों से गुजरती हैं। इन तरंगों की गति ठोस पदार्थों में सबसे अधिक होती है।

S तरंगे

ये अनुप्रस्थ तरंगें हैं। इनमें अणुओं की गति तरंगों की दिशा के समकोण होती है। इन्हें गौण तरेंगे भी कहते हैं। ये तरंगे ठोस पदार्थों से ही होकर गुजरती हैं। पी और एस तरंगों का मार्ग अवतल होता है। इन तरंगों को शरीर तरंगे भी कहते हैं।

L तरंगे

ये लम्बी अवधि वाली तरंगे हैं। इनका संचरण धरातलीय भाग में ही होता है। इन्हें धरातलीय तरंगे कहते हैं। इनका भ्रमण पथ उत्तल होता है। यह जल से भी होकर गुजर सकती हैं। अधिक गहराई पर लुप्त हो जाती हैं। यह सर्वाधिक विनाशकारी होती हैं।

भूकम्प के कारण

प्राकृतिक कारणः चट्टानों का हिलना

जब हम किसी तालाब में पत्थर फेंकते हैं, तो पानी की लहरें सभी दिशाओं में फैलने लगती हैं। इसी प्रकार पृथ्वी के भीतर की चट्टाने जब हिलती हैं, तो कम्पन पैदा होते हैं जो चारों और फैलने लगते हैं, इसप्रकार चट्टानों के हिलने को भूकंप कहते हैं। भूकम्प केवल भूपटल भाग में ही सीमित रहता है। चट्टानों का हिलना अथवा भूकम्प मुख्यतः दो कारणों से होते हैं-

विवर्तनिक (टेक्टोनिक) कारण

पृथ्वी के भीतर अधिक गहराई पर तापमान और दाब बहुत अधिक होता है, यह दाब हर स्थान पर समान नहीं होता। कभी-कभी यह दाब इतना अधिक बढ़ जाता है, जिसके कारण गहराई पर स्थित चट्टाने मुड़ने लगती हैं और अंततः टूट जाती हैं। चट्टानों के टूटे हुए भाग ऊपर अथवा नीचे की ओर सरक जाते हैं, इसे भ्रंश (जियोलॉजिकल फाल्ट) कहते हैं। एक विशाल भूकम्प आने के बाद पृथ्वी स्थित होने में समय लगता है और काफी समय तक हल्के-हल्के झटके आते रहते है। जिन्हें बाद के झटके (आफ्टर शॉक) कहते हैं।

प्लेट टेक्टोनिक

एक दूसरा विवर्तनिक कारण और भी है, पृथ्वी के पटल को 12 प्लेटों का बना हुआ माना गया है। ये प्लेटें सरकती रहती हैं और कभी-कभी दूसरी प्लेटों से टकरा भी जाती हैं, अतः प्लेटों के टकराने से भी भूकम्प आते हैं।

अविवर्तनिक कारण

भूकम्प की उत्पत्ति के अविवर्तनिक (नान टेक्टोनिक) कारण भी होते हैं। जब ज्वालामुखी से उदगार निकलते हैं तब भी पृथ्वी की सतह पर कम्पन होते हैं। इसके अतिरिक्त चट्टानों के खिसकने, बम फटने, अथवा भारी वाहनों और रेलगाडि़यों की तीव्र गति से भी कम्पन पैदा होते हैं, किन्तु इस प्रकार के भूकम्प बहुत हल्के होते हैं, तेज से तेज ज्वालामुखी भूकंप एक मध्यम विवर्तनिक भूकम्प से हल्का होता है।

प्राकृतिक स्थिति के अनुसार भूकम्पों को दो भागों में बॉटा जा सकता है-

1-स्थलीय भूकम्पः  स्थल खण्ड पर आने वाले भूकम्पों को स्थलीय भूकम्प कहते हैं।
2- सामुद्रिक भूकम्पः ऐसे भूकम्प समुद्र में तथा समुद्र के तटीय भागो में उत्पन्न होते हैं, तटीय भागों से कभी-कभी समुद्री कगारों तक पहुँच जाते हैं।

भूकम्पीय क्षेत्र

साधारणतया भूकम्प कहीं भी आ सकते हैं किन्तु कुछ क्षेत्र इसके लिए संवेदनशील होते हैं जहाँ भूकम्पों के आघात अधिक होते हैं। ये क्षेत्र पृथ्वी के वे दुर्बल भाग होते हैं जहाँ वलन, भ्रंश जैसी हिलने की घटनाएं अधिक होती हैं।
विश्व के भूकम्प क्षेत्र मुख्यतः दो तरह के भागों में है एक परिप्रशांत क्षेत्र जहां प्रायः 90 प्रतिशत भूकम्प आते हैं। और दूसरे हिमालय, आल्पश आदि पहाड़ी क्षेत्र। इनमें से अधिकांश भाग ज्वालामुखीय भी हैं। जहां कहीं भी ज्वालामुखी है, वहाँ भूकम्प अवश्य ही आते हैं, परन्तु प्रत्येक भूकम्पीय क्षेत्र में ज्वालामुखी का होना आवश्यक नहीं है।

