मालवा का लोक साहित्य | Malwa Ka lok Sahitya
मालवा का लोक साहित्य | Malwa Ka lok Sahitya
लोक साहित्य
लोकवार्ता का क्षेत्र बहुत व्यापक होता हैं और
स्पष्ट है कि लोक साहित्य उसका एक अंग है। जहां मानव के विभिन्न आचारों और विचारों
को स्पर्श लोक साहित्य से होता है, वहां
तक लोकवार्ता के अन्य विषय लोक साहित्य के लिए सहायक होते हैं। लोक सािहत्य, लोकवार्ता का महत्वपूर्ण अंग है। इसके
अंतर्गत स्त्रियों, पुरूषों और बच्चों का गद्य एवं पद्य
वागम्य आता है। लोक साहित्य को मोटे तौर पर तीना भागों में विभाजित किया जा सकता
है - स्त्रियों का साहित्य,
पुरूषों का साहित्य एवं बच्चों का
साहित्य ।
मालव- मालव शब्द की उत्पत्ति
मालव- मालव शब्द की उत्पत्ति के संबंध में अलग
अलग मत हैं।सबसे स्वीकार्य मत है कि मालवगण के आगमन के पश्चात इस जनपद का नाम मालव
अथवा मालवा पड़ा। राहुल सांकृत्यायन के
अनुसार ‘मल्ल‘ से मालवा शब्द आया है। बुद्ध के समय और उसके बाद तक मालव अवंति जनपद
कहलाता था। अनेक ग्रंथों में ‘मालव‘ शब्द का उल्लेख मिलता है। महाभारत में
प्रसिद्ध कीचक और उसकी भागिनी सुदेष्णा, मालव
कुमारी से उत्पन्न बताये गये हैं। अश्वपति कैकय की कन्य सावित्री मालवी थी जिसे यम
द्वारा मालव नाम के सौ पुत्र होने का वरदान प्राप्त हुआ था।
‘मालव‘ शब्द उपजाऊ अर्थ का भी घोत्तक है।
मालवा में ‘माल‘ शब्द उस भूमि के लिए प्रयुक्त होता है जहां फसल बोयी जाती है। यह
भूमि ग्राम के निकट होती है। मरू शब्द के
ठीक विपरीत माल है- ‘मरू मालव महिदेव गवासा‘ । अतः मालवा उपजाऊ प्रदेश का सूचक है
और संभवतः माल से बना है।
मालवी भाषा का क्षेत्र-
मध्यवर्ती भारत, भाषा की दृष्टि से एक स्वतंत्र इकाई नहीं है। फिर भी चूकिं मालवा साँस्कृतिक दृष्टि से मध्यवर्ती भारत का स्वतंत्र क्षेत्र है, और जैसा स्वीकृत है मालवी उसकी प्रधान
भाषा मानी जाती है। मालवी,
दक्षिण में नर्मदा नदी के और मध्य में
निमाड़, भोपाल, नरसिंहगढ़, राजगढ़, दक्षिण झालावाड़, मंदसौर, दशपुर, नीमच, रतलाम, पूर्व झाबुआ,
उज्जैन, देवास , इंदौर में बोली जाती है। यद्यपि मालवी
का अधिकांश क्षेत्र मध्यभारत प्रांत के अंतर्गत आता है। मध्य पदेश के चांदा और
बैतूल जिलों में भी कुछ जातियों के द्वारा मालवी बोली जाती है।
मालवी के विकास की अवस्था
प्राचीन मालवी 11 वीं शताब्दी तक -अवंती प्राकृत- अवंती अपभ्रंश
मध्यकालीन मालवी- पूर्व मध्यकालीन एवं उत्तर
मध्यकालीन इसका समयकाल 18वीं शताब्दी के मध्य तक का है।
आधुनिक मालवी- पूर्वाधुनिक मालवी- 19वीं शताब्दी के मध्य तक एवं
उत्तराधुनिक मालवी 20 शताब्दी
मालवा का साहित्य
- पं. रामनरेश त्रिपाठी के प्रयत्नों से इस क्षेत्र में लोक साहित्य के संकलन की प्रेरणा मिली। 1932-38 के बीच तत्तकालीन इंदौर राज्य के शिक्षा रिवेन्यू विभाग ने हिन्दी साहित्य समिति के तत्वाधान में लोकगीतों के संकलन का कार्य प्रारंभ किया।
