अकबर की राजपूत नीति Akbar's Rajput policy
अकबर की राजपूत नीति Akbar's Rajput policy
राजपूताने में प्रारम्भिक विजय तथा राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध
- अकबर की महत्वाकांक्षा मुगल साम्राज्य को सुदृढ़ करने के साथ-साथ उसका सभी दिशाओं में विस्तार करने की थी।
- अफ़गानों के पराभव के बाद उत्तर भारत में राजपूत मुगलों लिए सबसे बड़ा खतरा थे। राजपूत शक्ति का मुख्य केन्द्र राजपूताना, दिल्ली और आगरा के बहुत था इसलिए उत्तर भारत पर अपना स्थायी प्रभुत्व बनाए रखने के लिए मुगलों का सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राजपूताने पर विजय प्राप्त करना आवश्यक था।
- इसके अतिरिक्त राजपूताने पर नियन्त्रण स्थापित किए बिना बुन्देलखण्ड, मालवा, गुजरात तथा दक्षिण भारत में मुगल अपने साम्राज्य का विस्तार नहीं कर सकते थे। अकबर को राजपूताने के सीमित संसाधनों, राजपूतों की जुझारू प्रकृति और उनकी वीरता की जानकारी थी।
- राजपूताने पर उसका विजय अभियान न तो मुख्यतः साम्राज्य विस्तार के लिए था और न ही साम्राज्य के संसाधनों में वृद्धि करने के लिए अकबर राजपूत शासकों से केवल यह अपेक्षा करता था कि वो उसकी आधीनता स्वीकार कर लें, अपनी वाह्य नीतियों पर उसका नियन्त्रण स्थापित होने दें और उसे वार्षिक खिराज देते रहें।
- इसके बदले में अकबर उनके सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक जीवन में कोई हस्तक्षेप किए बिना उन्हें व्यावहारिक दृष्टि से स्वतन्त्र शासक के अधिकार देने को तैयार था।
अकबर की राजपूत नीति 01
- आमेर के कछवाहा राजपूत शासक भारमल तथा उनके पुत्र भगवानदास ने मुगलों की आधीनता स्वीकार की। भारमल ने अपनी पुत्री का विवाह अकबर के साथ कर दिया। अजमेर से बीस कोस दूर मेड़ता के किले पर मारवाड़ के शासक मालदेव के सेनानायक जयमल का अधिकार था। अकबर के सेनानायक मिर्ज़ा शरीफ़ुद्दीन हुसेन ने जयमल की सेना को पराजित कर मेड़ता के किले पर अधिकार कर लिया। रणथम्भौर पर अधिकार करने के लिए भी अकबर को अपनी शक्ति का प्रयोग करना पड़ा किन्तु मारवाड़, बीकानेर, जैसलमेर आदि ने बिना प्रतिरोध के अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली। मेवाड़ के आधीन राज्य - डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ आदि ने बिना प्रतिरोध के अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार मेवाड़ छोड़कर पूरा राजपूताना मुगलों के अधीन हो गया।
अकबर की राजपूत नीति 02
- आमेर के शासक भारमल ने अपनी पुत्री का विवाह अकबर के साथ कर दिया। आमेर के शासक की भांति जैसलमेर तथा बीकानेर के शासकों ने भी अपनी कन्याओं के विवाह मुगलों के साथ कर दिए। अकबर ने अपने राजपूत सम्बन्धियों को न केवल सम्मान दिया अपितु उसने उन्हें अपनी सेना तथा प्रशासन में अत्यन्त महत्वपूर्ण पद प्रदान किए।
अकबर की चित्तौड़ विजय तथा महाराणा प्रताप का प्रतिरोध
- मेवाड़ के राणा उदय सिंह ने अकबर की आधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। राजपूताने के राज्यवंशों में मेवाड़ की सर्वाधिक प्रतिष्ठा थी। अकबर ने सन् 1567 में चित्तौड़ पर स्वयं आक्रमण किया। उदय सिंह ने भागकर अरावली की पहाड़ियों में शरण ली किन्तु जयमल और पट्टा ने वीरतापूर्वक मुगलों का सामना किया। अन्त में मुगलों ने चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार किया। अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग में भयंकर विनाश और नरसंहार कर उस पर अधिकार किया। इस कृत्य से वह अन्य राजपूत शासकों को प्रतिरोध न करने का सबक देना चाहता था। अकबर ने सन् 1569 में रणथम्भौर भी जीत लिया। अगले वर्ष तक मेवाड़ छोड़कर सभी राजपूत शासकों ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली।
