कर्नाटक युद्ध | फ्रांसीसियों की पराजय के कारण | Karnatak War in Hindi

 

कर्नाटक युद्ध | Carnatic Wars in Hindi


Carnatic Wars in Hindi


  • कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746 - 1748 ई.)
  • कर्नाटक का  द्वितीय युद्ध (1749 - 1754 ई.)
  • कर्नाटक का  तृतीय युद्ध (1756 - 1763 ई.)) 


कर्नाटक का प्रथम युद्ध (7746-48) Karnatak First War

यह युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध का जो 1740 में आरम्भ हुआ थाविस्तार मात्र ही था। गृह सरकारों की आज्ञा के विरुद्ध ही दोनों दलों में 1746 में युद्ध हो गया। 

बारनैट के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जल पोतत पकड़ लिए। डूप्ले ने जो 174। से पाण्डीचेरी का फ्रेंच गवर्नर-जनरल थामॉरीशस स्थित फ्रांसीसी गवर्नर ला बूर्डोने से सहायता मांगी। ला बूडोंने 3000 सैनिक लेकर कोरोमण्डल तट (मद्रास के पास का तट) की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसने अंग्रेजी नौसेना को परास्त किया।

मद्रास को जल तथा थल दोनों ओर से फ्रांसीसियों ने घेर लिया। 21 सितम्बर को मद्रास ने आत्मसमर्पण कर दिया। युद्धबन्दियों में क्लाइव भी था।

ला बूडोंने का विचार इस नगर से फिरौती लेने का था परन्तु ड्प्ले नहीं माना। ला बूडोंने ने एक अच्छी राशि के बदले नगर लौटा दिया। परन्तु ड्प्ले ने इसको स्वीकार नहीं किया तथा नगर पुन: जीत लिया। परन्तु वह फोर्ट सेन्ट डेविड जो पाण्डीचेरी से केवल 8 मील दक्षिण में स्थित था उसे जीतने में असफल रहा।

दूसरी ओर 'एक अंग्रेजी स्क्वाडन ने रीयर एडमिरल बोस्कावे के नेतृत्व में पाण्डीचेरी को घेरने का असफल प्रयत्न किया।  कर्नाटक का प्रथम युद्ध सेन्ट टोमे के युद्ध के लिए स्मरणीय है।

यह युद्ध फ्रांसीसी सेना तथा कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (1744-49) के नेतृत्व में भारतीय सेना के बीच लड़ा गया। झगड़ा फ्रांसीसियों द्वारा मद्रास को विजय पर हुआ।  नवाब ने दोनों कम्पनियों को लड़ते हुए देखकर उन्हें आज्ञा दी कि वे युद्ध बन्द करें तथा देश की शान्ति भंग न करें। 

डूप्ले ने मद्रास को जीत कर नवाब को दे देने का प्रस्ताव किया था। परन्तु जब डूप्ले ने अपना वचन पूरा नहीं किया तो नवाब ने अपनी मांग स्वीकार कराने के उद्देश्य से अपनी सेना भेजी। कैप्टिन पेराडाइज  के अधीन एक 'छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने जिसमें 230 फ्रांसीसी तथा 700 भारतीय सैनिक थेमहफूज खां के नेतृत्व में 10000 भारतीय सेना को अदयार नदी पर स्थित सेन्ट टोमे के स्थान पर पराजित कर दिया।

कैप्टिन पेराडाइज की इस विजय ने विदेशी  यूरोपीय अनुशासित सेना की ढीली तथा असंगठित भारतीय सेना पर श्रेष्ठता को स्पष्ट कर दिया।

यूरोप में युद्ध बन्द होते ही कर्नाटक का प्रथम युद्ध समाप्त हो गया। ए ला शापल की सन्धि 1748 से ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया तथा मद्रास अंग्रेजों को पुन: प्राप्त हो गया।  

