1857 के विद्रोह के कारण | 1857 की क्रांति के कारण
1857 के विद्रोह के कारण (Causes of The Revolt of 1857)
- 1857 के विद्रोह के प्रशासनिक और आर्थिक कारण
- 1857 के विद्रोह के सामाजिक और धार्मिक कारण
- 1857 के विद्रोह के सैनिक कारण
Quick Over View
- डलहौजी की विलय की नीति ने सभी राजाओं को व्याकुल कर दिया। हिन्दू राजाओं से दत्तक पुत्र लेने का अधिकार छीन लिया गया।
- विवादास्पद मामलों में कम्पनी का निर्णय बाध्य होता था और कोर्ट आफ डाइरेक्टरर्स का निर्णय अन्तिम था।
- समाज-विरोधी तत्वों को विद्रोह के दिनों में स्वर्ण अवसर मिला और उन्होंने विद्रोहियों की संख्या में वृद्धि कर दी।
- पद-वृद्धि के अवसर बहुत ही कम थे भारतीयों की यह धारणा बन गई कि अंग्रेज़ उन्हें " लकड़हारे अथवा कहार " (hewers of wood and drawers of water) बनाना चाहते हैं।
- ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रशासनिक कार्य प्रणाली "अयोग्य और अपर्याप्त" (inefficient and insufficient) थी। भूमि कर व्यवस्था तो बहुत ही अप्रिय थी।
- अंग्रेजों की आर्थिक नीतियां भी भारतीय व्यापार और उद्योगों के विरुद्ध थीं।
- यूरोपीय अधिकारी वर्ग भारतीयों के प्रति बहुत कठोर तथा असहनीय थे। वे भारतीयों को काले (nigger) अथवा सूअर की संज्ञा देते थे।
- अंग्रेजों का एक उद्देश्य भारतीयों को ईसाई बनाना भी था यह कम्पनी के अध्यक्ष मैंगल्ज़ ( Mangles) के हाऊस आफ़ कामन्स में किए गए एक भाषण से स्पष्ट होता है।
- भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार से सैनिकों की सेवा शर्तों पर प्रतिकूल प्रभाव हुआ।
- 1844 में चार बंगाल रेजिमेंटों ने उन्हें अतिरिक्त भत्ता न मिलने तक सिन्ध में जाने से मनाही कर दी थी।
1857 के विद्रोह के कारण विस्तृत रूप से
ऐंग्लो-इण्डियन
इतिहासकारों ने सैनिक असन्तोषों तथा चर्बी वाले कारतूसों को ही 1857 के महान
विद्रोह का सबसे मुख्य तथा महत्वपूर्ण कारण बताया है। परन्तु आधुनिक भारतीय
इतिहासकारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि चर्बी वाले कारतूस ही इस विद्रोह का
एकमात्र कारण अथवा सबसे प्रमुख कारण नहीं था। चर्बी वाले कारतूस और सैनिकों का
विद्रोह तो केवल एक चिनगारी थी जिसने उन समस्त विस्फोटक पदार्थों को जो राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों से एकत्रित
हुए थे, आग
लगा दी और वह दावानल का रूप धारण कर गया।
1857 के विद्रोह के राजनैतिक कारण
कम्पनी की भारतीय रियासतों पर क्षमताशाली नियंत्रण (Effective control) और धीरे धीरे समाप्ति (gradual extinction ) की नीति ने लार्ड वैलेजली के अधीन सहायक सन्धि की प्रणाली के रूप में एक 'निश्चित आकार' धारण कर लिया। इस तर्क का अन्तिम रूप डलहौजी के काल में सम्मुख आया जिसने नैतिक और राजनैतिक आचार की सभी सीमाओं को छिन्न-भिन्न कर के व्यपगत के सिद्धान्त ( doctrine of lapse) को गढ़ा।
डलहौजी की विलय की नीति ने सभी राजाओं को व्याकुल कर दिया। हिन्दू राजाओं से दत्तक पुत्र लेने का अधिकार छीन लिया गया। उत्तराधिकार का अधिकार "उनको नहीं रहा जिनकी धमनियों में वंश के प्रवर्तक का रक्त नहीं बह रहा होता था।" आश्रित राज्य (Dependent states) और रक्षित सहायकों (protected allies) का भेद बहुत सूक्ष्म था तथा केवल बाल ही खाल उतारने वाली बात थी।
विवादास्पद मामलों में कम्पनी का निर्णय बाध्य होता था और कोर्ट आफ डाइरेक्टरर्स का निर्णय अन्तिम था। पक्षपात रहित, शुद्ध तथा अशुद्ध का निर्णय करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तो था नहीं। पंजाब, पीगू और सिक्किम, विजय के अधिकार द्वारा विलय किए गए, सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बघाट, ऊदेपुर, झांसी और नागपुर व्यपगत के सिद्धान्त के अन्तर्गत विलय कर लिए गए थे। अवध को शासितों के हित में विलय किया गया तंजौर और कर्नाटक के नवाबों की राजकीय उपधियाँ समाप्त कर दी गई थीं। भारतीय राजे यह मानने लगे थे कि सभी रियासतों का अस्तित्व खतरे में है और इन सबका विलय होना के केवल समय का प्रश्न है । साधारण विश्वास था कि यह विलय "व्यपगत के सिद्धान्त के कारण नहीं अपितु सभी "नैतिकताओं के व्यपगत" होने के कारण हुआ है इन रियासतों के भय निराधार नहीं थे.
