पीआईएल के सिद्धांत | Principles of PIL

पीआईएल के सिद्धांत | Principles of PIL 

पीआईएल के सिद्धांत | Principles of PIL


सर्वोच्च न्यायालय ने पीआईएल से संबंधित निम्नलिखित सिद्धांत निरूपित किए हैं :

 

  • सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 32 एवं 226 के अंतर्गत प्रदत्त शक्तियों का उपभोग करते हुए ऐसे लोगों कल्याण में रुचि लेने वाले किसी व्यक्ति की याचिका को स्वीकार कर सकता है जो समाज के कमजोर वर्गों से हैं और इस स्थिति में नहीं है कि स्वयं अदालत का दरवाजा खटखटा सकें। न्यायालय ऐसे लोगों के मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य है, इसलिए वह राज्य को अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए निदेशित करता है । 

  • जब भी सार्वजनिक महत्व के मुद्दे, बड़ी संख्या में लोगों के मूल अधिकारों को लागू कराने राज्य के संवैधानिक कर्त्तव्य और प्रकार्य के मामले उठते हैं, न्यायालय एक पत्र अथवा तार को भी पीआईएल के रूप में व्यवहृत करता है। ऐसे मामलों में न्यायालय प्रक्रियागत कानूनों तथा सुनवाई से संबंधित कानून में भी छूट देता है।

 

  • जब लोगों के साथ अन्याय हो, न्यायालय अनुच्छेद 14 तथा 21 के तहत कार्रवाई से नहीं हिचकेगा, साथ ही मानवाधिकार संबंधी अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन भी ऐसे मामलों में एक उपर्युक्त एवं निष्पक्ष मुकदमें का प्रावधान करता है।

 

  • अधिकारिता संबंधी सामान्य नियम को शिथिल करके न्यायालय गरीबों, निरक्षरों तथा नि:शक्तों की ओर से दायर शिकायतों की सुनवाई करता है क्योंकि ये लोग अपने संवैधानिक या वैधिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए वैधिक गलती अथवा वैधिक आघात के निवारण में स्वयं सक्षम नहीं होते।

 

  • जब न्यायालय प्रथम द्रष्टया साधनहीन लोगों के संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन के बारे में आश्वस्त हो जाता है, वह राज्य अथवा सरकार को तत्संबंधी याचिका के सही ठहरने संबंधी किसी प्रश्न को उठाने की अनुमति नहीं देता।

 

  • यद्यपि पीआईएल पर प्रक्रियागत कानून लागू होते हैं, लेकिन पूर्व न्याय (resjudicate)* का सिद्धांत या ऐसे ही सिद्धांत लागू होगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि याचिका की प्रकृति कैसी है, साथ ही मामले से संबंधित तथ्य एवं परिस्थितियाँ कैसी हैं।

 

  • निजी कानून के तहत आने वाले दो समूहों के बीच संघर्ष संबंधी विवाद पीआईएल के रूप में अनुमान्य नहीं होगा।

 

  • तथापि, एक उपयुक्त मामले में, भले ही याचिकाकर्ता किसी हित में अपने व्यक्तिगत परिवाद के समाधान के लिए न्यायालय की शरण में जा चुका हो, स्वंय न्याय हित में। न्यायालय जनहित के संवर्धन में इस मामले की जाँच कर सकता है।

 

  • न्यायालय विशेष परिस्थितियों में आयोग या अन्य निकायों की नियुक्ति आरोपों की जाँच तथा तथ्यों को उजागर करने के उद्देश्य से कर सकता है। यह ऐसे आयोग द्वारा अधिग्रहण की गई किसी सार्वजनिक संस्था के प्रबंधन को भी निदेशित कर सकता है।

 

  • न्यायालय साधारणतया नीति बनाने की सीमा तक अतिक्रमण नहीं करेगा। न्यायालय द्वारा यह भी सावधानी बरती जाएगी कि लोगों के अधिकारों की रक्षा में अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन न हो।

 

  • न्यायालय न्यायिक समीक्षा के ज्ञात दायरे के बाहर सामान्यतया कदम नहीं रखेगा। उच्च न्यायालय यद्यपि संबंधित पक्षों को पूर्ण न्याय देने संबंधी निर्णय दे सकता है, इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 में प्रदत्त शक्तियाँ प्राप्त नहीं होंगी।

 

  • साधारणतया उच्च न्यायालय को ऐसी याचिका को पीआईएल के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए जिसमें किसी विधि या वैधिक भूमिका पर प्रश्न उठाए गए हों।

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