भारत के इतिहास में जैन एवं बौद्ध धर्म - वन लाइनर सामान्य ज्ञान
जैन एवं बौद्ध धर्म - वन लाइनर सामान्य ज्ञान
जैन एवं बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति
- वैदिकोत्तर काल में समाज चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र) में विभाजित था। यह वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर निश्चित की गई थी।
- इसमें ब्राह्मणों को विशेषाधिकार दिये गए और वे समाज में सर्वोच्च होने का दावा करते थे। क्षत्रियों को दूसरा तथा वैश्य को तीसरा स्थान प्राप्त था। वैश्य वर्ण को कर चुकाने का दायित्व तथा चतुर्थ शूद्र वर्ण को तीनों वर्णों की सेवा का कर्त्तव्य था।
- इस तरह के वर्ण-विभाजन वाले समाज में तनाव पैदा होने की प्रतिक्रिया-स्वरूप तथा ब्राह्मणों के श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना भी इसका अन्यतम कारण हुआ।
- पूर्वोत्तर भारत में अच्छी वर्षा होने के कारण घने जंगल छाए हुए थे। उन जंगलों को साफ करने के लिये लोहे के औज़ारों का इस्तेमाल होने लगा तो मध्य गंगा के मैदानों में भारी संख्या में लोग बसने लगे। इस प्रदेश में बड़ी-बड़ी बस्तियाँ बसने लगीं और खेती करने के लिये लोहे के हलों के लिये बड़ी संख्या में बैलों की ज़रूरत होने लगी।
- हालाँकि उस समय बैलों (वैदिक कर्मकाण्डों में बलि के कारण) की कमी थी, इसलिये नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था को चलाने के लिये पशु-वध को रोकना आवश्यक था। अतः इन दोनों धर्मों में अहिंसा पर बल दिया गया।
जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कारण
- दोनों धर्मों का उदय तात्कालिक जन्ममूलक वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज की प्रतिक्रिया-स्वरूप हुआ था। उन्होंने आरंभिक अवस्था में वर्ण व्यवस्था को कोई महत्त्व नहीं दिया।
- दोनों धर्मों ने अहिंसा को विशेष स्थान दिया, क्योंकि अहिंसा से युद्धों का अंत हो सकता था। इसके फलस्वरूप व्यापार वाणिज्य में उन्नति हो सकती थी और असंख्य यज्ञों में बछड़ों और साँडों के लगातार मारे जाने से क्षीण होते पशुधन को बचाया जा सकता था। चूँकि यह पशुधन कृषिमूलक अर्थव्यवस्था के लिये आवश्यक था।
- दोनों धर्मों के भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन की विलासता की वस्तुओं का प्रयोग न करें। वे दाताओं से उतना ही दान ग्रहण करें जितना प्राण रक्षा के लिये आवश्यक हो। वे सरल, शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे।
जैन धर्म वन लाइनर सामान्य ज्ञान
- जैन धर्म में धर्म के सिद्धांतों के उपदेष्टा तीर्थंकर कहलाते थे। इसमें 24 तीर्थंकर हुए थे। महावीर को चौबीसवाँ व अंतिम तीर्थंकर माना जाता है
- जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव को माना जाता है। पार्श्वनाथ तेइसवें तीर्थंकर माने जाते हैं, जो वाराणसी के निवासी थे।
- महावीर की माता का नाम त्रिशला था, जो बिम्बिसार के ससुर लिच्छवी- नरेश चेतक की बहन थी। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था तथा वे क्षत्रिय कुल के प्रधान थे।
- जैन धर्म में पूर्वजन्म का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। तीर्थंकर महावीर के अनुसार, पूर्वजन्म में अर्जित किये गए पुण्य या पाप के अनुसार ही उच्च या निम्न कुल में जन्म होता है। उनके मतानुसार शुद्ध और अच्छे आचरण वाले निम्न जाति के लोग भी मोक्ष पा सकते हैं।