युद्ध के प्रथम दौर में दोनों दल बराबर रहे। स्थल पर फ्रांसीसी श्रेष्ठ रहे। डूप्ले ने अपनी असाधारण दक्षता तथा राजनीति का प्रदर्शन किया। यद्यपि अंग्रेज पाण्डेचेरी को नहीं जीत सके तो भी इस युद्ध से नौसेना का महत्त्व स्पष्ट हो गया ।

कर्नाटक का दूसरा युद्ध ( 1749-54 ) Karnatak Second War

कर्नाटक के प्रथम युद्ध से डूप्ले की राजनैतिक पिपासा जाग उठी तथा उसने फ्रांसीसी राजनैतिक प्रभाव के प्रसार के उद्देश्य से भारतीय राजवंशों के परस्पर झगड़ों में भाग लेने की सोची।

मालेसन ने इस स्थिति का वर्णन यों किया है, “महत्वाकांक्षाएं जाग उठींपरस्पर द्वेष बढ़ गए। जब बढ़ते हुए प्रभाव की आकांक्षाएँ द्वार खटखटा रही थीं तो उन्हें (यूरोपीय) शान्ति से क्या लेना-देना। यह सुअवसर हैदराबाद तथा कर्नाटक के सिंहासनों के विवादास्पद उत्तराधिकार के कारण प्राप्त हुआ।”  

आसफजाह जिसने दक्कन में लगभग स्वायत्ततापूर्ण राज्य बना लिया था, 2। मई, 1748 को स्वर्ग सिधार गया। उसका पुत्र नासिरजंग (748-50) उसका उत्तराधिकारी बना। परन्तु उसके भत्तीजे आसफजाह के पौत्र मुजफ्फरजंग ने दावे को चुनौती दी। 

दूसरी ओर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा उसके बहनोई चन्दा साहिब के बीच विवाद था। शीघ्र ही ये दोनों विवाद एक बड़े विवाद में परिवर्तित हो गए और हमें दलों के बनने तथा टूटने की क्रिया का प्रदर्शन मिला। डूप्ले ने इस अनिश्चित अवस्था से राजनैतिक लाभ उठाने की सोची तथा मुजफ्फरजंग को दक्कन की सूबेदारी तथा चन्दा साहिब को कर्नाटक की सूबेदारी के लिए समर्थन देने की बात सोची। अपरिहार्य रूपेण अंग्रेजों को नासिरजंग तथा अनवरुद्दीन का साथ देना पड़ा। डूप्ले को अद्वितीय सफलता मिली। 

मुजफ्फरजंग चन्दा साहिब तथा फ्रेंच सेनाओं ने 1749 के अगस्त मास में वेल्लौर के समीप अम्बूर के स्थान पर अनवरुद्दीन को हराकर मार दिया। दिसम्बर 750 में नासिरजंग भी एक संघर्ष में मारा गया। मुजफ्फरजंग दक्कन का सूबेदार बन गया तथा उसने अपने हितकारियों को बहुत से उपहार दिए। डूप्ले को कृप्णा नदी के दक्षिणी भाग में मुगल प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त कर दिया। उत्तरी सरकारों के कुछ जिले भी फ्रांसीसियों को दे दिए। इसके अतिरिक्त मुजफ्फरजंग की प्रार्थना पर एक फ्रेंच सेना की टुकड़ी बुस्सी की अध्यक्षता में हैदराबाद में तैनात कर दी गई। 175। में चन्दा साहिब कर्नाटक के नवाब बन गए डूप्ले इस समय अपनी राजनैतिक शक्ति की चरम सीमा पर पहुंच गया था।

फ्रांसीसियों के लिए प्रतिकर्ष आने में देर नहीं लगी। स्वर्गीय अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली ने त्रिचनापली में शरण लीं फ्रांसीसी तथा चन्दा साहिब मिल कर भी त्रिचनापली के दुर्ग को जीत नहीं पाए। अंग्रेजों की सित इस फ्रेंच विजय से डांवा-डोल हो गई थी। 

क्लाइव ने जो त्रिचनापली के फ्रांसीसी घेरे को तोड़ने में असफल रहा थात्रिचनापली पर दबाव कम करने के लिए कर्नाटक की राजधानी अरकाट को केवल 20 सैनिकों की सहायता से जीत लिया। 