ब्रिटिश साम्राज्य के एक निर्माता, सर चार्ल्स नेपियर के पत्र- व्यवहार से स्पष्ट है । उसने लिखा था " यदि मैं 12 वर्ष के लिए भारत का सम्राट होता...तो कोई भारतीय राजा शेष नहीं रहता.... निज़ाम का नाम भी सुनाई न देता....नेपाल हमारा होता.... ।" मालेसन ने ठीक ही कहा है कि डलहौजी की नीति ने और अन्य ऊंचे पदाधिकारियों के कथनों और लेखों ने एक प्रकार का 'अविश्वास' का वातावरण उत्पन्न कर दिया था और भारतीयों को यह प्रतीत होने लगा कि अंग्रेज़ "मेमने के रूप में भेड़िये" की भूमिका निभा रहे हैं ।
मुसलमानों की भावनाएँ भी गम्भीर रूप से आहत हुई थीं। लार्ड डलहौजी जो साम्राज्य में साम्राज्य जीवित रखने के पक्ष में नहीं था, ने शाहजादा फकीरुद्दीन के उत्तराधिकार को मान्यता तो दे दी थी परन्तु उस पर बहुत से प्रतिबन्ध लगा दिये थे ।
1856 में फकीरुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् लार्ड कैनिंग ने घोषणा की कि फकीरुद्दीन द्वारा तिलांजलि दिए हुए मामलों के अतिरिक्त नवीन उत्तराधिकारी शहज़ादे को राजकीय उपाधि और मुगल महल दोनों ही छोड़ देने होंगे। इस घोषणा से मुसलमान बहुत चिन्तित हो गए। वे समझे थे कि अंग्रेज़ तैमूर के वंश को नीचा दिखाना चाहते हैं।
जैसा कि एलेग्जेण्डर डफ ने लिखा है
"पिछले 100 वर्षों से समस्त भारत में लोग निजी घरों में अथवा मस्जिदों में तैमूर के वंश, जिसका प्रतीक वे दिल्ली के सम्राट को मानते हैं, की समृद्धि के लिए प्रार्थना करते रहे हैं। इस तैमूर के वंश की समृद्धि का अर्थ केवल अंग्रेज़ी साम्राज्य का पतन और प्राचीन वंश का पुनः स्थापन ही है। अतएव उनके मामले में अंग्रेजी सरकार के प्रति विरोध और इसके नष्ट होने के लिए तीव्र इच्छा एक प्रकार का धार्मिक कर्तव्य है जो वे अपने हृदय में संजोये रखते हैं क्योंकि यह उन्हें धार्मिक विश्वास तथा अपने पूर्वजों की समृद्धि के रूप में मिला है।"
यह भी तर्क प्रस्तुत किया गया है कि एक और राजनैतिक कारण भारत में ब्रिटिश शासन का स्वरूप " अनुपस्थित प्रभुसत्ता" (absentee sovereigntyship) के रूप में थी और अंग्रेजों के विरोध के लिए इसका भारतीय मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। पठान और मुग़ल जिन्होंने भारत को विजय किया, कालान्तर में भारत में ही बस गए तथा भारतीय बन गए। यहाँ से एकत्रिक किया गया कर यहीं व्यय होता था। अंग्रेजों के विषय में भारतीय यह अनुभव करते थे कि इन पर हजारों मील दूरी से राज्य किया जाता है और देश के धन का शनै: शनै: निकास हो रहा है.