- कैवल्य द्वारा सुख-दुख पर विजय प्राप्त करने के कारण महावीर ‘जिन’ और उनके अनुयायी ‘जैन’ कहलाते थे।
- महावीर ने जैन धर्म के पाँच व्रतों में पाँचवां व्रत ब्रह्मचर्य को जोड़ा था।
- जैन अनुयायियों के संघ में स्त्री और पुरुष दोनों को स्थान मिला था।
जैन धर्म का त्रिरत्न
जैन धर्म में सांसारिक बंधनों से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं। मोक्ष पाने के लिये कर्मकांडीय अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। यह सम्यक् ज्ञान, सम्यक ध्यान और सम्यक् आचरण से प्राप्त किया जा सकता है। ये तीनों जैन धर्म के त्रिरत्न माने जाते हैं।
- वैशाली को महावीर का जन्म स्थान, पावापुरी को निवार्ण स्थान तथा चंपा में महावीर ने उपदेश दिये थे।
- जैन धर्म के उपदेशों को संकलित करने के लिये पाटलिपुत्र में एक परिषद् का आयोजन किया गया था।
दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन
महावीर की मृत्यु के 200 वर्षों के बाद मगध में 12 वर्षों तक अकाल पड़ा, जिससे भद्रबाहु के नेतृत्व में बहुत से जैन लोग दक्षिणापथ चले गए थे,तथा शेष स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में रह गए।
अकाल समाप्त होने पर भद्रबाहु वापस लौटे तो स्थानीय जैनियों से उनका मतभेद हो गया। इसी को सुलझाने के लिये पाटलिपुत्र में एक परिषद् का आयोजन किया गया लेकिन दक्षिणी जैनियों ने इसका बहिष्कार कर दिया, जिसके फलस्वरूप दक्षिणी जैन दिगम्बर और मगध के जैन श्वेताम्बर कहलाए।
- जैन धर्म में धर्मोपदेश के लिये आम लोगों के बोलचाल की प्राकृत भाषा को अपनाया गया तथा धार्मिक ग्रन्थों के लिये अर्द्ध-मागधी भाषा को, ये ग्रन्थ ईसा की छठी सदी में गुजरात के वलभी नामक स्थान में जो महान विद्या का केन्द्र था, अंतिम रूप से संकलित किये गए। प्राकृत भाषा से कई क्षेत्रीय भाषाएँ विकसित हुईं।
- इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय शौरसेनी है, जिनसे मराठी भाषा की उत्पत्ति हुई है। जैनियों ने अपभ्रंश भाषा में पहली बार कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे व इसका पहला व्याकरण तैयार किया।
- बौद्धों की तरह जैन लोग आरम्भ में मूर्तिपूजक नहीं थे, बाद में वे महावीर और तीर्थंकरों की पूजा करने लगे। इसके लिये सुन्दर और विशाल प्रस्तर-प्रतिमाएँ विशेषकर कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में निर्मित हुईं।
- जैन धर्म ने देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया है, परंतु उनका स्थान ‘ जिन’ से नीचे रखा गया है।
- पाँचवीं सदी में कर्नाटक में स्थापित जैन मठ ‘बसदि’ कहलाते थे।
- जैन धर्म में कृषि और युद्ध दोनों वर्जित हैं क्योंकि दोनों से जीव हिंसा होती है। फलतः जैन धर्मावलम्बियों में व्यापार और वाणिज्य करने वालों की संख्या अधिक थी।
महात्मा बुद्ध
- कपिलवस्तु के निकट नेपाल के तराई में अवस्थित लुम्बिनी को महात्मा बुद्ध का जन्म स्थान माना जाता है।
- गौतम बुद्ध ने अपने ज्ञान का प्रथम प्रवचन वाराणसी के सारनाथ नामक स्थान पर दिया। बौद्ध धर्म में इसे धर्म-चक्रप्रवर्तन कहा गया है।
