उन्नीसवीं शताब्दी के विद्रोह |Nineteenth century rebellion
उन्नीसवीं शताब्दी के विद्रोह
Bharat Ke Pramukh Vidroh
कोल विद्रोह
- छोटा नागपुर के कोलों ने 1831 में विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह राँची, सिंहभूमि , हजारीबाग, पालामऊ तथा मानभूम के पश्चिमी क्षेत्र में माप्त हो गया। इस विद्रोह में कोलों ने सैकड़ों विदेशियों को जलाकर अथवा उनकी हत्या कर मौत के घाट उतार दिया।
संथाल विद्रोह
- राजमहल जिले (कहाँ) में रहने वाले संथाल लोगों से जब अंग्रेज अधिकारियों ने दुर्व्यवहार कर उनका दमन किया और जमींदारों ने मनमानी सूली की तो संथाल लोगों ने सीदू तथा कान्हू के नेतृत्व में कंपनी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। सैनिक कार्यवाही के पश्चात् ही सरकार इस विद्रोह पर 1856 ई. में नियंत्रण कर सकी। सरकार ने संथाल लोगों के लिए पृथक संथाल परगना बनाकर शांति स्थापित की।
खासी विद्रोह
- जब अंग्रेजों ने खासी पहाड़ी तथा सिलहट के बीच सड़क बनाकर सैनिक मार्ग बनाने की योजना बनाई तो ननक्लों के राजा तीरत सिंह ने हस्तक्षेप कर खाम्पटी तथा सिंहपो लोगों की सहायता से अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, 1833 ई. में अंग्रेजों ने सैन्य कार्यवाही कर इस विद्रोह को दबा दिया।
अहोम विद्रोह
- बर्मा युद्ध के पश्चात् जब कम्पनी ने असम स्थित अहोम प्रदेश को अपने साम्राज्य में मिलाने का प्रयत्न किया तो वहाँ के लोगों ने 1828 ई. में गोमधर कुँवर के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया, किन्तु शीघ्र ही यह विद्रोह कंपनी द्वारा दबा दिया गया 1830 ई. में पुन: विद्रोह की योजना बनी, किन्तु इस बार कंपनी ने शांति की नीति का अनुसरण कर उत्तरी असम के कुछ प्रदेश महाराज पुरंदर सिंह को देकर इस विद्रोह को शांत किया।
पागलपंथी विद्रोह
- पागल पंथ उत्तरी बंगाल में करमशाह द्वारा चलाया गया एक अर्ध धार्मिक सम्प्रदाय था। 1825 ई. में करमशाह के उत्तराधिकारी उसके पुत्र टीपू ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और गारो की पहाड़ियों तक उपद्रव किए इस क्षेत्र में 1840 ई. से 1850 ई. तक पागलत पंथियों का विद्रोह जारी रहा।
फरैजियों का विद्रोह
- फरैजी लोग फरीदपुर निवासी हाजी शरीयतुल्ला द्वारा चलाए गए सम्प्रदाय के अनुयायी थे। शरीयतुल्ला के पुत्र दादूमियाँ के नेतृत्व में अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की योजना बनाई गई और जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया अग्रेजों के विरुद्ध फरैजियों के उपद्रव 1838 ई. से 1857 ई. तक होते रहे। अंत में इस सम्प्रदाय के अनेक अनुयायी वहाबी दल में सम्मिलित हो गए।
भील विद्रोह
- पश्चिमी तट के खानदेश में रहने वाली भील जाति ने बर्मा युद्ध में अँग्रेजों के असफल होने के कारण 1825 ई. में सेवरम के नेतृत्व में अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इसके पश्चात् 1831 तथा 1846 ई. में भीलों ने पुनः अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
बघेरा विद्रोह
- बघेरे आरंभ से ही अंग्रेजों के कट्टर विरोधी थे। जब बड़ौदा के गायकवाड़ ने अंग्रेजी सेना के सहयोग से बघेरों ने विद्रोह कर दिया और 1818-19 के मध्य अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया। 1820 ई. तक बघेरों का विद्रोह जारी रहा।
रॉमोसी विद्रोह
सूरत का नमक आंदोलन
- 1844 ई. में जब अंग्रेजों ने नमक कर 1/2 रुपया प्रति मन से बढ़ाकर एक रुपया प्रति मन कर दिया तो यहाँ के लोगों ने अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोह इतना तीव्र था कि मजबूरन अंग्रेजी सरकार को अतिरिक्त कर हटाना पड़ा।
गाडकारियों का विद्रोह
- गाडकारी, पैदाइशी एक-सैनिक जाति थी, जिसने मराठा सेनाओं में सैनिक पद पर कार्य किया था। जब इन सैनिकों की छँटनी कर दी गई तो इन्होंने विद्रोह कर दिया और समनगढ़ तथा भूदड़गढ़ के किले जीत लिए । अथक सैन्य प्रयासों के फलस्वरूप ही अँग्रेज इस विद्रोह को दबा सके।
कूका आन्दोलन
- इस आंदोलन में गुरू रामसिंह के अनुयायियों से, जिन्हें कूका कहा जाता था, बछड़े छुड़ाने का कार्य किया। अँग्रेजों ने कूकाओं के आंदोलन को दबाने के लिए सैनिक कार्यवाही की। अनेक कूकाओं को बछड़ा छुड़ाने के अपराध में फाँसी दी गई।
- 1872 में गुरु रामसिंह कूका को रंगून भेज दिया गया । वहीं 1885 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
वहाबी आंदोलन
- अरब के अब्दुल वहाब से प्रभावित सैयद अहमद राय बरेलवी इस आंदोलन के प्रवर्तक थे। वे हजरत मुहम्मद साहब काल के इस्लाम धर्म के पक्षधर तथा इस्लाम धर्म में हुए नवीन परिवर्तनों एवं सुधारों के विरोधी थे। इन्होंने संपूर्ण भारत में अँग्रेज विरोधी भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया वास्तव में यह पुनरुत्थान आंदोलन था। भारत में इस आंदोलन का मुख्य केन्द्र पटना था 1857 के विद्रोह में इस आंदोलन के अनुयायियों ने अँग्रेज विरोधी भावनाओं का प्रचार किया था 1860 ई. के पश्चात् अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए व्यापक स्तर पर सैनिक कार्यवाहियाँ कीं।
मुण्डा विद्रोह
- 1831 ई. में अंग्रेजों द्वारा बाहरी लोगों को राजस्व खेती के अधिकार दिए जाने वाले नवीन कानूनों तथा बंगाल सरकार के नए न्यायिक व राजस्व कानूनों के विरोध में मुण्डाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। यह अत्यंत ही भीषण विद्रोह था । बहुत मुश्किल से अंग्रेजी सेना व्यापक स्तर पर सैनिक कार्यवाही कर मार्च 1832 ई. में इसे दबा सकी, किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पुन: विद्रोह भड़क उठा। अब इस विद्रोह के नेता बिरसा तथा गया आदि थे मुण्डा अँग्रेजी शासन के स्थान पर मुण्डा शासन की स्थापना करना चाहते थे। अँग्रेजों ने पुन: इस विद्रोह को दबाने के लिए अभियान चलाया 1900 ई. में मुण्डाओं के नेत बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया वहीं हैजे से उसकी मृत्यु हो गई। मुण्डाओं के दूसरे नेता गया मुण्डा की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसके साथ ही मुण्डा विद्रोह का पूर्णतः दमन हो गया ।
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