चन्दा साहिब ने 4,000 सैनिक भेजे परन्तु अरकाट को पुन: नहीं जीत सके तथा क्लाइव ने 53 दिन तक (23 सितम्बर से 4 नवम्बर तक) इस सेना का प्रतिरोध किया। फ्रांसीसियों की प्रतिभा को इससे अनन्त क्षति पहुंची। 

1752 में स्ट्रिगर लॉरेन्स के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना ने त्रिचनापली को बचा लिया तथा जून 1752 में घेरा डालने वाली फ्रांसीसी सेना ने अंग्रेजों के आगे हथियार डाल दिए। चन्दा साहिब की भी धोखे से तंजौर के राजा ने हत्या कर दी।

फ्रांसीसी कम्पनी के डायरेक्टरों ने इस युद्ध में हुई धन की हानि के लिए डूप्ले को वापिस बुला लिया। 1754 में गोडेहू को भारत में फ्रांसीसी प्रदेशों का गवर्नर जनरल तथा डूप्ले का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया तथा 1755 में दोनों कम्पनियों के बीच एक अस्थायी सन्धि हो गई। 

इस प्रकार इस झगड़े का दूसरा दौर भी अनिश्चित रहा। स्थल पर अंग्रेजी सेना की प्रधानता सिद्ध हो गई थी तथा उनका प्रत्याशी मुहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बन गया था। परन्तु हैदराबाद में अभी भी फ्रांसीसी सृदृढ़ अवस्था में थे तथा उन्होंने सूबेदार सालारजंग से और भी अधिक जागीर प्राप्त कर ली थी। (वास्तव में मुजफ्फरजंग एक छोटी सी झड़प में फरवरी 75 में मारा गया था।) उत्तरी सरकारों के महत्त्वपूर्ण जिले जिनकी वार्षिक आय 30 लाख ₹ थीफ्रांसीसी कम्पनी को अर्पण कर दिए थे। इस दूसरे युद्ध से फ्रांसीसियों की प्राथमिकता को कुछ ठेस पहुँची तथा अंग्रेजों की स्थिति दृढ़ हो गई।

 

कर्नाटक का तीसरा युद्ध ( 1758-63 ) Karnata 3rd War

यह युद्ध भी यूरोपीय संघर्ष का ही भाग था।

1756 में सप्तवर्षीय युद्ध के आरम्भ होते ही भारत में दोनों कम्पनियों के बीच शान्ति समाप्त हो गई। 

फ्रांसीसी सरकार ने अप्रैल 1757 मे काऊन्ट लाली को भारत भेजा। लगभग 2 मास की यात्रा के पश्चात्‌ अप्रैल 1758 में वह भारत पहुंचा। इसी बीच अंग्रेज सिराजुद्दौला को पराजित कर बंगाल पर अपना अधिकार स्थापित कर चुके थे। इसके कारण अंग्रेजों को अपार धन मिला जिससे वे फ्रांसीसियों को दक्कन में पराजित करने में सफल हुए।

काऊंट लाली ने 1758 में ही फोर्ट सेन्ट डेविड जीत लिया। इसके पश्चात्‌ उसने तंजौर पर आक्रमण करने की आज्ञा दे दी क्योंकि उस पर 56 लाख है शेष था। यह अभियान असफल रहा जिससे फ्रांसीसी ख्याति को हानि पहुंची।

इसके पश्चात्‌ लाली ने मद्रास को घेर लिया परन्तु एक शक्तिशाली नौसेना के आने पर उसे यह घेरा उठाना पड़ा। फिर लाली ने बुस्सी को हैदराबाद से वापिस बुला लिया। यह उसकी सबसे बड़ी भूल थी। इसके कारण वहां फ्रांसीसियों की स्थिति कमजोर हो गई। दूसरी ओर पोकॉक के नेतृत्व में अंग्रेजी बेडे ने डआशा के नेतृत्व में फ्रांसीसी बेड़े को तीन बार पराजित किया तथा उसे भारतीय सागर से लौट जाने पर बाध्य कर दिया। 