- महात्मा बुद्ध ने अपना ध्यान सांसारिक समस्याओं में लगाया, वे व्यर्थ के वाद-विवादों में नहीं उलझे, चूँकि उस समय आत्मा और परमात्मा के विषय पर चर्चा ज़ोरों से चल रही थी। बुद्ध कहते थे संसार दुःखमय है, मनुष्य की इच्छाएँ (लालसा) दुःख का कारण हैं, अगर इन पर विजय पाई जाए तो मनुष्य का निर्वाण संभव है।
अष्टांगिक मार्ग
महात्मा बुद्ध ने दुःख की निवृत्ति के लिये
अष्टांगिक मार्ग बताया है,
अष्टांगिक मार्ग
के आठ मार्ग हैं-
1. सम्यक् दृष्टि
2. सम्यक् संकल्प
3. सम्यक् वाक्
4. सम्यक् कर्मान्त
5. सम्यक् आजीव
6. सम्यक् व्यायाम
7. सम्यक् स्मृति
8. सम्यक् समाधि
बौद्ध धर्म में मध्यम मार्ग को ही श्रेष्ठ
मार्ग माना गया है। वे अत्यधिक विलासिता और अत्यधिक संयम को स्वीकार नहीं करते थे।
बौद्ध धर्म में ईश्वर और आत्मा की सत्ता
स्वीकार नहीं की गई है। बौद्ध धर्म शुरू से ही दार्शनिक वाद-विवादों के जंजाल में
नहीं पड़ा, इसने लोगों के व्यावहारिक दुखों को दूर
करना ही अपना उद्देश्य समझा।
बौद्ध धर्म में ह्रास
- ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिये अपने धर्म में सुधार किया। उन्होंने गोधन की रक्षा पर बल दिया तथा स्त्रियों और शुद्रों के लिये भी धर्म का मार्ग प्रशस्त किया।
- बौद्ध भिक्षु जनजीवन की मुख्य धारा से कटते गए। उन्होंने पालि भाषा को छोड़ दिया और संस्कृत भाषा को ग्रहण किया।
- बौद्ध विहार राजाओं से सम्पत्तियाँ दान में लेने लगे। विहारों में अपार संपत्ति आने से और स्त्रियों के प्रवेश होने से उनकी स्थिति और भी खराब हो गई। अब बौद्ध धर्म में कर्मकांडों को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा।
जैन और बौद्ध धर्मों के समान धार्मिक विश्वास
दोनों धर्म समान रूप से अहिंसा का उपदेश देते हैं। दोनों धर्मों के पंचव्रत में अहिंसा को स्थान दिया गया है।
बौद्ध और जैन दोनों संप्रदाय सरल शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर हैं। दोनों संप्रदाय के भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन में विलास की वस्तुओं का उपयोग नहीं करें। उन्हें दाताओं से उतना ही ग्रहण करना था जितने से उनकी प्राण-रक्षा हो।
मध्यम मार्ग (मध्यम प्रतिपदा) का मार्ग बौद्ध धर्म में अपनाया गया है, जैन धर्म में नहीं।
बौद्ध धर्म के अनुसार न अत्यधिक विलास करना चाहिये न अत्यधिक संयम में रहना चाहिये। वे मध्यम मार्ग के प्रशंसक थे।
दोनों धर्मों में शांति और अहिंसा का उपदेश
होता था, जिससे विभिन्न राजाओं के बीच होने वाले
युद्धों का अंत हो सकता था। फलस्वरूप वैश्व वर्ग के व्यापार-वाणिज्य में उन्नति
संभव थी।
ब्राह्मणों की कानून संबंधी पुस्तकें जो धर्मसूत्र कहलाती थीं।
सूद पर धन लगाने के कारोबार को निंदनीय समझा जाता था और सूद पर जीने वालों को अधम कहा जाता था। अतः जो वैश्य व्यापार-वाणिज्य में वृद्धि होने के कारण महाजनी करते थे, वे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये इन धर्मों (जैन एवं बौद्ध) की ओर आकर्षित हुए।
व्यापार में सिक्कों के प्रचलन
से व्यापार-वाणिज्य बढ़ा और उससे समाज में वैश्यों का महत्त्व बढ़ा। स्वभावतः वे
किसी ऐसे धर्म की खोज में थे जहाँ उनकी सामाजिक स्थिति सुधरे। इसलिये उन्होंने
उदारतापूर्वक दान दिये।
