नवीं अनुसूची की न्यायिक समीक्षा |Judicial review of Ninth schedule
अनुच्छेद 31बी
अनुच्छेद 31बी नवीं अनुसूची में शामिल
अधिनियमों एवं विनियमों की किसी भी मौलिक अधिकार के उल्लंघन के आधार पर चुनौती
देने एवं अवैध ठहराने से रक्षा करता है । अनुच्छेद 31बी तथा नवीं अनुसूची को पहले
संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के द्वारा जोड़ा गया था।
मूल रूप में (1951 में) नवीं अनुसूची में केवल
13 अधिनियम एवं विनियम थे लेकिन वर्तमान में (2021 में ) इनकी संख्या 284
है।" इनमें से राज्य विधायिका के अधिनियम एवं विनियम भूमि सुधार और जमींदारी
उन्मूलन से संबंधित है, जबकि संसदीय कानून अन्य मामलों से।
हालांकि आर.आर. कोएल्हो मामले में दिए
महत्वपूर्ण निर्णय (2007) में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि नवीं अनुसूची
में शामिल कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बाहर नहीं माना जा सकता।
न्यायालय का
कहना था कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूलभूत विशेषता है और इसे नवीं अनुसूची में
शामिल किसी कानून के लिए वापस नहीं लिया जा सकता।
न्यायालय की व्यवस्था के अनुसार
24 अप्रैल, 1973
के बाद नवीं अनुसूची में रखे गए कानूनों को चुनौती दी जा सकती है,अगर उनसे अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 के अंतर्गत प्रदत्त मौलिक अधिकारों अथवा 'संविधान की मूलभूत विशेषता' का हनन होता है । 24 अप्रैल 1973 को ही
सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार संविधान की मूलभूत विशेषता का सिद्धांत प्रतिपादित
किया था, केशवानंद
भारती मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले में।
सर्वोच्च न्यायालय का 9वीं अनुसूची की न्यायिक समीक्षा के संबंध में निष्कर्ष
कोई कानून जो संविधान के भाग III के अंदर गारंटी किए गए अधिकारों का हनन
करता है,मूलभूत
संरचना सिद्धान्त की अवहेलना करता रहता है, या नहीं भी कर सकता। यदि पहले की
स्थिति किसी कानून का परिणाम है, जैसे-भाग III के किसी अनुच्छेद में संशोधन अथवा नवीं अनुसूची में शामिल करने से, तो ऐसा कानून न्यायालय की न्यायिक
समीक्षा शक्ति के प्रयोग से निरस्त किया जा सकता है। संविधान की मूल संरचना के
सिद्धांत की कसौटी पर नवीं अनुसूची के कानूनों की संवैधानिक वैधता का निर्णय
प्रत्यक्ष प्रभाव परिक्षण को लागू कर अर्थात् अधिकार परीक्षण (right
test) के आधार
पर किया जा सकता है जिसका अर्थ है कि किसी संशोधन का स्वरूप कोई प्रासंगिक कारक
नहीं है बल्कि असल निर्धारक है उस संशोधन का परिणाम।
केशवानंद भारती मामले में बहुमत का फैसला
इंदिरा गांधी मामले के साथ पढ़ने पर स्पष्ट होता है कि प्रत्येक नये संविधान
संशोधन की वैधता का निर्णय उसके अपने गुणों के आधार पर होना है। भाग III के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों पर बने
कानूनों के वास्तविक प्रभावों का ध्यान रखना पड़ता है। यह निर्धारित करते समय करना
होता है कि ये कानून संविधान के मूल ढांचे को क्षति पहुंचाते हैं। यह प्रभाव
परीक्षण इस चुनौती की वैधता का निर्धारण करेगा।
24 अप्रैल, 1973 को अथवा इसके बाद हुए सभी संविधान
संशोधनों जिनके द्वारा नवीं अनुसूची में विभिन्न कानूनों को शामिल करके इसका
संशोधन किया जाता है, का परीक्षण संविधान के मूल ढांचे या विशेषता की कसौटी पर किया जाएगा
जैसा कि अनुच्छेद 21, सपठित अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 19 और उनमें सन्निहित सिद्धांतों
प्रतिबिम्बित होता है। इसे दूसरी तरह से देखने पर अगर एक अधिनियम संविधान संशोधन
द्वारा नवीं अनुसूची में डाल भी दिया जाता है, इसके प्रावधानों पर निशाना साधा जा
सकता है। इस आधार पर कि वे संविधान के मूल ढांचे को क्षति पहुंचा रहे हैं, अगर मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है।
नवीं सूची में शामिल कानूनों को संविधान
संशोधन द्वारा संरक्षण (पूरा संरक्षण नहीं ) प्रदान करने का औचित्य संवैधानिक
न्याय निर्णय का एक मामला होगा, जिसमें किसी कानून द्वारा मौलिक अधिकार के हनन की प्रकृति और सीमा की
जांच की जाएगी। यह परीक्षण अनुच्छेद 21 सपठित अनुच्छेद 14 एवं 19 में उल्लिखित मूल
संरचना के सिद्धांत की कसौटी पर 'अधिकार परीक्षण' (rights test) तथा अधिकारों का सार'
(exsence of the rights) का उपयोग करके भाग III के अनुच्छेदों के संक्षिप्त अवलोकन के आधार पर
होंगे जैसा कि इंदिरा गांधी मामले में किया गया था। उक्त परिमाण को नवीं सूची के
कानूनों पर लागू करके अगर पाया जाता है कि अतिक्रमण से मूल ढांचे पर प्रभाव पड़ता
है ऐसे कानून दो नवीं सूची का संरक्षण नहीं मिलेगा।
अगर नवीं अनुसूची के किसी कानून की वैधता को
इस न्यायालय ने सही ठहराया है तो इस निर्णय द्वारा घोषित सिद्धांत पर ऐसे कानून को
पुनः चुनौती नहीं दी जा सकती। तथापि भाग III का कोई कानून जिसे अधिकारों का
उल्लंघनकारी ठहराया गया हो, 24 अप्रैल, 1973 के बाद नवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया हो तथा ऐसा उल्लंघन
चुनौती देने के योग्य होगा, इस आधार पर कि यह संविधान की मूल संरचना को क्षति पहुंचाता है जैसाकि
अनुच्छेद 21 सपठित अनुच्छेद 14 एवं 19 में तथा उनमें अंतर्निहित सिद्धांतों में
इंगित किया गया है।
यदि अधिनियम को निरस्त करने के परिणाम में
कार्यवाही हो चुकी है और लेन देन तय हो चुका हो, तो इसे चुनौती नहीं दी जा सकती।
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