इससे अंग्रेजी विजय स्पष्ट हो गई तथा 1760 में सर आयरकूट ने वन्दिवाश के स्थान पर फ्रांसीसियों को बुरी तरह पराजित किया। बुस्सी युद्धबन्दी बना लिया गया।

जनवरी 1761 में फ्रांसीसी पूर्ण पराजय के पश्चात्‌ पाण्डीचेरी लौट आए। अंग्रेजों ने इसे भी घेर लिया तथा 8 मास पश्चात्‌ फ्रांसीसियों ने इस नगर को भी शत्रु के हवाले कर दिया। शीघ्र ही माही तथा जिंजी भी इनके हाथ से निकल गए। इस प्रकार आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वन्द्विता का नाटक समाप्त हो गया तथा फ्रांसीसी हार गए। 

इस प्रकार युद्ध का तीसरा दौर पूर्णरूपेण निर्णायक सिद्ध हुआ। यद्यपि युद्ध के अन्त में 1763 में पाण्डीचेरी तथा कुछ अन्य फ्रांसीसी प्रदेश उन्हें लौटा तो दिए गए परन्तु उनकी किलाबन्दी  नहीं हो सकती थी तथा भारत से उनका पत्ता कट गया।

 

फ्रांसीसियों की पराजय के कारण

फ्रांसीसियों ने एक समय में अपनी राजनैतिक विजयों से भारतीय संसार को स्तब्ध कर दिया था। परन्तु अन्तत: वे हार गए। इस पराजय के कारण निम्नलिखित थे;

फ्रांसीसियों का यूरोप में उलझना: 

अठारहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी सम्राटों की यूरोपीय महत्त्वकांक्षाओं के कारण उनके साधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ा। ये सम्राट फ्रांस की प्राकृतिक सीमाओं को स्थापित करने के लिए इटलीबेलजियम तथा जर्मनी में बढ़ने का प्रयत्न कर रहे थे तथा वे उन देशों से युद्धों में उलझ गए। वास्तव में उन्हें इस क्षेत्र में कुछ कुछ  वर्ग मील के क्षेत्र की अधिक चिन्ता थी तथा भारत तथा उत्तरी अमरीका में कई गुना अधिक बड़े क्षेत्र की कम। फलस्वरूप ये उपनिवेश तो पूर्णतया हाथ से जाते रहे तथा यूरोप में नहीं के बराबर ही का क्षेत्र उनको मिल सका। 

इंग्लैण्ड अपने आप को यूरोप से पृथक मानता था तथा उसकी उस प्रदेश में प्रसार की कोई इच्छा नहीं थे। यूरोप में उसकी भूमिका केवल शक्ति-संतुलन बनाए रखने की ही थी। वह एकचित होकर अपने उपनिवेशों के प्रसार में लगा हुआ था। उसे निश्चय ही सफलता मिली और उसने भारत तथा उत्तरी अमरीका में फ्रांस को पछाड़ दिया।

दोनों देशों की प्रशासनिक भिन्नताएँ-

वास्तव में फ्रांसीसी इतिहासकारों ने अपने देश की असफलता के लिए अपनी घटिया शासन प्रणाली को दोपी ठहराया है। फ्रांसीसी सरकार स्वेच्छाचारी थी तथा सम्राट के व्यक्तित्व पर ही निर्भर करती थी। महान सम्राट लुई चौदहवें (648-75) के काल से ही इस प्रशासन की कमजोरियाँ स्पष्ट हो रही थीं।

