कौटिल्य का राज्य की उत्पत्ति सिद्धान्त | कौटिल्य के अनुसार राज्य के कार्य एवं स्वरूप |Kautilya's theory of the origin of the state

 

कौटिल्य का राज्य की उत्पत्ति सिद्धान्त
Kautilya's theory of the origin of the state
कौटिल्य का राज्य की उत्पत्ति सिद्धान्त Kautilya's theory of the origin of the state

  • कौटिल्य ने राज्य की उत्पत्ति के संबंध में सामाजिक समझौते के सिद्धान्त से मिलते - जुलते विचार दिये है। उनका मानना है कि राज्य से पूर्व समाज में अराजकता, मत्स्य न्याय अथवा जिसकी लाठी उसकी भैंस की तरह की स्थिति थी। इस स्थिति में सभी परेशान थे अपने जीवन, संपति की रक्षा के लिए लोगों ने मनु को अपना राजा बनाया शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए लोगों ने उपज का 1/6 भाग कर के रूप में देने लगे। व्यापार में 1/10 भाग तथा सोने से होने वाले आय का भी कुछ भाग प्राप्त करने लगे।

 

  • कौटिल्य की पुस्तक "अर्थशास्त्र " में स्पष्ट करता है कि राजा जनकल्याण में कार्य करेगा तथा .. लोग कोष में अपना अंश तभी करेंगे जब उनकी सुरक्षा, कल्याण आदि राजा द्वारा सुनिश्चित किया जायेगा। इस प्रकार कौटिल्य ने राज्य की उत्पत्ति में जन स्वीकृति का विचार दिया है।

 

  • कौटिल्य का राज्य की उत्पत्ति का विचार समझौतावादी विचाराकों हाव्स, लाक तथा रूसों से मेल खाता है। उनका मानव भी स्वार्थी, झगड़ालू है जो अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये दूसरे को नुकसान पहुँचाने में नहीं हिकचता है। मानव जीवन पर आये संकट, ने सभी को मिलकर व्यवस्था सुनिश्चित करने पर विवश किया।

 

  • कौटिल्य ने राजा पर जन कल्याण का अंकुश लगाया है। उसने आशा की है कि जन स्वीकृति से अस्तित्व में आया राजा अपने को बनाये रखने के लिये सदैव प्रयासरत रहता है। कौटिल्य ने राजकोष" पर जनता का नियन्त्रण माना है। उसकी स्पष्ट मान्यता थी कि बिना जन स्वीकृति के नया कर नहीं लगाया जा सकता है। वह राजा को पूर्ण आजादी नहीं देता वरनउस पर जनस्वीकृति का बंधन लगाता है।

 

कौटिल्य के अनुसार राज्य का स्वरूप

 

  • कौटिल्य राज्य के स्वरूप के संबंध में साव्ययी रूप में विचार रखते है। 
  • उनकी स्पष्ट मान्यता है कि राज्य सात अंगों जैसे स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र से मिलकर बना है । उसकी मान्यता है कि यह आवश्यक अंग है। 
  • कौटिल्य के साव्ययी विचारों से पूर्व की भारतीय चिन्तन में इसकी झलक मिलती है। ऋग्वेद में जहां इसकी झलक मिलती है वहीं यर्जुवेद में कहा गया है कि विराट पुरुष की पीठ राष्ट्र है और उसकी उदर पीठ, जांघ तथा घुटने आदि उसकी प्रजा है। कौटिल्य द्वारा प्रस्तुत सावयवी सिद्धान्त पूर्णतः स्पष्ट और मौलिक है।
  • इसका उद्भव ऋग्वेद के पुरुष उक्ति में मिलता है। कौटिल्य ने अपने सात अंगों में राजा को सर्वाधिक महत्व दिया है। राजा के बाद मंत्री या अमात्य है जो उसे परामर्श देते है। उनकी सहायता से ही राज्य का संचालन संभव हो पाता है।
  • दुर्ग राज्य की सुरक्षा का कवच है। जनपद अथवा भू-भाग राज्य के अस्तित्व का भैतिक आधार है। जन कल्याण के लिए भरा हुआ कोष आवश्यक है। इसके अतिरिक्त दण्ड भी राज्य का आवश्यक अंग है क्योंकि बिना भय के कानून का पालन सुनिश्चित कराना असंभव है।
  • कौटिल्य इसमें मित्र को भी स्थान देता है। आधुनिक समय में जनसंख्या, निश्चित भू-भाग , सरकार तथा सम्प्रभुता को राज्य का अंग माना जाता है परन्तु कौटिल्य ने इसे साथ मानते हुए इसमें कोष, दुर्ग मित्र को जोड़ा है।
  • कौटिल्य ने राज्य को पुलिस राज्य नहीं माना है। वह राज्य के व्यापक कार्यों की वकालत करता है। उसका मानना है कि राज्य को व्यक्ति के पूर्ण विकास में सहायता करना चाहिए। उसकी मान्यता थी कि इस परम् उद्देश्य को पाने के लिये राज्य को सभी यत्न करने चाहिए।
  • राज्य के द्वारा नागरिकों में देशभक्ति और कर्तव्य परायणता भरने के प्रयास करने चाहिए। उसका मानना था कि राज्य द्वारा जन कल्याण के सभी कार्य करने चाहिए।
  • कौटिल्य नागरिक सुरक्षा, जनकल्याण को आवश्यक मानता था। वह विदेशी राष्ट्रों पर पैनी नजर रखने की भी वकालत करता था। 

