समाज सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय के योगदान

 

समाज सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय के योगदान 

MPPSC MAINS 2018

 

समाज सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय के योगदान

राजा राममोहन राय के विचार और कार्यों का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। इसे हम निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत देख सकते हैं

1. एकेश्वरवाद- 

  • राजा राममोहन राय के धार्मिक विचारों का निर्धारण हिन्दू धर्म ग्रंथों के ब्रह्म ज्ञान के द्वारा हुआ था। वे केवल एक ईश्वर में श्रद्धा रखते थे। वे बहू धार्मिक प्रवृत्ति के थे और धर्म की शुद्धता से उन्हें अटूट था। 
  • धर्म में जो दूषित परम्पराएँ आ गई थीं, उनका विरोध करते थे। उन्होंने तुहकात् - उलमुवाहिदीन' अर्थात् "एकेश्वरवादियों को एक उपहार' नामक निबंध फारसी में लिखा, जिसकी भूमिका अरबी में थी। 
  • इस निबंध में राममोहन ने धर्मों और धार्मिक अनुभव के प्रश्न पर विवेक-पूर्ण विवेचन प्रस्तुत किया। उन्होंने धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पर बल दिया। वहीं एकेश्वरवाद की विशेषताओं की तरफ संसार का ध्यान आकर्षित किया। 
  • उन्होंने अलौकिक शक्ति और चमत्कार के सिद्धांत को नकार दिया। 
  • मूर्ति पूजा को उन्होंने किसी भी आधार पर स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनका निश्चित मत था कि मूर्तिपूजक के मन में जो श्रद्धा होती है, वह अन्धविश्वास ही होता है। उसमें विवेक का कोई स्थान नहीं होता, अन्धी श्रद्धा के कारण वह इतना पथभ्रष्ट हो जाता है कि ईश्वर को भूलकर पत्थर को ही पूजने लगता है। अतः उनका आग्रह था कि उपनिषदों में बताई गई 'आत्मज पूजा' ही शुद्ध पूजा है। 

2. धार्मिक सहिष्णुता

  • राजा राममोहन राय के धार्मिक विचारों में धर्मान्धता या कट्टरपन का कहीं लेश भी नहीं था। वे धार्मिक सहिष्णुता को सर्वाधिक महत्व देते थे। उनके मन में साम्प्रदायिक द्वेष का तनिक भी स्थान नहीं था। वे सभी धर्मों का समान आदर करते थे तथा सभी धर्मों को एक-सा सम्मान देते थे। 
  • ब्रह्म समाज की स्थापना के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य सर्व समन्वय था। वे नैतिकता, पवित्रता, सहानुभूति एवं दया के भावों को सर्वोपरि धर्म मानते थे और उनका प्रयत्न यही रहा कि मनुष्य के मन में ये भाव जागृत हों।
  • धार्मिक मतभेदों को प्रकट करने के लिए वे अति शालीनता से काम लेते थे।

 

3. सार्वभौम धर्म का समर्थन

  • राजा राममोहन राय ने सभी धर्मों के अच्छे सिद्धांतों को स्वीकार  किया। वे किसी एक धर्म के अन्धानुकरण के पक्ष में नहीं थे। वे सर्वधार्म समभाव के प्रवर्तक बने मनियर विलियम्स के अनुसार राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुसंधान किया। उन्होंने बहुत प्रयत्न किया कि धार्मिक विभेद और विषमताएँ मिट जाएं। 
  • डॉ. शिवनाथ शास्त्री ने ब्रह्म समाज के इतिहास में लिखा है कि एक सच्चे ईश्वर का सिद्धांत सभी धर्मों का सामान्य तत्व है और इसीलिए मानव जाति में सार्वभौम धर्म का मूलभूत अंश है।
  • नए युग के अग्रदूत के रूप में उन्होंने मनुष्यों के सामने एक नया धर्म रखा, जिसकी सहानुभूति सार्वभौमिक थी, जिसका मूलभूत सिद्धांत यह था कि मनुष्य की सेवा ही ईश्वर सेवा है।
  • के.पी. करुणाकरण का मत है कि राजा राममोहन राय विश्व धर्म मानने लगे तथा उनके दृष्टिकोण में विश्व की व्यापकता समाहित हो गई।