इसके अतिरिक्त गत 40 वर्षों से अनुसरण की हुई अंग्रेजी राज्य द्वारा स्थापित शान्ति (Pax Britannica) की नीति के कारण पिण्डारी, ठग तथा अन्य नियमित सैनिक जो भारतीय रियासतों की सेनाओं के अंग होते थे, वे सब अब समाप्त हो चुके थे और उन दलों से निवृत्त सैनिक अब इस विद्रोह में सम्मिलित हो गए, विशेषकर समाज-विरोधी तत्वों को विद्रोह के दिनों में स्वर्ण अवसर मिला और उन्होंने विद्रोहियों की संख्या में वृद्धि कर दी।
1857 के विद्रोह के प्रशासनिक और आर्थिक कारण
भारतीय रियासतों के विलय के बहुत से सामाजिक और
आर्थिक प्रभाव हुए।
इस विषय में सर टॉमस (Sir Thomas Munro) ने 1817 में यों लिखा था: "विदेशी विजेताओं ने भारतीयों पर बहुत अत्याचार किए हैं परन्तु उन में से किसी ने भी इन्हें इतना हेय नहीं माना जितना हम मानते हैं। किसी ने भी समस्त जाति को अविश्वसनीय और ईमानदारी के अयोग्य नहीं माना था और न ही केवल उस समय सेवा करने के योग्य माना जब उसके बिना गुज़र न हो सके। यह न केवल अनुदारता ही नहीं अपितु व्यवहार कुशलता भी नहीं है कि हम उन लोगों के चरित्र को जो हमारे अधीन हो गए हैं- पूर्णतया अधोगति को पहुँचा दें।" 1833 के चार्टर ऐक्ट सिफारिशों के होते हुए भी नीति लगभग वही रही थी।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रशासनिक कार्य प्रणाली "अयोग्य और अपर्याप्त" (inefficient and insufficient) थी। भूमि कर व्यवस्था तो बहुत ही अप्रिय थी। नव प्राप्त जिलों में कृषक लगभग सदैव विद्रोह करते रहते थे और भूमि कर एकत्रित करने के लिए सेना भेजनी पड़ती थी। उदाहरण के रूप में पानीपत के जिले में पुलिस कार्य के लिए तो केवल 22 घुड़सवार थे परन्तु भूमि कर एकत्रित करने के लिए 136 व्यक्ति कार्य करते थे विद्रोह के आरम्भ में ही सर हेनरी लॉरेन्स ने एक बार कहा था "यह सब जैकसनों, लॉरेन्सों, टॉमसनों और एडमन्स्टोनों की कृपा है।" इन नव प्राप्त जिलों में सरकार ने कृषकों के साथ सम्पर्क बना लिया था और मध्यजन नहीं रहे थे उत्तर- पश्चिमी प्रान्त (यू.पी.) की भूमि कर व्यवस्था के विषय में यह कहा गया था कि "यह भयानक प्रयोग है.... जिसका उद्देश्य समाज के समस्त तल को समतल कर देना है।" बहुत से तालुकदार और वंशानुगत भूमिपति (जो सरकार का भूमि कर एकत्रित करते थे) अपने-अपने पदों तथा अधिकारों से वंचित कर दिए गए। कुछ कर मुक्त भूमिपतियों को कहा गया कि वे अपना "अधिकार पृच्छा (Quo Warranto) अर्थात् वह दस्तावेज़ दिखाएं जिसके द्वारा उन्हें कर मुक्त किया गया था।" यह प्रायः सम्भव नहीं था और फलस्वरूप बहुत सी ऐसी भूमि ज़ब्त कर ली गई। ऐसी भूमि पुनः नीलाम कर दी गई। कई बार यह भूमि वे लोग ले लेते थे जो जमींदारी के कार्य लेशमात्र भी नहीं समझते थे और वे लोग प्राय: लोगों का शोषण करते थे। यह जैकसन की नीति थी कि अवध के तालुकदारों की भूमि के स्वत्वधिकारों (titles) की जांच की जाए तथा स्थानीय सैनिकों की छटनी कर दी जाए और यही सैनिक व तालुकदार इस प्रदेश में विद्रोह के केन्द्र बने। बम्बई के प्रसिद्ध इनाम कमिशन ने 20.000 जागीरें जब्त कर लीं। इस प्रकार बहुत से भूमिपति निर्धन बन गए। दूसरी ओर कृषकों को भी कोई विशेष लाभ नहीं पहुंचा क्योंकि वे लोग फिर भी अत्यधिक करों के भार के नीचे दबे रहे कृषकों को भी यह सब अच्छा नहीं लगा। अब ये लोग सिद्धान्तहीन साहूकारों के चंगुल में फंस गए।