कौटिल्य के अनुसार राज्य के कार्य 

 

1.राज्य की सुरक्षा करना। 

2.शांति और व्यवस्था बनाये रखना। 

3.प्रजा की वाह्य और आंतरिक संकटों से रक्षा करना। 4.देश की सीमाओं का विस्तार करना। 

5.कृषि को उन्नत करने का सदैव प्रयत्न करना। 

6.पशुओं का संरक्षण और संर्वद्धन करने का प्रयत्न करना । 

7.व्यापार को बढ़ावा देना। 

8.वनों का विस्तार तथा कल-कारखानों का प्रसार करना। 

9.सामाजिक, शैक्षणिक कार्यों को करना।

 

कौटिल्य के अनुसार राजा के सेना संबंधी कार्य:-

  • कौटिल्य राज्य के सात अंगों में राजा को सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है। वह शासन की धुरी के समान है । वह शासन को प्रभावी बनाने तथा जनकल्याण को सुनिश्चत करने का माध्यम है।

 

कौटिल्य के अनुसार राजा के गुण

  • कौटिल्य ने राजा के आवश्यक गुणों का विस्तृत विवरण दिया है। उसके अनुसार राजा को कुलीन, स्वस्थ, शास्त्र का अनुसरण करने वाला होना चाहिए। 
  • उसे अभिगामी गुणों, प्रज्ञा गुणों, उत्साह गुणों तथा आत्म सयंम गुणों से युक्त होना चाहिए
  • अभिगामी गुणों अन्नर्तगत राजा की कुलीनता, धैर्य, दूरदर्शीता, सत्यवादिता, आदि आती है।
  • राजा से यह आशा की जाती है कि वह उचित , सत्य तथा शास्त्रों के अनुरूप चीजों को ग्रहण करेगा। उत्साह गुण में राजा में निर्भीकता, तेजी एवं दक्षता से कार्य करने की आशा रखी जाती है।
  • आत्म संयत गुणों में राजा से संयमी, बलवान, मृदुभाषी तथा उदार होने की आशा की जाती है। 
  • कौटिल्य का मत है कि शिक्षा एवं कठोर अभ्यास से इन गुणों का विकास किया जा सकता है। कौटिल्य का कहना था- जिस प्रकार घुन लगी लकड़ी शीघ्र नष्ट हो जाती है उसी प्रकार अशिक्षित राजकुल भी बिना किसी युद्ध के अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है।"


कौटिल्य की शिक्षा योजना

  • कौटिल्य ने शिक्षा पर बहुत महत्व दिया है। उन्होंने शिक्षा की व्यापक योजना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार मुण्डन संस्कार के बाद वर्णमाला और अंकमाला का अभ्यास कराया जाय। उपनयन के बाद उसे क्रयी, वार्त, दण्ड नीति का ज्ञान कराया जाए।
  • वर्ता के अध्ययन से राजा की आर्थिक समस्याओं को समझने की क्षमता विकसित होती है।
  • दण्ड नीति में योग्य राजा अपने राज्य मे शांति और व्यवस्था लागू कर जनकल्याण सुनिश्चत करता है। 
  • आन्वीक्षकी विद्या राजा की बुद्धि को तीव्र करती है। यह लोक उपकार करती है। इसे राजा सुख-दुख में स्थिर रहता है और विचलित नहीं होता है।

