वैदिक युग सामाजिक जीवन | Vedic Age Social Life

 वैदिक युग सामाजिक जीवन

वैदिक युग सामाजिक जीवन

पंच जन-

वैदिक युग के भारतीय आर्य अनेक जनों (कबीलों या ट्राइब) में विभक्त थे। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर 'पंचजनाः' और 'पंचकृष्ट्य:' का उल्लेख आता है, जो निःसन्देह उस युग के आर्यों की पाँच प्रमुख जातियों (कबीलों) को सूचित करते हैं।

ये पंचजन अणु, द्रुह्य, यदु, तुर्वशु और पुरु थे। पर इनके अतिरिक्त भरत, त्रित्सु, शृंजय आदि अन्य भी अनेक जनों का उल्लेख वेदों में आया है, जिनसे इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि ज्यों-ज्यों आर्य लोग भारत में फैलते गये, उनमें विविध जनों का विकास होता गया। 

आर्य जाति के प्रत्येक जन में सब व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति एक समान होती थी और सबको एक ही 'विशः' (जनता) का अंग माना जाता था।

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आर्य और दास-

आर्यों के भारत में प्रवेश से पूर्व यहाँ जिन लोगों का निवास था, वेदों में उन्हें 'दास' या दस्युकहा गया है। इनकी अनेक समृद्ध बस्तियाँ भारत में विद्यमान थीं। आर्यों ने इन्हें जीतकर अपने अधीन किया और ये आर्यभिन्न लोग आर्य-जनपदों में आर्य-राजाओं की अधीनता में रहने लगे। 

यह स्वाभाविक था कि इन दासों व दस्युओं की सामाजिक स्थिति आर्यों की अपेक्षा हीन रहे। आर्य लोग इनसे घृणा करते थे, इन्हें अपने से हीन समझते थे और इन्हें अपने समान स्थिति देने का उद्यत नहीं थे।

इस दशा का यह परिणाम हुआ कि आर्य-जनपदों में निवास करने वाली जनता दो भागों में विभक्त हो गई-(1) आर्य, और (2) दास। 


दास-जाति की हीन स्थिति के कारण इस शब्द का अभिप्राय ही संस्कृत भाषा में गुलाम हो गयादास जाति के ये लोग शिल्प में अत्यन्त चतुर थे। ये अच्छे व विशाल घरों का निर्माण करते थे, शहरों में रहते थे और अनेक प्रकार के व्यवसायों में दक्ष थे।

आर्यों द्वारा विजित हो जाने के बाद भी शिल्प और व्यवसाय में इनकी निपुणता नष्ट नहीं हो गई। ये अपने इन कार्यों में तत्पर रहे। विजेता आर्य योद्धा थे। वे याज्ञिक अनुष्ठानों को गौरव की बात समझते थे और भूमि के स्वामी बनकर खेती, पशुपालन आदि द्वारा जीवन का निर्वाह करते थे। विविध प्रकार के शिल्प दास जाति के लोगों के हाथ में ही रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में प्राचीन काल से ही शिल्पियों को कुछ हीन समझने की प्रवृत्ति रही।

आर्यों और दासों में परस्पर सामाजिक सम्बन्ध का सर्वथा अभाव हो, यह बात नहीं थी। प्राच्य भारत में जहाँ आर्यों की अपेक्षा आर्य-भिन्न जातियों के लोग अधिक संख्या में थे, उनमें परस्पर विवाह सम्बन्ध होता रहता था। उन प्रदेशों में ऐसे लोगों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई, जो शुद्ध आर्य या दास न होकर वर्णसंकर थे। ऐसे वर्णसंकर लोगों को ही सम्भवतः व्रात्य कहा जाता था। 