जैसा कि अशोक मेहता ने लिखा है कि "अवध के विलय के समय 25.543 ग्राम तालुकदारों की जागीरों में थे। उसमें से 13 640 तो तालुकदारों के पास रहे शेष 11.903 गांव उन लोगों को मिल गए जो तालुकदार नहीं थे...अर्थात् तालुकदारों के लगभग आधे गांव छीन लिए गए... कुछ तो अपना सर्वस्व ही खो बैठे थे।" इस व्यवस्था का क्या परिणाम हुआ इसका अनुमान हम इस तथ्य से भी लगा सकते हैं कि झांसी में लक्ष्मी मन्दिर के कर मुक्त ग्राम भी जब्त कर लिए गए।
अंग्रेजों की आर्थिक नीतियां भी भारतीय व्यापार और उद्योगों के विरुद्ध थीं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राजनैतिक शक्ति के प्रयोग से भारतीय हस्तशिल्प और व्यापार का सर्वनाश हो गया था और इसे केवल अंग्रेजी शोषण प्रणाली के परिशिष्ट के रूप में ही जीवित रहने दिया गया।
1857 के विद्रोह के सामाजिक और धार्मिक कारण
सभी विजेता जातियों की भांति अंग्रेज शासक विजित लोगों के प्रति बहुत रूखे तथा धृष्ट (arrogant) थे। इसके अतिरिक्त वे जातिभेद की भावना से भी प्रेरित थे वे भारतीयों को हेय दृष्टि से देखते थे और हिन्दुओं को बर्बर और मुसलमानों को कट्टरपन्थी, निर्दयी और बेईमान समझते थे।
यूरोपीय अधिकारी वर्ग भारतीयों के प्रति बहुत कठोर तथा असहनीय थे। वे भारतीयों को काले (nigger) अथवा सूअर की संज्ञा देते थे। उनमें उत्तम से उत्तम लोग भी बर्ड तथा टामसन (Bird and Thomason) की भांति प्रत्येक अवसर पर भारतीयों का अपमान करने से नहीं चूकते थे।
शिकार पर जाते समय अंग्रेज़ पदाधिकारी और यूरोपीय सैनिक भारतीयों पर बलात्कार करते थे। यूरोपीय ज्यूरियां (juries) जो इन मामलों की सुनवाई कर सकती थीं प्राय: इन लोगों को थोड़ा बहुत दण्ड देकर छोड़ देती थी और भारतीयों को यह बहुत चुभता था।
शारीरिक तथा राजनैतिक अन्याय सहन करना कई बार सम्भव हो सकता है परन्तु धार्मिक उत्पीड़न सहना बहुत कठिन होता है। अंग्रेजों का एक उद्देश्य भारतीयों को ईसाई बनाना भी था यह कम्पनी के अध्यक्ष मैंगल्ज़ ( Mangles) के हाऊस आफ़ कामन्स में किए गए एक भाषण से स्पष्ट होता है।
मैंगल्ज़ ( Mangles) का भाषण
उसने कहा था कि "दैव योग से भारत का विस्तृत साम्राज्य ब्रिटेन को मिला है ताकि ईसाई धर्म की पताका भारत के इस छोर से दूसरे छोर तक फहरा सके। प्रत्येक व्यक्ति को शीघ्रातिशीघ्र समस्त भारतीयों को ईसाई बनाने के महान कार्य को पूर्णतया सम्पन्न करने में अपनी समस्त शक्ति लगा देनी चाहिए।"
मेजर एडवर्ड्स (Major Edwards )
मेजर एडवर्ड्स (Major Edwards ) ने भी स्पष्ट रूप से कहा था, "भारत पर हमारे अधिकार का अन्तिम उद्देश्य देश को ईसाई बनाना है।" वीर सावरकर ने यह दर्शाया है कि असैनिक और सैनिक ऊंचे पदाधिकारी राम और मुहम्मद को गालियाँ निकालते थे तथा सैनिकों को ईसाई बनने की प्रेरणा देते थे। सैनिकों को यदि वे 'सत्य धर्म' अपना लें तो पदोन्नति का वचन दिया जाता था ईसाई धर्म प्रचारकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी जाती थीं। अमेरिकन मिशनरी सोसाइटी (American Missionary Society) ने आगरे में एक बहुत भारी मुद्रणालय (Printing Press ) लगाया मूर्ति पूजा को बुरा कहा जाता था। हिन्दू देवी-देवताओं का उपहास किया जाता था।
सर सैसद अहमद खां
