आयात एवं निर्यात | Import and Export in Hindi
आयात एवं निर्यात
निर्यात से अभिप्राय वस्तु एवं सेवाओं को अपने
देश से दूसरे देा को भेजने से है। इसी प्रकार आयात का अर्थ है विदेशों से माल का
क्रय कर अपने देश में लाना।
एक फर्म आयात और निर्यात दो तरीकों से कर सकती
है प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष आयात/निर्यात। प्रत्यक्ष आयात/निर्यात में फर्म
स्वयं विदेशी क्रेता/आपूर्तिकर्ता तक
पहुंचती है। तथा आयात/निर्यात से संबंधित सभी औपचारिकताओं, जिनमें जहाज में लदान एवं वित्तीयन भी
सम्मिलत है, को
स्वयं ही पूरा करती है। दूसरी और अप्रत्यक्ष आयात-निर्यात वह है जिसमें फर्म की
भागीदारी न्यूनतम होती है तथा वस्तुओं के आयात/निर्यात से संबंधित अधिकांश कार्य
को कुछ मध्यस्थ करते हैं जैसे अपने ही देश में कुछ मध्यस्थ करते हैं जैसे अपने ही
देश में स्थित निर्यात गृह या विदेशी ग्राहकों से क्रय करने वाले कार्यलय तथा आयात
के लिए थोक आयतक। इस प्रकार की फर्में निर्यात की स्थिति में विदेशी ग्राहकों से
एवं आयात में अपूर्तिकर्ताओं से सीधे व्यवहार नहीं करती हैं।
लाभ
1-प्रवेश के अन्य माध्यमों की तुलना में
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रवेश की आयात/निर्यात सबसे सरल पद्धति है। यह संयुक्त
उपक्रमों की स्थापना एवं प्रबंधन से या विदेशों में स्वयं के स्वामित्व वाली सहायक
इकाईयों की तुलना में कम जटिल क्रिया है।
2- आयात/निर्यात में संबद्धता कम होती है अर्थात
इसमें व्यावसायिक इकाईयों को उतना धन एवं समय लगाने की आवश्यकता नहीं है जितना कि
संयुक्त उपक्रम में सम्मिलत होने या फिर मेहमान देश में विनिर्माण संयत्र एवं
सुविधाओं को स्थापित करने में लगाया जाता है।
3- आयात निर्याता में विदेशों में अधिक निवेश
की आवश्यकता नहीं होती इसलिए विदेशों में निवेश की जोखिम शून्य होता है या फिर
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के अन्य माध्यमों की तुलना में यह बहुत ही कम
होता है।
आयात/निर्यात की सीमाएं
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश माध्यम के
रूप में आयात/निर्यात की प्रमुख सीमाएं निम्नलिखित हैं-
1- आयात-निर्यात में वस्तुओं को भौतिक रूप से
एक देश से दूसरे देश को लाया ले जाया जाता है। इसलिए इन पर पैकेजिंग, परिवहन एवं बीमा की अतिरिक्त लागत आती
है। विशेष रूप से यदि वस्तुएं भारी हैं तो परिवहन व्यय आयात-निर्यात में बाधक होता
है। दूसरे देश में पहुंचने पर इन पर सीमा शुल्क एवं अन्य कर लगते हैं एवं खर्चे
होते हैं। इन सभी खर्चों के प्रभाव स्वरूप उत्पाद की लागत में काफी वृद्धि हो जाती
है तो वह कम प्रतियोगी हो जाते हैं।
2- जब किसी देश में आयात पर प्रतिबंध लगा होता
है तो वहाँ निर्यात नहीं किा जा सकता हैं ऐसी स्थिति में फर्मो के पास केवल अन्य
माध्यमों का ही विकल्प रह जाता है जैसे लाइसेंसिंग या फिर संयुक्त उपक्रम। इनके
कारण दूसरे देशों में स्थानीय उत्पादन एवं विपणन के माध्यम से उत्पादों को उपलब्ध
कराना संभव हो जाता है।
3- निर्यात इकाईयाँ मूलरूप से अपने गृह देश से
प्रचालन करती हैं। वे अपने देश में उत्पादन कर उन्हें दूसरे देशों में भेजती हैं।
निर्यात फर्मों के कार्यकारी अधिकारियों का अपनी वस्तुओं के प्रवर्तन के लिए अन्य
देशों की गिनी चुनी यात्राओं को छोड़कर इनका विदेशी बाजार से और अधिक संपर्क नहीं
हो पाता। इससे निर्यात इकाईयां स्थानीय निकायों की तुलना में घाटे की स्थिति में
रहती हैं क्योंकि स्थानीय निकाय ग्राहकों के काफी समीप होते हैं तथा उन्हें
भली-भांति समझते हैं।
उपरोक्त सीमाओं के होते हुए सभी जो फर्में
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय को प्रारंभ कर
रहीं है उनके लिए आयात-निर्यात से प्रारंभ करते हैं और जब यह विदेशी बाजार से
परिचित हो जाते हैं तो अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय प्रचालन के अन्य स्वरूपों को अपनाने
लगते हैं।
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