उस काल के अनेक युद्धों के कारण वित्तीय परिस्थिति बिगड़ गई थी। उसको मृत्यु के पश्चात्‌ यह अवस्था और भी बिगड़ गई। उसके उत्तराधिकारी लुई पन्द्रहवें ने अपनी रखेलोंकृपापात्रों तथा ऐश्वर्य साधनों पर और भी धन लुटाया। दूसरी ओर इंग्लैण्ड में एक जागरूक अल्पतंत्र राज्य कर रहा था। ह्विग दल के अधीन उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाए और देश एक प्रकार से अभिषिक्त गणतंत्र” बन गया था। यह व्यवस्था उत्तम थी तथा इसने देश को दिन प्रतिदिन शक्तिशाली बना दिया।

आल्फ्रेड लायल ने फ्रांसीसी व्यवस्था के खोखलेपन को ही दोषी ठहराया है। उसके अनुसारडूप्ले की वापिसीला बोर्डोने तथा डआश को भूलेंलाली की अदम्यताइत्यादि से कहीं अधिक लुई पन्द्रहवें की भ्रांतिपूर्ण नीति  तथा उसके अक्षम मंत्री फ्रांस की असफलता के लिए उत्तरदायी थे।


दोनों कम्पनियों के गठन में भिननता-

फ्रांसीसी कम्पनी सरकार का एक विभाग था। कम्पनी 55 लाख लीब्र (फ्रेंक ) की पूंजी से बनाई गई थी जिसमें से 35 लाख लीब्र सम्राट ने लगाए थे। इस कम्पनी के डाइरेक्टर सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते थे तथा लाभांश सरकार द्वारा प्रत्याभूत था अतएव उन्हें कम्पनी की समृद्धि में कोई विशेष अभिरूचि नहीं थी।

उदासीनता इतनी थी कि 1775 और 1765 के बीच कम्पनी के भागीदारों की एक बैठक नहीं हुई तथा कम्पनी का प्रबन्ध सरकार ही चलाती रही। फलस्वरूप कम्पनी की वित्तीय अवस्था बिगड़ती चली गई। एक समय में उनकी यह दुर्दश हो गई कि उन्हें अपने अधिकार से मालो के व्यापारियों को वार्षिक धन के बदले देने पड़े।

172। से 1740 तक कम्पनी उधार लिए धन से ही व्यापार करती रही। कम्पनी को समय-समय पर सरकार से सहायता मिलती रही तथा वह तम्बाकू के एकाधिकार तथा लॉटरियों के सहारे ही चलती रही। ऐसी कम्पनी डूप्ले की मंहगी महत्त्वकांक्षाओं तथा युद्धों की पूर्ति नहीं कर सकती थी। 


दूसरी ओर अंग्रेज कम्पनी एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी। उसके प्रबन्ध में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। 

प्रशासन इस कम्पनी के कल्याण में विशेष रुचि दर्शाता था। वित्तीय अवस्था अधिक सुदृढ़ थी। व्यापार अधिक था तथा व्यापारिक प्रणाली भी अधिक अच्छी थी। 

कम्पनी के डाइरेक्टर सदैव व्यापार के महत्त्व पर बल देते थे। पहले व्यापार फिर राजनीति। यह कम्पनी अपने युद्धों के लिए प्राय: पर्याप्त धन स्वयं अर्जित कर लेती थी। आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि 1736-65 के बीच अंग्रेजी कम्पनी ने 42 लाख पाऊंड और फ्रांसीसी कम्पनी ने ।4.5 लाख पाऊंड का माल बेचा। 

वित्तीय अवस्था से अंग्रेजी कम्पनी इतनी धनादय थी कि डर था कि कहीं संसद लोभ में न आ जाए। हुआ भी यही 1767 में संसद ने कम्पनी को आदेश दिया कि वह 4 लाख पाऊंड वार्षिक अंग्रेजी कोष में दिया करे। एक बार यह भी सुझाव था कि कम्पनी की सहायता से राष्ट्रीय ऋण का भुगतान किया जाए। 


नौसेना की भूमिका-

कर्नाटक के युद्धों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कम्पनी के भाग्य का उदय अथवा अस्त नौसेना की शक्ति पर निर्भर था।