- जनवरी 1933 में श्रीरामज्ञा द्विवेदी ‘समीर‘ ने ‘हिन्दुस्तानी पत्रिका‘ में मालवी के भेद और उसकी विशेषताएं शीर्षक से लेख में लोकसाहित्य के संबंध में अपना अभिमत व्यक्त किया।
- होल्कर राज्य द्वारा किये गये लोकगीतों का संकलन मध्य. भारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर के पास सुरक्षित है।
- चिंतामणि उपाध्याय में मालवा लोकसाहितय संकलन के कार्य को दो काल मे विभाजित किया प्रथम 1932-1944 और दूसरा 1944- 1947 तक।
मालवा का लोकगायन
लोकगायन पारंपरिक संगीत की एक विशेष
क्षेत्रीयता के प्रभाव को दर्शाता है जो पीढीगत सांस्कृतिक धरोहर के रूप में एक
पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किए जाती है। मालवा की लोक गायन परंपरा अत्याधिक
लोकप्रिय है जो मुख्यता कर्तव्य, वीरता
और प्रेम जैसे मानवीय मूल्यों एवं भावनाओं पर आधारित है। मालवा की प्रमुख लोक गायन
परंपरा इस प्रकार हैं-
मालवा का लोक साहित्य
वृहद् मालवा का लोक साहित्य भाषा और बोलियों की
दृष्टि से अनेक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
मालवी लोक गीत
- मालवी गीतों में प्रायः शांति और संतोष की भावना देखने को मिलती है। यहां का जन, उपजाऊ भूमि का स्वामी होकर सदैव निश्चिंत रहा है उसमें उतावलापन नहीं है। मालवा की परंपराएं, विश्वास और धारणाओं से बंधी है।
- मालवी लोकगीतों में वीररस एवं पुरूषत्व भाव का अभाव पाया जाता है। यहां के गीतों में लोगों की उदार मनोवृत्ति और नैतिक आदर्शों की छाप देखी जाती है।
- मालवी गीतों की सामान्य प्रवृत्तियां भी मुख्य रूप से राजस्थानी संस्कारों और गौरा रूप से गुजराती मान्यताओं से प्रभावित प्रतीत होती हैं।
- गुजराती संस्कार तो मालवी लोकगीतों में राजस्थानी की भांति ही प्रविष्ट हुए हैं
- मालवी लोक साहित्य की प्रवृत्तिया ‘जन्म-विवाह-मुत्यु इन तीन प्रमुख संस्कारों से संबंधित हैं।
- मालवी लोक साहित्य में स्त्रैण प्रवृत्ति की गीत परम्परागत सम्पत्ति हैं। स्त्रैण गीतों में गत्यामकता का अभाव देखने को मिलता है।
- मालवी गीतों का रंग भड़कीला नहीं है, हल्के और सौन्दर्य प्रसाधनात्मक नैसर्गिक रंगों का उल्लेख इनमें मिला होता है। भावनाओं की सादगी, सरसता तथा रागात्मक तात्वों से मालवी गीत परिपूरित हैं।
जन्म संस्कार के गीत- मालवा में बालक के जन्म
से संबंधित लौकिक आचारों का आयोजन मुख्यतः ब्रज, राजस्थान, बंुदेलखंड पूर्वी एवं उत्तरी भारत के
जनपदों की भांति होता है।
विवाह के गीत- मालवी के विकास गीतों का अध्ययन
किसी एक जाति के वैवाहिक गीतों और प्रथाओं से नहीं किया जा सकता । जातियों के आगमन
चर्क ने वैवाहिक प्रथाओं और गीतों को आलंगित किया है। विवाह गीतों में वैदिक आचार
का धुरी माना जा सकता है,
उसी धुरी के चारों और लोकाचारों का
