षाड्गुण्य सिद्धांत | षाड.गुण्य नीति | Kautiliya ShaanGunya Theory
षाड्गुण्य सिद्धांत | षाड.गुण्य नीति
- कौटिल्य ने पड़ोसी देशों के साथ व्यवहार के लिये 6 लक्षणों वाली नीति अपनाने पर बल दिया। प्राचीन भारतीय चिन्तन में भी इसके लक्षण मिलते है। मनु के विचारों में तथा महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है।
- कौटिल्य की मान्यता थी कि विदेश नीति का निर्धारण इन छः गुणों के आधार पर करना चाहिए।
- कौटिल्य ने षड्गुण्य नीति को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि - उनमें
- दो राजाओं का मेल हो जाना संधि,
- शत्रु का अपकार करना विग्रह ,
- उपेक्षा करना,
- आसन हमला करना
- यान आत्म सर्मपण करना संश्रय,
- दोनों से काम लेना द्वैधीभाव कहलाता है।
षाड्गुण्य नीति का व्यावहारिक पक्ष
- कौटिल्य ने षाड़गुण्य नीति का विकास व्यावहारिक आधार पर किया।
- कौटिल्य यह जानता था कि राजा अथवा राज्य को कई बार ऐसे अवसर देखने पड़ते है जब उनके सामने की चुनौती बहुत शक्तिशाली तथा कई बार चुनौती बेहद कमजोर होती है। ऐसे में राजा को परिस्थितियों के अनुसार नीति बनानी चाहिए तथा कमजोर होने पर विग्रह कर लेना चाहिए।
- यदि दोनों समान स्थिति में हैं तो आसन को स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि राजा स्वयं को सक्षम एवं तैयार समझता है तो उसे यान (चढ़ाई) का सहारा लेना चाहिए। समय, परिस्थितियों के अनुसार नीति में परिवर्तन करके राष्ट्रहित को साधना चाहिए। कौटिल्य की मान्यता थी कि समय के साथ षाड़गुण्य में परिवर्तन किया जाना चाहिए।
कौटिल्य की षाड़गुण्य नीति इस प्रकार है:
1.संधिः-
कौटिल्य के षड़गुण्य नीति का पहला एंव महत्वपूर्ण तत्व है। कौटिल्य का मत है कि यह दो राजाओं के मध्य हुआ समझौता है। यह राजा के द्वारा किया गया उपक्रम है जिसका उद्देश्य अपने को बलशाली बनाना तथा शत्रु को कमजोर करना है। कौटिल्य ने संधि के लिये निम्न आवश्यक परिस्थितियां बतायी है:-
1.यदि राजा समझता है कि इससे उसके हित सिद्ध होंगे तथा शत्रु को हाँनि होगी।
2.शत्रु पक्ष के लोगों को कृपा दिखाकर अपने में शामिल करना।
3.शत्रु के साथ संधि कर उसका विश्वास हो जाये तो गुप्तचरों और विष प्रयोग से शत्रु का नाश करना।
4.उत्तम कार्यों के साथ शत्रु के उत्तम कार्यों से लाभ प्राप्त करना।
कौटिल्य के अनुसार संधि के प्रकार
कौटिल्य ने अनेक प्रकार की संधियों का उल्लेख किया है। इसमें से कुछ प्रमुख संधि इस प्रकार है:-
हीन संधि
- हीन संधि एक विशेष प्रकार की संधि है जो बलवान राजा के साथ एक कमजोर राजा अपनी सुरक्षा और हित सवंर्धन के लिये करता है।
दंडोपनत संधिः- कौटिल्य ने इसके तीन प्रकार बताये है-
अमिष संधि
- जब पराजित राजा विजयी राजा के समक्ष अपनी सेना, धन के साथ सर्मपण कर दे तो उस संधि का अमिष संधि कहते है।
पुरूषांतर संधि
- अपने सेनापति तथा राजकुमार को विजयी राजा को सौंपकर जो संधि की जाती है। उसे पुरूषंकर संधि कहते है।
अदृश्य पुरूष संधि
- यह एक विशेष संधि होती है जिसमें यह निश्चित होता है कि विजयी राजा के हित के लिये पराजित सेना या राजा उपक्रम करेगा। यह संधि अदृश्य पुरूष संधि कहलाती है।
देशोपनत संधिः- देशोपनत संधि के निम्न प्रकार होते है-
परिक्रय संधिः-
- यह वह संधि होती है जिसमें बलवान राजा द्वारा युद्ध में गिरफ्तार किये गये महत्वपूर्ण व्यक्तियों को धन देकर छोड़ा जाता है।
उपग्रह संधि
- यह वह संधि है जिसमें धनराशि निश्चित हो जाती है। यह किस्तवार धन अदा करन बल देती है।
सुवर्ण संधि
- सुविधानुसार निश्चित समय पर नियमित धनराशि देने की संधि सुवर्ण संधि कहलाती है।
कपाल संधि
- यह वह संधि हैं जिसमें संपूर्ण धनराशि तत्काल अदा करने की शर्त होती है । इसे कपाल संधि कहते है।
परिपणित देश संधिः-
- यह एक प्रकार की रणनीतिक संधि दो राज्यों के बीच होती है। इसमें दो राज्य रणनीति के तहत अलग-अलग दो राज्यों पर हमला करते है।
परिपणित काल संधि
- यह समय (काल) को आधार पर की गई संधि होती है। इसमें दो राज्य एक निश्चित समय पर कार्य करने पर सहमत होते है।
परिपणित कार्य संधि
- यह दो राज्यों के बीच एक निश्चित कार्य को करने का समझौता होता है। इसमें अपने-अपने हिस्से का कार्य तय हो जाता है।
मित्र संधि:-
- यह एक अलग प्रकार की संधि है जो दो मित्र राजाओं के बीच परस्पर हित पूर्ति के लिये की जाती है।
विषम संधिः-
- यह दो राज्यों के बीच दो अलग-अलग कार्यों को करने का समझौता है। इसमें एक राज्य हिरण्य का तथा दूसरा भूमि का कार्य करता है।
अति संधि
- यह विशेष संधि है जो उम्मीद से अधिक लाभ प्राप्त होने का प्रतीक है ।
भूमि संधि
- यह दो राज्यों के बीच भूमि प्राप्त करने हेतु किया गया समझौता है। इसे भूमि संधि कहते है।
हिरण्य संधि
- यह हिरण्य लाभ के लिये की गई संधि है। यही कारण है कि इसे हिरण्य संधि कहते है। विग्रह या युद्धः- यह राजा की महत्वपूर्ण नीति है। राजा को युद्ध का सहारा तभी लेना चाहिए जब उसे लगे कि शत्रु कमजोर हो गया है। कौटिल्य ने आगे स्पष्ट किया है कि यदि विजीगीषु राजा को यह लगे कि संधि और विग्रह दोनों से ही समान लाभ प्राप्त हो रहा है तो उसे विग्रह के स्थान पर संधि का सहारा लेना चाहिए।
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