1746 में फ्रांसीसी कम्पनी को पहले समुद्र में फिर थल पर विशिष्टता प्राप्त हुई। इसी प्रकार 1748-51 तक भी जो सफलता डूप्ले को मिली वह उस समय थी जब अंग्रेजी नौसेना निष्क्रिय थी। 

सप्तवर्पीय युद्ध के दिनों मे यह पुन: सक्रिय हो गई। उसकी वरिष्ता के कारण काऊंट लालीडूप्ले जितनी सफलता प्राप्त नहीं कर सका और जब डआश भारतीय समुद्रों से चला गया तो मार्ग अंग्रेजों के लिए बिलकुल साफ था तथा अंग्रेजों को विजय में कोई संदेह नहीं रह गया था।

वॉल्टेयर के अनुसार ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध में फ्रांस की जल शक्ति का इतना हास हुआ कि सप्तवर्षीय युद्ध के समय उसके पास एक भी जल पोत नहीं था। 

बड़े पिंट ने इस परिस्थिति का  पूर्ण लाभ उठाया। न केवल भारतीय व्यापार मार्ग खुले रहे अपितु बम्बई से कलकत्ता तक जल मागों द्वारा सेना का लाना ले जाना अबाध रूप से चलता रहा। फ्रेंच सेना का पृथक्करण पूर्ण रहा। यदि शेष कारण बराबर भी होते तो भी यह जल सेना की वरिष्ठता फ्रांसीसियों को परास्त करने के लिए पर्याप्त थी।


बंगाल में अंग्रेजी सफलताओं का प्रभाव-

अंग्रेजों की बंगाल में विजय एक महत्त्वपूर्ण कारण था। न केवल इससे इनकी प्रतिष्ठ बढ़ीअपितु इससे बंगाल का अपार धन तथा जनशक्ति उन्हें मिल गई। 

जिस समय काऊंट लाली को अपनी सेना को वेतन देन की चिन्ता थीबंगाल-कर्नाटक में धन तथा जन दोनों भेज रहा था। 

दक्कन इतना धनी नहीं था कि डूप्ले तथा लाली की महत्त्वकांक्षाओं को साकार कर सकता। यद्यपि उत्तरी सरकार बुस्सी के पास थी परन्तु वह केवल डेढ़ लाख ₹ ही भेज सका अधिक नहीं।

वास्तव में अंग्रेजों की वित्तीय वरिष्ठता का बहुत महत्त्व था जैसा कि स्मिथ ने कहा है कि न अकेले तथा न मिलकर ही डूप्ले अथवा बुस्सी जल में वरिष्ठ तथा धन में गंगा की घाटी के वित्तीय स्त्रोतों के स्वामी अंग्रेजों को परास्त कर सकते थे।

पाण्डेचेरी से आरम्भ करके सिकन्दर महान तथा नेपोलियन भी बंगाल तथा समुद्री वरि्ठता प्राप्त शक्ति को परास्त नहीं कर सकते थे। मेरियट ने ठीक ही कहा है कि डूप्ले ने मद्रास में भारत की चाबी खोजने का निप्फल प्रयत्न किया। क्लाइव ने यह चाबी बंगाल में खोजी तथा प्राप्त कर ली।


Read Also....

 भारत में आंग्ल फ्रांसीसी संघर्ष  |अंग्रेज़ एवं फ्रांसीसी  कम्पनियों का स्वरुप एवं स्थिति

कर्नाटक युद्धों से पूर्व हैदराबाद एवं कर्नाटक की स्थिति

कर्नाटक का प्रथम युद्ध | अडियार का युद्ध 

द्धितीय कर्नाटक युद्ध 1749-1754 | गाडेहू संधि |दूसरे कर्नाटक युद्ध के परिणाम

तीसरा कर्नाटक युद्ध- 1758-63

कर्नाटक युद्ध में अंग्रेजों की सफलता के कारण

फ्रांसीसियों का आगमन

 अंग्रेजों का भारत में प्रवेश | ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रकृति 

भारत में डचों का आगमन 

पुर्तगालियों की असफलता के कारण

पुर्तगाली व्यापारियों का भारत में आगमन

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.