महारानी तपस्विनी और सन्यासी विद्रोह
महारानी तपस्विनी कौन थीं
जन्म 1842
मृत्यु 1907
वास्तविक नाम - सुनन्दा
पिता - बेलुर के जमींदार नारायण राव की बेटी
रानी तपस्विनी का उल्लेख एक पाकिस्तानी लेखिका जहीदा हीना ने अपनी पुस्तक " पाकिस्तानी स्त्री : यातना और संघर्ष" में किया है।
महारानी तपस्विनी और सन्यासी विद्रोह
महारानी तपस्विनी ने सन्यासी
विद्रोह के द्वितीय चरण का नेतृत्व किया था। उन्होंने 1857 की क्रांति के लिए
जनजागृति के लिए पृष्ठभूमि तैयार की थी।
महारानी तपस्विनी झांसी की रानी
लक्ष्मीबाई की भतीजी और उनके ही सरदार पेशवा नारायण राव की पुत्री सुनन्दा थीं। वे
बाल विधवा हो गई। जप-तप मनन में लीन रहती थीं। घुड़सवारी और शस्त्र संचालन में दक्ष
थीं। पिता की मृत्यु के बाद जागीर की देखभाल का कार्य सुनन्दा ने अपने हाथ में ले
लिया । गुप्त रूप से अंग्रेजों से युद्ध
की योजना बना रही थीं। अंग्रेजों के
गुप्तचर से मिली जानकारी के आधार पर अंग्रेजो ने रानी सुनन्दा को
त्रिचनापल्ली किले में नजरबंद कर दिया।
तपस्विनी सुनंदा वहां से भागकर
नैमिषारण्य तीर्थ जा पहुंची और संत गौरीशंकर की शिष्य हो गईं। लोग उन्हें रानी
तपस्विनी के नाम से जानते थे। रानी तपस्विनी के आध्यात्मिक ज्ञान ने उनकी
आत्मशक्ति को बल दिया। वे अपने उपदेशों और प्रवचनों में देश प्रेम को प्राथमिकता
देतीं। लोगों को स्वराज्य के लिए प्रेरित करतीं। उनके प्रवचनों ने ही पूरे इलाकें
में क्रांति की भावभूमि तैयार की।
रानी तपस्विनी क्रांति के प्रतीक
लाल कमल देकर साधुओं को रवाना करतीं। उन्होंने धर्म के साथ राष्ट्र को जोड़ा और
धर्म भ्रष्ट करने वाले अंग्रेजों के खिलाफ
समाज को संगठित किया। उन्होंने सन्यासियों को कमंडल के साथ अस्त्र-शस्त्र
थमा दिये। साधु-सन्यासी गांव-गांव घूमकर समाज में क्रांति की प्रेरणा देने लगे।
जहां आवश्कयता होती वहां शस्त्र भी पहुंचाते। गांव शहर व सैनिक छावनियों तक में
सन्यासियों का जाल फैल गया। इन सबका सूत्रधार रानी तपस्विनी ही थीं। धार्मिक भावना
भड़कने के डर से अंग्रेज साधुओं को रोक नहीं पाये। उत्तर व मध्य भारत में क्रांति
का संदेश पहुंचा,संगठन खड़ा होने लगा। माता
तपस्विनी के अर्शीवाद के नाम से स्वातंत्रय समर की प्रतीक रोटी व कमल जन-जन और
सैनिकों को दिये जाने लगे।
1857 के युद्ध के समय महारानी
तपस्विनी ने घोड़े पर सवार होकर मोर्चा संभाला। छापामार दस्तों के साथ अंग्रेजों के
फौजी ठिकानों पर हमला किया पर दुर्भाग्य से 1857 की असफलता के साथ अंग्रेजों
द्वारा साधु संतों को दमन किया जाने लगा। महारानी तपस्विनी नेपाल की ओर चले गई और
अपने उपदेशों से जनता को अंग्रेजों के
उद्देश्य से अवगत करवाया। नेपाल में शस्त्रोें का कारखाना खोलने से संबध में 1901
में बालगंगाधर तिलक के साथ मिलकर योजना बनाई। योजना ने आकार लिया और जर्मन फर्म
क्रुप्स की सहायता से नेपाल में शस्त्रों का कारखाना खोला गया।
1905 में बंग-भंग आंदोलन के समय
महारानी तपस्विनी की प्रेरणा से साधु सन्यासियों ने फिर आंदोलन में भाग लिया। यह
संन्यासी अभियान का तीसरा चरण था।
तपस्विनी ने आह्वान किया कि यदि हम पूर्ण रूप से विदेशी वस्तुओं का उपयोग
बंद कर दें तो अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ें तुरंत हिल जायेंगी। रानी तपस्विनी अपने
जीवन के अंतिम समय तक क्रांति का संदेश देती रहीं। 1907 में उनका देहवसान हुआ।
प्रश्न-
मध्यप्रदेश में 1857 की क्रांति
सन्यासियों के योगदान पर प्रकाश डालिये ?
1857 की क्रांति में महारानी
तपस्विनी के योगदान का वर्णन कीजिए ?
यही भी पढ़ें.....
Post a Comment