सर सैसद अहमद खां ने भी लिखा है कि " ऐसा विश्वास किया जाता है कि सरकार ने धर्म प्रचारक नियुक्त कर रखे हैं और उनका भरणपोषण अपने व्यय से करती है।" लॉर्ड शेफ्टसबरी (Lord Shaftesbury) ने तो इतना तक कहा था कि "भारत को ईसाई बनाने में असमर्थता ही इस समस्त झगड़े का मूल कारण है।"
धार्मिक अयोग्यता अधिनियम
1850 में पास किए गए धार्मिक अयोग्यता अधिनियम ( Religious Disabilities Act) द्वारा हिन्दू रातिरिवाजों में परिवर्तन लाया गया, अर्थात् धार्मिक परिवर्तन से पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है।
इस कानून का मुख्य लाभ ईसाई बनने वालों को था लोगों ने यह भी अफ़वाह फैला दी कि लार्ड कैनिंग को विशेष आज्ञा दी गई है कि वह भारत को ईसाई बना दे। ऐसे वातावरण में यह विश्वास किया जाने लगा कि रेलवे और वाष्पपोत (steamships) भारतीय धर्म परिवर्तन का एक अप्रत्यक्ष साधन हैं ।
बेंजामिन डिजरेली के शब्दों में, "नए सिद्धान्तों के अधीन भारतीय विधान परिषद् स्थानीय लोगों के धार्मिक विश्वास को शनैः शनैः कुतरती जा रही है। इसकी राष्ट्रीय विद्या की सैद्धान्तिक प्रणाली के अनुसार धर्म पुस्तकें ( बाईबल इत्यादि) पाठशालाओं में अकस्मात ही पहुँच गई हैं।"
भारतीयों को यह विश्वास
होता जा रहा था कि अंग्रेज़ उन्हें ईसाई बनाने की योजना बना रहे हैं। ईसाई
पादरियों और डलहौज़ी तथा बेटन (Bethune) के स्त्रियों की शिक्षा के लिए किए गए
प्रयत्नों द्वारा भारतीयों को विश्वास होता जा रहा था कि अंग्रेज़ विद्या द्वारा
उनकी सभ्यता को विजय करना चाहते हैं "विद्या कार्यालयों" को
"शैतानी दफ्तर" की संज्ञा दी जाने लगी थी।
1857 के विद्रोह के सैनिक कारण
लार्ड ऑकलैण्ड के अफ़गान युद्ध के पश्चात् अनुशासन को बहुत धक्का पहुँचा था लार्ड डलहौज़ी ने गृह-अधिकारियों (home authorities) को लिखा था कि "सेना का अनुशासन-उच्च से निम्न अधिकारियों तक-निन्दनीय हो गया है।"
बंगाल सेना "एक महान भाईचारा था जिसमें सभी सदस्य एकता से कार्य करते थे" और सेना की सेवा वंशानुगत थी। बंगाल सेना का 60 प्रतिशत भाग अवध तथा उत्तरपश्चिमी ( यू.पी.) प्रान्तों से आता था और उसमें से अधिकतर ऊंची जाति के ब्राह्मण तथा राजपूत कुलों के सदस्य होते थे जो प्रायः उस अनुशासन को स्वीकार करने को उद्यत नहीं थे जिसके अनुसार उन्हें और निम्न सैनिकों को समान माना जाए।
सर चार्ल्स नेपियर को इन "उच्च जातीय" भाड़े के सैनिकों पर कोई विश्वास नहीं था लार्ड डलहौज़ी के गवर्नर जनरल होने के समय से तीन सैनिक विद्रोह हो चुके थे, 1849 में 22वे एन. आई. का विद्रोह, 1850 में 66वें एन. आई. का विद्रोह और 1852 में 38वें एन. आई. का विद्रोह।
'बंगाल सेना' के सैनिक अवध की समस्त असैनिक जनता की भावनाओं को प्रकट करते थे। मौलाना आज़ाद के अनुसार अवध के विलय ने "सेना में साधारणतः और बंगाल सेना में विशेषतः विद्रोही भावना का प्रारम्भ किया.. उन्होंने सहसा यह अनुभव किया कि यह शक्ति जो कम्पनी ने उनकी सेवा और बलिदान द्वारा प्राप्त की है, आज उन्हीं के राजा को समाप्त करने के लिए प्रयोग की जा रही है।"