 

कौटिल्य के अनुसार राजा की दिनचर्या

कौटिल्य के चिन्तन में राजा का प्रमुख स्थान है । राजा को सदैव सजग, सर्तक रहना चाहिए।

राजकर्म को ठीक प्रकार से करने के लिए वह दिन-रात को आठ भागों में बांट देता है। वह प्रत्येक भाग को डेढ़ घंटे का होगा। 

दिन के कार्य 

  • वह दिन के प्रथम भाग में राजा के द्वारा रक्षा तथा पिछले दिनों के आय-व्यय को देखने पर बल देता है। 
  • दूसरे भाग में वह जनता, नागरिकों से मिले तथा उनका कल्याण सुनिश्चित करने पर बल देता है। 
  • तीसरे भाग को स्नान, भोजन तथा स्वध्याय के लिए सुरक्षित करता है। 
  • चौथे भाग में कर विभाग का निरीक्षण पर बल देता है। 
  • पांचवा भाग मंत्रीपरिषद से परामर्श करने के लिए सुरक्षित है। सातवें भाग में स्वेच्छा से वह कोई कार्य कर सकता है । 
  • आठवां भाग हाथी, घोड़े, सेना के निरीक्षण के लिये आरक्षित है।

रात्रि के कार्य  

  • इसी प्रकार रात्रि को आठ भागों में विभाजित किया गया है । 
  • रात्रि के पहले भाग में गुप्तचरों को देखे। 
  • दूसरे भाग में स्नान, भोजन स्वध्याय तथा तीसरे भाग में संगीत सुनने के लिए निश्चित करता है।
  • चौथा पांचवा भाग शयन के लिए निश्चित है। 
  • छठे भाग में जागकर दिन में संपादित किये जाने वाले कार्य पर विचार करें। 
  • सातवें भाग में गुप्तमंत्रणा करें तथा गुप्तचरों को यथा स्थान भेजें आठवें भाग में आचार्य , पुरोहित आदि से आशीर्वाद ग्रहण करें। इसी समय वैद्य, रसोइया, ज्योतिष से परामर्श करें। इन सबसे निवृत होने के बाद दान दक्षिणा देने के बाद वह दरबार में प्रवेश करें।

कौटिल्य वंशानुगत राजतंत्र समर्थक

  • कौटिल्य वंशानुगत राजतंत्र का समर्थक था। वह राजा के बाद ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी सौंपने का पक्षधर था। यहां पर कौटिल्य योग्य उत्तराधिकारी का पक्षधर था। 
  • उसकी मान्यता थी कि यदि योग्य उत्तराधिकारी न हो तो प्रधानमंत्री के द्वारा योग्य राजकन्या को उत्तराधिकारी बनाना चाहिए।


राजा के प्रमुख कार्य:- कौटिल्य ने राजा के निम्नलिखित प्रमुख कार्य बताये है:-

 

1.प्रजा का कल्याण के लिए प्रयास करना। 

2.धर्म का पालन तथा रक्षा करना। 

3.शांति और व्यवस्था बनाये रखना। 

4.प्रशासनिक कार्यों हेतु योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति करना। 

5.विधि निर्माण करना। 

6.न्यायिक कार्य करना। 

7.दण्ड की व्यवस्था करना। 

8.आर्थिक एवं वाणिज्यिक कार्यों की निगरानी करना। 

9.राजकोष की अभिवृद्धि के उपाय करना। 

10.युद्ध के लिए सदैव तैयार रहना।

 

  • इस प्रकार स्पष्ट होता है कि कौटिल्य राजा को व्यापक शक्तियां प्रदान करता है परन्तु वह सामाजिक, धार्मिक नियमों से बंधा हुआ है। प्रो0 अल्तेकर का स्पष्ट मत है कि कौटिल्य का राजा बहुत लौकिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक बंधनों से मर्यादित है।

 

भारतीय चिन्तन में राज्य का साव्यय रूप

  • प्राचीन समय से भारतीय चिन्तन में राज्य के साव्यय रूप का उल्लेख मिलता है । इस सिद्धान्त में राज्य की कल्पना एक जीवित शरीर की तरह की जाती है। इस सिद्धान्त में यह माना जाता है कि जिस प्रकार मानव शरीर विभिन्न अंगों से मिलकर बना है उसी प्रकार राज्य रूपी शरीर भी विभिन्न अंगों से मिलकर बना है।
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