बौद्ध धर्म तथा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी दोनों समाज में वर्ग/वर्णमूलक व्यवस्था के समर्थक थे। परंतु बौद्ध धर्म गुण और कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था मानते थे, जबकि ब्राह्मण जन्म के अनुसार मानते थे।
बौद्ध भिक्षु संसार से विरक्त रहते थे और ब्राह्मणों की निंदा करते थे, परंतु दोनों के विचार परिवार का पालन करने, निजी सम्पत्ति की रक्षा करने और राजा का सम्मान करने पर समान थे।
बौद्ध धर्म ने अहिंसा और जीवमात्र के प्रति दया की भावना जगा कर देश में पशुधन की वृद्धि की।
प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ सुत्तनिपात में गाय को भोजन, रूप और सुख देने वाली (अन्नदा, वन्नदा और सुखदा) कहा गया है और इसी कारण उसकी रक्षा करने का उपदेश दिया गया है।
बौद्ध धर्म में अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के लिये बौद्धों ने साहित्य-सर्जना में आमजन की भाषा पालि को अपनाया, जबकि जैन धर्म ने प्राकृत भाषा को।
बौद्ध धर्म ने बौद्धिक और साहित्यिक जगत में भी चेतना जगाई। इसने लोगों को बताया कि किसी भी वस्तु को भली-भाँति गुण-दोषों का विवेचन करके ग्रहण करें, तथा अंधविश्वास की जगह तर्क के आधार पर विश्वास करें। इससे लोगों में ‘बुद्धिवाद’ का महत्त्व बढ़ा।
बौद्ध धर्म के आरम्भिक पालि साहित्य को तीन कोटियों में बाँटा जा सकता है। (a) बुद्ध (b) संघ और (c) धम्म।
बौद्ध साहित्य कोटि
- प्रथम कोटि में ‘बुद्ध’ के वचन और उपदेश हैं।
- दूसरी कोटि ‘संघ’ में सदस्यों द्वारा पालनीय नियम बताए गए हैं।
- बौद्ध साहित्य की तीसरी कोटि ‘धम्म’ में दार्शनिक विवेचन दिये गए हैं।
बौद्ध विहार महान विद्या केंद्र हो गए थे, जिन्हें आवासीय (छात्रावासीय) विश्वविद्यालय
की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें बिहार में नालंदा और विक्रमशीला तथा गुजरात में
वलभी उल्लेखनीय है। सम्राट अशोक के शासनकाल में तक्षशिला महान बौद्ध विद्या केंद्र
था।
प्राचीन भारत की कला पर बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव है। भारत में पूजित पहली मानव प्रतिमाएँ बुद्ध की हैं। श्रद्धालु उपासकों ने बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाओं को पत्थरों पर उकेरा है।
भारत के पश्चिमोत्तर सीमांत में यूनान और भारत के मूर्तिकारों ने नए ढंग की कला की सृष्टि करने के लिये सम्मिलित रूप से प्रयास किया, जिसका परिणाम ‘गंधार कला’ शैली के नाम से विख्यात है।
भिक्षुओं के निवास के लिये चट्टान तराश कर कमरे बनाए गए और इस प्रकार गया की बराबर की पहाड़ियों और पश्चिम भारत में नासिक के आस-पास की पहाड़ियों में गुहा-वास्तुशिल्प का आरम्भ हुआ।
गौड़ देश के शिवभक्त राजा शशांक ने बोधगया में
उस बोधिवृक्ष को काट डाला जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।
ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों को
सताया था।
शैव संप्रदाय के हूण राजा मिहिरकुल ने सैकड़ों
बौद्धों को मौत के घाट उतारा था।
सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया तथा
इस धर्म को दूसरे देशों में फैलाया और इसे विश्व धर्म का रूप दिया।
सम्राट अशोक ने बुद्ध के निर्वाण के दो सौ साल बाद बौद्ध धर्म ग्रहण किया। अशोक ने अपने धर्मदूतों के द्वारा इस धर्म को मध्य-एशिया, पश्चिम-एशिया, श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत तथा चीन और जापान के भागों में फैलाया और इसे विश्व धर्म का रूप दिया।
बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख अंग थेः बुद्ध, संघ और धम्म। संघ के तत्त्वावधान में सुगठित प्रचार की व्यवस्था होने से बुद्ध के जीवन काल में ही बौद्ध धर्म ने तेज़ी से प्रगति की। मगध, कोसल और कौशाम्बी के राजाओं और अनेक गणराज्यों ने बौद्ध धर्म को अपनाया।
बौद्ध धर्म पुनर्जन्म को मानता है।
बौद्ध धर्म यह भी उपदेश देता है कि जो व्यक्ति दरिद्र भिक्षुओं को भीख देगा,वह अगले जन्म में धनवान बनेगा।
द्वादश निदान
बौद्ध धर्म के प्रतीत्य
समुत्पाद (किसी वस्तु के होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति) में बारह क्रम है, जिसे द्वादश निदान भी कहते हैं।
जिसमें संबंधित हैं-
जाति, जरा-मरण-भविष्य काल से, अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, स्पर्श-भूतकाल से,
तृष्णा, वेदना, षडायतन, भव, उपादान-वर्तमान काल से
इसमें बताया गया है कि मनुष्य जब तक निर्वाण
प्राप्त नहीं करता वह जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसा रहता है।
गौतम बुद्ध से संबन्धित स्थान और घटनाएँ
घटनाएँ -स्थान
- जन्म - लुम्बिनी
- ज्ञानप्राप्ति- बोधगया
- प्रथम प्रवचन- सारनाथ
- निर्वाण - कुशीनगर
छठी सदी ईसा-पूर्व में व्यापार-
इस काल में शिल्पी और वाणिक दोनों अपने-अपने
प्रमुखों के नेतृत्व में श्रेणियाँ बनाकर संगठित हो गए थे। इस काल की अठारह
श्रेणियों का उल्लेख मिलता है, लेकिन
विशेष रूप में उल्लेख केवल लुहारों, बढ़इयों, चर्मकारों और रंगकारों की श्रेणियों का
हुआ है।
वाराणसी इस काल का महान व्यापार-केंद्र था।
व्यापार मार्ग श्रावस्ती से पूर्व और दक्षिण की ओर निकलकर कपिलवस्तु और कुशीनगर
होते हुए वाराणसी तक गया था।
इस काल में सबसे पहले धातु के सिक्कों का चलन
आरंभ हुआ था। आरंभ में ये मुख्यतः सिक्के चांदी के होते थे।
अन्य तथ्य
- वैदिक ग्रंथों में आए शतमान और निष्क शब्द मुद्रा के नाम माने जाते हैं।
- पालि ग्रंथों में गाँव के तीन प्रकार बताए गए हैं-पहले प्रकार में सामान्य गाँव है जिनमें विविध वर्णों और जातियों का निवास रहता था। ऐसे गाँवों की संख्या सबसे अधिक थी। दूसरे, प्रकार में उपनगरीय गाँव थे जिन्हें शिल्पी-ग्राम कहते थे, ये गाँवों को नगरों से जोड़ते थे। तीसरे प्रकार में सीमांत ग्राम आते थे, जो जंगल से संलग्न देहातों की सीमा पर बसे थे।
- ‘भोजक’ पहले प्रकार के गाँव का मुखिया कहलाता था।
- धर्मसूत्रों में हर वर्ण के लिये अपने-अपने कर्त्तव्य तय कर दिये गए और वर्णभेद के आधार पर ही व्यवहार-विधि (सिविल लॉ) और दंडविधि (क्रिमिनल लॉ) तय हुई।
- भारत में सबसे प्राचीन सभ्यता ‘हड़प्पा सभ्यता’ अपनी नगर योजना के लिये प्रसिद्ध है।
- लोहे का ज्ञान कांसे के बाद वैदिक काल में 1000 ई.पू. में हुआ।
- भारत में सबसे प्राचीन सिक्के पंचमार्क्ड/आहत सिक्के 6ठी शताब्दी ई.पू. में अस्तित्व में आए।
- सबसे पहले भारत में सोने के सिक्के हिंद-यवन शासकों (द्वितीय शताब्दी ई.पू.) ने जारी किये।
- वैश्यों में वणिक जो व्यापार करते थे, सेट्ठि कहलाते थे। क्षत्रियों के अतिरिक्त वैश्यों ने महावीर और गौतम बुद्ध दोनों की उदारतापूर्वक सहायता की थी।
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