ख़ज़ान फार्मिंग |ख़ज़ान कृषि के फायदे
ख़ज़ान फार्मिंग
गोवा के निचले बाढ़ के ,मैदानों में एक तरह की खेती की जाती है
जिसे ख़ज़ान खेती कहा जाता है। यह आम तौर पर एस्चुरी के मुहाने पर की जाती है। यह
खेती जल अभियंत्रण का एक शानदार नमूना है जिसमे जल प्रबंधन के ज़रिये कृषि का एक
ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र विक्सित किया जाता है जो ख़ास तौर पर सागर की खारे पानी और
उसमे आने वाले ज्वार के विनियमन पर आधारित है।
सदियों पहले इस इलाके के लोगों ने
निचले खारे पानी के बाढ़ के मैदानों और मैन्ग्रोव वनों को खेती के अनुकूल बनाया।
स्थानीय तरीकों का इस्तेमाल करके उन्होंने कुछ ऐसे बंद बनाये जिससे खारे पानी के प्रवेश
को रोका जा सके ताकि मैन्ग्रोव वनों को महफूज़ रखा जा सके।
ज्वारे पानी के बहाव को रोकने के लिए
उन्होंने बंद में एक तरफ़ा दरवाज़े इस्तेमाल किये इन दरवाज़ों या चैनलों के इस्तेमाल
से ज्वार के वक़्त ये पानी से भर जाते थे जिससे पानी के साथ साथ मछलियां ,केकड़े और अन्य जलीय जंतु भी इनमे
इकठ्ठा हो जाते थे और एक बार जब बंद के दोनों और पानी का स्तर बराबर हो जाता तो ये
दरवाज़े अपने आप बंद हो जाते थे।
इससे खेतों में धान की खेती के दौरान
उतना ही पानी भरता था जिससे फसल न बर्बाद हो और साथ ही खारा पाने भी जमा नहीं होने
पाटा था क्यूंकि धान की फसल खारे पानी से बर्बाद होने का खतरा रहता है। जब ज्वार
पीछे हटने के बाद ये दरवाज़े खुद बखुद खुल जाते थे ताकि पाने बाहर जा सके। इस दौरान
दरवाज़ों के पास एक जाल नुमा थैला लगा दिया जाता था ताकि मछलियां इकठी की जा सकें
ख़ज़ान कृषि के फायदे
ख़ज़ान कृषि के तरीके से ज़मीन के हर एक
हिस्से का इस्तेमाल बखूबी हो जाता था। बन्दों का इस्तेमाल तरह तरह की सब्ज़िया
उगाने के लिए होता था
ख़ज़ान कृषि से सबसे बड़ा फायदा ये था की
इससे किसान और मछुआरों दोनों को फायदा था और साथ ही साथ इससे गोवा में इस्तेमाल
होने वाला रोज़ का खाना जैसे मछली और चावल आसानी से मुहैया हो जाता था
आज यह तकनीक क्यों नहीं इस्तेमाल हो रही
आज कई वजहों से खेती का यह तरीका नहीं
इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन इन वजहों में जो सबसे अहम् वजह है वो है 1961 के
दौरान हुए कृषि सुधार। इन बड़े स्तर के कृषि सुधारों की वजह से ये खेत बड़े पैमाने
पर बंजर हो गए।
खेती न होने की वजह से और बन्दों का रख
रखाव न होने के कारण यहां की बंजर ज़मीन वापस मैन्ग्रोव वनों के कब्ज़े में आ गयी
है। साथ ही साथ मैन्ग्रोव वन कानून के तहत संरक्षित हैं और उन्हें काटना गैर
कानूनी है
वो इलाका जहाँ मैन्ग्रोव वनस्पतियां
उगती हैं वो कोस्टल रेगुलेशन जोन के तहत आता है। 2011 में जारी एक अधिसूचना के
मुताबिक़ मैन्ग्रोव वनस्पतियों का इलाका भी कोस्टल रेगुलेशन जोन के तहत वर्गीकृत
किया जाता है और यहाँ पर किसी भी तरह का विकास कार्य को अंजाम नहीं दिया जा सकता
है।
गोवा के कई स्थानीय समुदाय इसे हालाँकि
खाद्य उत्पादन के लिए एक KHATRA
समझते हैं। इन सभी नियमों के चलते गैर
कानूनी और गैर ज़रूरी तरीकों से मैंग्रोव वनस्पतियों को क्षति पहुँच रही है जिसे
अक्सर रात के अँधेरे की आड़ में धीरे धीरे काटा जा रहा हैं।
गोवा में खेती की वापस बहाली के लिए जल
संसाधन विभाग ने हालांकि क्षतिग्रस्त तटबंधों को वापस निर्मित करने का कार्य शुरू
कर दिया है। हालांकि इन तटबंधों को बनाने के लिए कंक्रीट के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया
जा रहा है जो पूर्व में मिट्टी और तिनकों से बनाये जातेथे। इन तटबंधों की ऊँचाई और
चौड़ाई भी पहले के मुकाबले काफी ज़्यादा राखी गयी है।
हालांकि ये बिलकुल बेमानी है की ख़ज़ान
कृषि को यहाँ के स्थानीय लोगों ने अभी तक ज़िंदा रखा था न की नयी तकनीकों ने।
हालांकि इन कंक्रीट के तटबंधों ने काफी बड़े पैमाने पर खारे पानी के प्रवेश और
मैन्ग्रोव वनस्पतियों के नुक्सान पर रोक लगाई हैं लेकिन अभी भी बड़े पैमाने पर कई
सारी ज़मीने बंजर हैं और वहाँ पर अभी भी मैन्ग्रोव वनस्पतियों के ठूंठ काफी तादाद
में जमा हैं।
इन खेतों में जहां पूरी जनता का कभी
पेट कभी भरा करता था आज ये खेत एक बंजर जमीन से ज़्यादा कुछ नहीं। इनमे से कई इलाके
आज महज़ एक कूड़े का अम्बार बन कर रह गए हैं जहां टूटी शराब की बोतलें और ढेर सारा
कचरा फेका जाता है। यह ज़मीने सालों से बंजर पडी हैं और आज कल इन्हे बेकार ज़मीन और
कूड़ा दान की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
इनमे से कई खाली पड़े ख़ज़ानों को कई और तरह के कामों में इस्तेमाल करने की कई सिफारिशें आ चुकी हैं हालाँकि कभी ८०-९० के दशक में जहां यहां पर काफी फायदेमंद और बड़ी तादाद में खेती की जाती थी आज ये ज़मीने ज़्यादातर इस्तेमाल हो रही हैं बड़ी और रिहायशी इलाकों के विकास में।
Post a Comment