ताना बना पूरा हुआ है। लोकाचार में ही लोकवार्ता और लोकगीत के दर्शन होते हैं।
मालवा के विवाह गीतों का आरंभ सगाई के गीतों से ही आरंभ हो जाता है और विदाई के
विषाद गीत तक चलता है।
बाल गीत- विश्व के समस्त भागों में
बालक-बालकाओं के खेलों और खेलगीतों में शताब्दियों की सांस्कृतिक एकता और परंपरा
के सूत्र होते हैं। खेल भी लोकवार्ता और प्राचनी प्रथाओं के इतिहास पर प्रकाश
डालते हैं। किन्तु ऐसे खेलों के अध्ययन के साधनों की आवश्यता होती है। गीत-समबद्ध
खेल अधिकांश में उन लोक-नाट्यों की श्रेणी में आते हैं जिसमे अनुभावों और अभिनय के
द्वारा परिस्थितियों के चित्र सजीव होते हैं।
मालवा क्षेत्र की दसा माता की कथा-
दसा माता की कथा राजा नल से संबंधित है। कथा के
अनुसार राजा दमयंती के गले में बंधा दसा माता का सूूत्र राजा नल ने क्रोध में आकर
तोड़ डाला था, परिणामस्वरूप नल को विपत्तियों का सामन
करना पड़ा। जब पुनः सही सूत्र दमयंती ने धार किया तभी जाकर विपत्तियों का निवारण हो
सकता। मालवा में स्त्रियां अश्वत्थ वृक्ष के समीप जाक दसा माता के नाम से डोरे
चढ़ाती हैं और वहां बैइकर माता के संबंध में प्रचलित वार्ता कहती हैं।
कलगी तुर्रा
पंन्द्रहवी शताब्दी के लगभग मुस्लिम सभ्यता और
साहित्य के प्रभाव लोक-भाषा और लोक-छंद पर पर्याप्त मात्रा में प्रकट होने लगा था।
इस काल में मालवा , निमाड़ और उत्तर भातर में गाने की एक
नवीन परिपाटी का उदय हुआ जिसे कलगी तुर्रा कहते हैं।
कलगी तुर्रा के दो पक्ष हैं कलगी अखाड़े के लोग
कलगी को माता और तुर्रा को पुत्र मानते हैं और तुर्रा अखाडें के लोग कलगी-तुर्रा
को दम्पत्ति बताते हैं । इन्हीं दोनों पक्षों के मध्य संवादातमक प्रश्नोत्तर
प्रायः आयोजित होते रहते हैं। मध्यस्थ का कार्य ‘टुंडा‘ नामक पक्ष द्वारा किया जाता है। टुंडा वस्तुतः
लुप्त होते हुए प्रश्न को उभारने में सहायक होता है। दार्शनिक व्याख्यानुसार कलगी
और तुर्रा आदिशक्ति और शिव का सूचक है। बोलचाल में इसे ‘किलंगी-तुर्रा‘ भी कहते हैं।
मालवा प्रदेश के लोक गायन
मालवा क्षेत्र में प्रातःकाल नाथ संप्रदाय के
लोग एकल या सामूहिक रूप में चिकारा, सितार
तबला आदि वाद्ययंत्रों के साथ भरथरी कथा का गायन करते हैं। चिकारा प्राचीनतम् और
पारंपरित वाद्य यंत्र है जो नारियल की नट्टी, बांस
और घोड़े के बालों से निर्मित होती है। छत्तीसगढ़ में भरथरी गायन की परम्परागत
लोकशैली प्रचलित है। भरथरी लोकगायन के अंतर्गत, मालवा
के गांवों में आज भी नाथपंथी लोक गोपीचंद कथा, गोरखवाणी, कबीर, मीरा आदि के भजन गाते हुए मिल जाते हैं।
संजा गीत
मालवा क्षेत्र में संजा गीत किशोरियों की
पारंपरिक गायन पद्धति है। इसमें किसी प्रकार के वाद्ययंत्र का प्रयोग नहीं होता
है। यह गीत पितृपक्ष में शाम के समय किशोरियों द्वारा गया जाता है।
हीड़ गायन
मालवा क्षेत्र में श्रावण महीने में हीड़ गायन