अथर्ववेद में व्रात्य जातियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। बाद में व्रात्य-स्तोम-यज्ञ का विधान कर इन व्रात्यों को आर्य जाति में सम्मिलित करने की भी व्यवस्था की गई।पर इसमें सन्देह नहीं कि वैदिक युग में आर्यों और दासों का भेद बहुत स्पष्ट था और उस काल के आर्य-जनपदों में ये दो वर्ण ही स्पष्ट रूप से विद्यमान थे।

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वर्ण-व्यवस्था-वैदिक युग

आर्य-विशः के सब व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति एक समान थी। पर धीरे-धीरे उनमें भी भेद प्रादुर्भूत होने लगा। दास-जातियों के साथ निरन्तर युद्ध में व्याप्त रहने के कारण सर्वसाधारण आर्य जनता में कतिपय ऐसे वीर सैनिकों (रथी, महारथी आदि) की सत्ता आवश्यक हो गई, जो युद्ध-कला में विशेष निपुणता रखते हों। इनका कार्य ही यह समझा जाता था कि ये शत्रुओं से जनता की रक्षा करें। क्षत (हानि) से त्राण करने वाले होने के कारण इन्हें 'क्षत्रिय' कहा जाता था। 

यद्यपि ये क्षत्रिय आर्य विश: के ही अंग थे, पर तो भी इन्हें विशः के सर्वसाधारण लोगों (वैश्यों) से अधिक सम्मानित व ऊँचा समझा जाता था। क्षत्रिय सैनिकों के विशिष्ट कुल 'राजन्यकहलाते थे।

सम्भवतः, ये राजन्य ही वे 'राजकृतः राजानः' थे, जो अपने में से एक को राजा के पद के लिए वरण करते थे। 

जिस प्रकार क्षत्रियों की सर्वसाधारण आर्य विशःमें एक विशिष्ट स्थिति थी, वैसे ही उन चतुर व्यक्तियों की भी थी, जो याज्ञिक कर्मकाण्ड में विशेष रूप से दक्ष थे। जब आर्य लोग भारत में स्थिर रूप से बस गये, तो उनके विधि-विधानों व अनुष्ठानों में भी बहुत वृद्धि हुई। प्राचीन समय का सरल धर्म निरन्तर अधिक जटिल होता गया। इस दशा में यह स्वाभाविक था कि कुछ लोग जटिल याज्ञिक कर्मकाण्ड में विशेष निपुणता प्राप्त करें और याज्ञिकों की इस श्रेणी को सर्वसाधारण आर्य-विशः द्वारा क्षत्रियों के समान ही विशेष आदर की दृष्टि से देखा जाए।

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इस प्रकार वैदिक युग में उस चातुर्वर्ण्य का विकास प्रारम्भ हो गया था, जो आगे चलकर भारत में बहुत अधिकविकसित हुआ और बाद के हिन्दू व भारतीय समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषता बन गया। पर वैदिक युग में यह भावना होने पर भी कि ब्राह्मण और क्षत्रिय सर्वसाधारण विशः (वैश्य जनता) से उत्कृष्ट व भिन्न हैं, जातिभेद या श्रेणीभेद का अभाव था।

कोई व्यक्ति ब्राह्मण या क्षत्रिय है, इसका आधार योग्यता या अपने कार्य में निपुणता ही थीं। कोई भी व्यक्ति अपनी निपुणता, तप व विद्वत्ता के कारण ब्राह्मण पद प्राप्त कर सकता था। इसी प्रकार आर्य जन का कोई भी मनुष्य अपनी वीरता के कारण क्षत्रिय व राजन्य बन सकता था। 

वैदिक ऋषियों ने समाज की कल्पना एक मानव-शरीर के समान की थी, जिसके शीर्ष-स्थानीय ब्राह्मण थे, बाहुरूप क्षत्रिय थे, पेट व जंघाओं के सदृश स्थिति वैश्यों की थी और शूद्र पैरों के समान थे। आर्य-भिन्न दास लोग ही शूद्र वर्ण के अन्तर्गत माने जाते थे।

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