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार से सैनिकों की सेवा शर्तों पर प्रतिकूल प्रभाव हुआ। अब उन्हें अपने देश से दूर सेवा करनी पड़ती थी और अतिरिक्त भत्ता नहीं मिलता था सैनिक उन दिनों का स्मरण करते थे जब भरतीय राजा उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर उन्हें जागीरें और पुरस्कार देते थे अब अंग्रेजों की सिन्ध और पंजाब की विजय से उनकी स्थिति बिगड़ गई थी। 1824 में बैकरपुर में सैनिकों ने समुद्र पार बर्मा में सेवा करने से मनाही कर दी थी और इसके फलस्वरूप 47वीं रेजिमेन्ट भंग की गई थी । 1844 में चार बंगाल रेजिमेंटों ने उन्हें अतिरिक्त भत्ता न मिलने तक सिन्ध में जाने से मनाही कर दी थी।
1856 में केनिंग की सरकार ने सामान्य सेना भर्ती अधिनियम (General Service Enlistment Act) पारित कर दिया जिसके अनुसार बंगाल सेना के सभी भावी सैनिकों को यह स्वीकार करना होता था कि जहां कहीं भी सरकार को आवश्यकता होगी वे वहीं कार्य करेंगे। इस अधिनियम का प्रभाव पुराने सैनिकों पर नहीं था परन्तु सैनिक सेवा प्राय: वंशानुगत होती थी अतएव यह अधिनियम बहुत अप्रिय था। इसके अतिरिक्त जो सैनिक 1839-42 तक अफ़गानिस्तान में सेवा कर आए थे उन्हें उनके समाज ने उनकी जाति में पुन: नहीं लिया गया था। जिन सैनिकों को विदेश सेवा के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया था उन्हें पेन्शन सहित निवृत होने की आज्ञा नहीं थी अपितु उन्हें छावनियों में नियुक्त कर दिया जाता था।
सन् 1854 में डाक घर अधिनियम के पारित होने पर सैनिकों की नि:शुल्क डाक सुविधा समाप्त कर दी गई । इसके अतिरिक्त यूरोपीय और भारतीय सैनिकों का अनुपात दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था 1856 में भारतीय सेना में 2,38,000 भारतीय सैनिक और 45.322 यूरोपीय सैनिक थे। सेना में कुशल अधिकारियों के अभाव के कारण यह असमानता और भी गंभीर हो गई थी क्योंकि बहुत से सैनिक अधिकारी नवविजित प्रदेशों में प्रशासनिक कार्यों में लगे हुए थे। सैनिकों का वितरण भी दोषपूर्ण था। इसके अतिरिक्त क्रीमियन युद्ध (Crimean War) में विनाश के कारण सैनिकों का साधारण मानसिक बल भी कम से कम हो गया था इन सभी कारणों से भारतीय सैनिकों को विश्वास हो गया था कि यदि वे उस समय आक्रमण करें तो उन्हें सफलता की पर्याप्त संभावना है। अतएव वे अवसर की प्रतीक्षा में थे जो चर्बी वाले कारतूसों ने उन्हें दे दिया । इन कारतूसों ने कोई नवीन कारण प्रस्तुत नहीं किया अपितु एक ऐसा अवसर प्रदान किया जिससे उनके भूमिगत असन्तोष प्रकट हो गए।
1856 में
सरकार ने पुरानी लोहे वाली बन्दूक ब्राउन बैस (Brown
Bess) के
स्थान पर नवीन एनफील्ड राइफल (New Enfield Rifle) को जो अधिक अच्छी थी, प्रयोग करने का निश्चय किया इस नवीन
राइफल के प्रयोग का प्रशिक्षण डम-डम, अम्बाला और स्यालकोट में दिया जाना था
इस नई राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को मुंह से काटना पड़ता था। जनवरी 1857 में
बंगाल सेना में यह अफ़वाह फैल गई कि चर्बी वाले कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी
है। सैनिक अधिकारियों ने इस अफ़वाह की जांच किये बिना तुरन्त इसका खण्डन कर दिया।
कालान्तर में पूछताछ ने सिद्ध कर दिया कि "गाय और बैलों की चर्बी वास्तव में
ही वृलिच शस्त्रागार (Woolwich arsenal) में प्रयोग की जाती थी " (V.A.Smith)। लोगों ने कहना आरम्भ कर दिया था कि
कम्पनी औरंगज़ेब की भूमिका में है और सैनिकों को शिवाजी ही बनना है।
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