की प्रथा है जो मुख्यतः अहीरों का अवदानपरक लोक आख्यान है। इसमें कृषि संस्कृति
तथा ग्यारस माता की कथा का वर्णन किया जाता है। हीड़ गायन होली, दीवाली, जनमाष्टमी, नवरात्रि और गोवर्धन पूजा के समय किया
जाता है। हीड़ गायन उच्च स्वर व शास्त्रीय शैली के अलाप में गाया जाता है।
बरसाती बारता
इसमें चम्पू काव्य (मावली गद्य पद्य) का चरम
उत्कर्ष देखा जा सकता है। बरसाती बरता ऋतु
कथा गीत है,जो बरसात के समय गाया जाता है। इसलिए
इसे बरसाती बारता कहा जाता है।
निगुर्णी गायन
निगुर्णी लोक गायन मालवा की प्राचीन परंपरा है, जिसमें कबीर के अध्यात्म की छाप होती
है तथा नश्वर शरीर, आत्मा की अमरता तथा परमात्मा तत्वों की
सरल ग्रामीण प्रतीकों के माध्यम से विवेचना की होती है। निगुर्णिक अथवा निरगुणिया
गायन के क्षेत्र श्री प्रहलाद सिंह टीपणया अत्यंत प्रसिद्ध हैं। जिन्होंने कबीर, मीरा, रैदास आदि के भक्ति पदों का गायन किया है। निगुर्णी गायन को नारदीय
भजन भी कहा जाता है।
रेलो गीत
यह भील व कोरकू जनजाति में गाया जाता है। रेलो
गीत प्रुख रूप से नवयुक एवं युवतियों द्वारा गाया जाता है।
मालवा के लोक नृत्य
आड़ा-खड़ा व रजवाड़ी
आड़ा-खड़ा व रजवाड़ी नृत्य की परंपरा किसी अवसर
विशेष पर संपूर्ण मालवा क्षेत्र में देखी जा सकती है। यह नृत्य ढोल की पारंपरिक
कहेरवा-दादरा तालों पर किया जाताहै यह विशेषतः महिला प्रधान नृत्य है। रजवाड़ी
नृत्य साड़ी के पल्लू को पकड़कर तथा आड़ा नृत्य झुककर कहेरवा की ताल पर किया जाता है।
मटकी नृत्य
यह मालवा का एक समुदाय नृत्य है। इस नृत्य में
नर्तकियां ढोल की ताल पर नृत्य करती हैं। इस ढोल को स्थानीय स्तर पर मटकी कहा
जाताहै। स्थानीय स्तर पर झेला कहलाने वाली अकेली महिला इसे प्रारंभ करती है, जिसमें अपने पारंपरिक मालवी कपड़े पहने
और चेहरे पर घूघंट ओढ़े अन्य नर्तकियां बाद में शामिल होती हैं।
मालवा की चित्रकला
सवनाही चित्रकला
सवनाही चित्रकला श्रावण मास में हरतालिका पर्व
के अवसर पर गोबर से बनाई जाती है। यह चित्रकला जादू, टोना की मान्यता को ध्यान में रखते हुए उससे बचाव के लिए बनाई जाती
है।
संजा चित्रकला
मालवा क्षेत्र में किशोरियां श्राद्ध पक्ष में
दीवार पर गोबर, फूलपत्ती अथवा चमकीली पत्तियों को सोलह
दिनों तक सजाकर अलग-अलग पारंपरिक आकृतियां बनाती हैं।
मांडना
भूमि अलंकर के रूप में मांडना सर्वथा स्वतंत्र
और पूर्ण कला विधा है। यह दीपावली के अवसर पर तथा भाई-दूज के पर्व प बनाई जाती है।
दिवासा
यह मालवा क्षेत्र में प्रचलित भित्ति चित्र कला
है, जो किशोरियों द्वारा श्राद्ध पक्ष में
चित्रित की जाती है।
चित्रावण
चितरे जाति के द्वारा घर तथा मंदिर की दीवारों
पर चित्रावण उत्कीर्ण किए जाते हैं। विशेषकर इसमें मुख्यतः विवाह समारोह के चित्रण
अंकित किये जाते हैं।
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