 

मानवतावाद

  • राजा राममोहन राय की सच्ची मान्यता थी कि जो मानवमात्र की सेवा करता है, ईश्वर की ही सेवा करता है। इस प्रकार वे सच्चे मानवतावादी थे।
  • वे एक ऐसे समाज की रचना करना चाहते थे, जिसके आधार दया, सहानुभूति, सहयोग, प्रेम, सहनशीलता तथा बन्धुत्व हो। वही समाज दृढ़ हो सकता है।
  • ऐसे समाज की रचना हेतु ही उन्होंने अपनी भावनाओं को प्रस्तुत किया जो अधिकारों और स्वतंत्रता के संबंध में थीं। उन्होंने मुख्य रूप से मानवतावादी दृष्टिकोण को ही अपनाया और इसे जीवन दिया। इस हेतु राजा राममोहन राय ने साहसपूर्वक ऐसे ठोस कदम उठाए, जिससे धर्म अमानुषिक प्रवृत्तियों से मुक्त हो सके। 
  • मानवता की उपासना करने को ही वे सर्वोपरि धर्म मानते थे। अपने मानवतावादी दृष्टिकोण के आधार पर ही उन्होंने धर्म में उत्पन्न हो गई ऐसी कुप्रथाओं एवं निरर्थक परम्पराओं का विरोध किया जैसे कि मूर्ति पूजा, सती प्रथा, बलि प्रथा, शिशु हत्या आदि।

 

 मूर्ति पूजा का विरोध 

  • राजा राममोहन राय के अनुसार मूर्ति पूजा का मुख्य कारण है कि भक्तों को इससे कोई वास्तविक लाभ नहीं मिलता, बल्कि केवल अन्धी श्रद्धा समर्पित करना है। इस प्रकार की पूजा का राजा राममोहन राय वेदों, उपनिषदों के संदर्भों के आधार पर विरोध करते थे। 
  • मूर्ति पूजा का आरंभ होने के कारण यह था कि ब्रह्म के प्रत्यक्ष ज्ञान को असंभव जानकार मूर्ति पूजा का सहारा लिया गया था और इसे आवश्यक समझा गया था, परन्तु इसके उत्तर में राजा राममोहन राय का उपनिषद् सम्मत तर्क यह था कि केवल आत्मन की पूजा करनी चाहिए। उनका कहना था कि उपनिषद् किसी भी दशा में असंभव बात करने की प्रेरणा नहीं देते। मूर्ति पूजा के स्थान पर शुद्ध पूजा का उन्होंने सदैव समर्थन किया है। श्रद्धा विचार के प्रति उचित है। मूर्ति के प्रति श्रद्धा से कोई लाभ नहीं। 

 जातिगत संकीर्णताओं का विरोध

  • आर्यों ने कर्म के आधार पर समाज को जातीय वर्गों में विभाजित किया था । कालान्तर में जन्म से ही जाति का निर्धारण होने लगा। इस के विभाजन का समाज के लिए बड़ा विनाशकारी परिणाम के हुआ। कुछ लोग श्रेष्ठ बन बैठे तथा अन्य वर्गों में से कोई हेय ही एवं निकृष्ट समझे जाने लगे।
  •  राजा राममोहन राय को इसके  हानिकारक फल स्पष्ट दिखाई पड़े और उन्होंने जातीय भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना का डटकर विरोध किया। उनका निश्चित मत था कि जाति के आधार पर किसी को श्रेष्ठ अथवा हेय मानना पूर्णतया अनुचित और अन्यायपूर्ण  है।

Q- एक समाज सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय के योगदान का वर्णन कीजिए।

MPPSC MAINS 2018 Answer


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