भारत के भूकम्प क्षेत्र

भारत के भूकम्प क्षेत्रों का देश के प्रमुख प्राकृतिक भागों से घनिष्ठ संबंध है, संरचना के अनुसार भारत के मुख्य प्राकृतिक भागों के आधार पर देश को तीन भूकम्प क्षेत्रों में बांटा जा सकता है-

1- हिमालयीय भूकम्प क्षेत्र

भू-संरचना की दृष्टि से यह भाग शेष देश से भिन्न है,यह अभी भी अपने निर्माण की अवस्था में है, अतः भू-संतुलन की दृष्टि से यह एक अस्थिर क्षेत्र है। इस कारण इस क्षेत्र में सबसे अधिक भूकम्प आया करते हैं।

2- उत्तरी मैदान का भूकंप क्षेत्र

यह क्षेत्र हिमालय के दक्षिण में सिंधु, गंगा और ब्रम्हपुत्र नदियों का मैदान है, इस मैदान की रचना असंगठित जलोढ़ मिट्टी से हुई है। हिमालय के निर्माण के समय संम्पीड़न के फलस्वरूप इस मैदान में कई दरारें बन गई। अतः भूगर्भिक हलचलों से यह प्रदेश शीघ्र कंपित हो जाता है।

3- दक्षिण के पठार का भूकम्प क्षेत्र

यह भारत का सबसे प्राचीन और कठोर स्थलखण्ड है। भू-संतुलन की दृष्टि से यह स्थिल भाग है। अतः इस क्षेत्र में बहुत ही कम भूकम्प आते हैं, पिछली कुद शताब्दियों से इस क्षेत्र में केवल कुछ ही भूकम्प आए हैं। जिनमें 1967 का कोयना भूकम्प अपनो विशेष स्थान रखता है।

भूकम्प का मापन

किसी स्थानपर आए भूकम्प को हजारों मील दूर स्थित प्रयोगशाला में अंकित किया जा सकता है। जिस यंत्र से इसे अंकित करते हैं, उसे भूकम्पलेखी कहते हैं। इसके मुख्यतः तीन भाग होते हैं-
1- कम्पन संयत्र अथवा भूकम्पमापी- यह कांक्रीट का एक खम्भा होता है, जो पृथ्वी पर गढ़ा होता है और भूकम्प आने पर कम्पन करता है।

2. अंकन संयत्र- इस भाग में एक ड्रम घूमता है जिस पर कागज चढ़ाकर पृथ्वी के कम्पन को अंकित किया जाता है।

3. घड़ी- यह कम्पन शुरू और समाप्त होने के समय को अंकित करती है।


एक भूकम्प अभिलेख (सीस्मोग्राफ) के विस्तृत अध्ययन से, जिस पर भूकम्पीय तरंगे अंकित होती हैं, यह पता लगाया जा सकता है कि किस समय कहाँ पर भूकम्प आया और इसकी क्या गति थी। पृथ्वी के अन्दर का वह भाग जहाँ पर कम्पन की क्रिया आरम्भ होती है उसे अवकेन्द्र (हाइपोसेंटर) और उसके ठीक ऊपर पृथ्वी की सतह के भाग को अधिकेन्द्र (एपिसेंटर) कहते हैं। अधिकेन्द्र पर भूकम्प का धक्का सबसे तीव्र होता है। अतः इस केन्द्र के आसपास के क्षेत्र में विनाश सबसे अधिक होता है। इस केन्द्र से दूर की और भूकंप तरंगों की शक्ति धीरे-धीरे कम होती जाती है और क्षति भी कम होती जाती है।
किसी भूकम्प की तीव्रता उसकी विनाश लीला को बताती है। इसको मापने के लिए इटली के एक वैज्ञानिक मारकोली ने 1931 में एक पैमाना बनाया। इसके पश्चात् दक्षिण कैलीफोर्निया में भूकम्प का परिणाम मापक रिचर ने आविष्कार किया, जो रिचर पैमाने के नाम से विख्यात है।

भूकंपो का प्रभाव

प्राकृतिक घटनाओं में भूकंप सबसे अधिक भीषण और विनाशकारी होते हैं। भूकम्प कुछ क्षणों में ही व्यापक जनहानि के कारण बन जाते हैं। अतः मानव भूकम्प को सदैव अभिशाप मानता आया है। भूकम्प के प्रकोप से इमारते ध्वस्त हो जाती हैं, भूमि धंस जाती है, दरारे पड़ जाती हैं समुद्र में तूफान आते हैं और प्रायः व्यापक जनहानि होती है। इन हानियों के अतिरिक्त भूकम्प से कुछ लाभ भी होते हैं। भूकंप तरंगो का अध्ययन पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी पाने में सहायक होता है, समुद्र तट के धंसने पर अच्छी खाड़ी या बंदरगाह बन जाते हैं। कभी-कभी जल मग्न तट भूमि समुद्र के बाहर निकल आती है। जिससे उपजाऊ मैदान की रचना होती है। भूकम्प के कारण धरातल पर कई नवीन भू-आकारों, जैसे द्वीप, झील, पठार, आदि का निर्माण होता है, जो कि मानव के लिए कभी-कभी बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं।

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