वर्धमान महावीर के मौलिक सिद्धांत | महावीर के 6 महत्वपूर्ण उपदेश
वर्धमान महावीर के मौलिक सिद्धांत
महावीर के 6 महत्वपूर्ण उपदेश
- जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक और 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म 6 शताब्दी ई. पू. कुण्डग्राम नामक स्थान पर हुआ।
- ये क्षत्रिय वर्ण में पैदा हुए थे। उन्होंने 29 वर्ष की आयु में पारिवारिक जीवन को त्यागकर संन्यासी जीवन ग्रहण किया।
- अनेक वर्षों की कठोर साधना के बाद उन्हें जुम्बीग्राम के साल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति हुई।
- ज्ञान प्राप्ति के बाद अनेक वर्षों तक ये उत्तर भारत में अनेक स्थानों पर अपने नैतिक सिद्धांतों और वचनों को उपदेशों के माध्यम से प्रसारित करते थे।
- लंबी आयु के बाद पावापुरी नामक स्थान पर इनका निधन हो गया।
- महावीर केवलीन, जिन, विग्रंथ भी कहा जाता है।
- महावीर स्वामी ने सर्फाण का अध्ययन करने के पश्चात् ज्ञान प्राप्ति के बाद कुछ नीतिवचनों या नीतिशास्त्र संबंधित विचारों को स्थापित किया। इन्हें जैन धर्म के सिद्धांत या महावीर स्वामी की नीति संहिता भी कहा जाता है।
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वर्धमान महावीर के मौलिक सिद्धांत
महाव्रत-
- महावीर स्वामी की नीति संहिता में 5 महाव्रतों का उल्लेख मिलता है । उनके अनुसार प्रत्येक गृहस्थ या संन्यासी को इन महाव्रतों का पालन करना चाहिए ।
- सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, आस्तेय, ब्रह्मचर्य ये वे पाँच महाव्रत हैं जिनका उल्लेख जैन धर्म के ग्रंथों/नैतिक संहिता में किया गया है। ये पाँच महाव्रत उच्च कोटि की नैतिक संहिताएँ हैं।
- यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी नैतिक जिम्मेदारी कर्तव्यों का बोध कराती है। साथ ही साथ उसके चारित्रिक निर्माण में भी सहायक होती है।
त्रिरत्न
- जैन नीति संहिताओं में जैन धर्म में तीन रत्न बताए हैं।
- सम्यक ज्ञान, सम्यक श्रद्धा, सम्यक आचरण अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में यथा संभव ज्ञान यथासंभव श्रद्धा और यथासंभव आचरण या व्यवहार का होना आवश्यक है।
- इन तीन रत्नों का पालन करने से व्यक्ति पुनर्जन्म के प्रभावों से मुक्त हो जाता है और वह कैवल्य प्राप्ति की ओर बढ़ने लगता है।
अनेकान्तवाद या सप्तभंगीयवाद
- जैन धर्म के अनुसार कोई भी व्यक्ति निर्णय लेते वक्त किसी भी एक पक्ष पर आसानी से नहीं पहुँच पाता, उसके समक्ष किसी भी वस्तु, घटना से संबंधित सात अवस्थाएँ सामने आती हैं ।
- ये सात अवस्थाएँ उसे अतिशीघ्रता के व्यवहार पर रोक लगाती हैं व तार्किक रूप से निर्णय लेने हेतु सक्षम बनाती है। इसे स्याद्वाद भी कहा जाता है। यह जैन धर्म का दार्शनिक पक्ष है।
ईश्वर की सर्वोच्चता की अस्वीकृति
- जैन धर्म और महावीर स्वामी के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व से संबंधित कोई स्पष्ट मत प्रस्तुत नहीं किया गया, लेकिन समष्टि निर्माण में ईश्वर की एकमात्र भूमिका का खंडन किया है ।
- महावीर स्वामी ने ईश्वर की सर्वोच्चता अस्वीकृत कर दी है और इसे कोई व्यक्तिगत और आंतरिक धारणा ही माना है।
पुनर्जन्म और कर्मवाद
- जैन धर्म पुनर्जन्म व कर्मवाद दोनों पर विश्वास करता है ।
- महावीर स्वामी के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेता है। अच्छे कार्यों का परिणाम अच्छा और अशुद्ध कर्मों का परिणाम अशुद्ध होता है।
- जैनों के अनुसार पुनर्जन्म की प्रक्रिया कैवल्य के माध्यम से बाधित की जा सकती है ।
कैवल्य
- इनके अनुसार जीवन-मृत्यु से मुक्ति हो कैवल्य है। अर्थात् जब मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त परिण होकर अनंत में विलीन हो जाता है तब वह कैवल्य प्राप्त कर लेता है। कैवल्य प्राप्ति के लिए सद्गुण, सदाचार और विवेकशील जीवन की आवश्यकता है।
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