- राणा उदय सिंह की सन् 1572 में मृत्यु के बाद महाराणा प्रताप ने भी मुगलों की नाम मात्र की आधीनता स्वीकार नहीं की। महाराणा प्रताप के भाइयों ने भी मुगलों की आधीनता स्वीकार कर ली परन्तु महाराणा ने अकबर द्वारा वार्ता के छह प्रस्ताव ठुकरा दिए। अकबर ने मानसिंह को सेनानायक बनाकर महाराणा के विरुद्ध सेना भेजी। हल्दीघाटी के मैदान में सन् 1576 में युद्ध हुआ जिसमें मुगलों को विजय प्राप्त हुई किन्तु अरावली की पहाड़ियों में जा छुपे महाराणा प्रताप का प्रतिरोध आजीवन जारी रहा। उन्होंने भामाशाह की आर्थिक सहायता लेकर और भीलों के सहयोग व गुरिल्ला युद्ध नीति अपना कर चित्तौड़ और मण्डलगढ़ छोड़कर शेष मेवाड़ मुगलों से वापस जीत लिया।
अकबर की विजयों तथा उसके प्रशासन में राजपूतों का योगदान
- अकबर ने साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपना कर मेवाड़ छोड़कर सभी राजपूत को अपने आधीन कर लिया था। अपनी कूटनीति से उसने राजपूत शासकों को अपना सबसे महत्वपूर्ण व भरोसेमन्द मित्र बना लिया। पारस्परिक लाभ की नीति अपना कर राजपूतों की वन बद्धता, उनके सैन्य कौशल तथा उनके प्रशासनिक अनुभव का अकबर ने भरपूर लाभ उठाया।
- भगवानदास और उसके पुत्र मानसिंह को तो उसने अपने सर्वोच्च मनसबदारों में सम्मिलित किया था। मानसिंह पर भरोसा जताते हुए अकबर ने उसे महाराणा प्रताप के विरुद्ध अभियान की कमान सौंपी थी और मानसिंह ने महाराणा प्रताप को पराजित कर उसके निर्णय को उचित सिद्ध किया था। अकबर के विजय अभियानों में उसके राजपूत सहयोगियों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया था।
- अकबर सन् 1581 के सत्ता परिवर्तन के राजनीतिक संकट का निवारण, राजपूत सहयोग के बल पर ही कर सका था। अकबर के प्रशासन को सुदृढ़ एवं सक्षम बनाने में भी राजपूतों का महत्वपूर्ण योगदान था।
- सन् 1562 से लेकर औरंगज़ेब के विरुद्ध सन् 1680 के राजपूत स्वतन्त्रता संग्राम तक, राजपूत मुगल साम्राज्य को सुदृढ़ करने में पूर्ण निष्ठा के साथ संलग्न रहे। परन्तु राजपूत शासकों ने अपनी स्वतन्त्रता खोकर मुगलों की छत्रछाया में विलासिता का जीवन व्यतीत करना भी प्रारम्भ कर दिया और उनके शासन में अनेक दोष उत्पन्न हो गए।
मुगल राजपूत सामाजिक-सांस्कृतिक आदान प्रदान
Mughal Rajput socio-cultural exchange
- राजपूतों के सम्पर्क में आने के बाद अकबर के दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों में और अधिक उदारता आ गई। आचार-विचार, वेशभूषा, खान-पान, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, स्थापत्य कला, चित्रकला, संगीत, भाषा, साहित्य, शिष्टाचार, शाही दरबार, हरम रनिवास की संरचना आि सभी क्षेत्रों में मुगल-राजपूत आदान-प्रदान हुआ। एक ओर जहां अकबर द्वारा बनवाए गए आगरा के लाल किले में जहांगीर महल, फ़तेहपुर सीकरी के दीवान-ए-खास और उसके काल के चित्रों के कथानकों में राजपूत प्रभाव देखा जा सकता है तो दूसरी ओर राजपूत शासकों की स्थापत्य कला और उनके चित्रों के कलात्मक पक्ष पर मुगल प्रभाव देखा जा सकता है। इस प्रकार सांस्कृतिक क्षेत्र में मुगल-राजपूत मैत्री का सुपरिणाम गंगा-जमुनी संस्कृति के विकास के रूप में दिखाई पड़ा।
Also Read...
Thanks for the information
ReplyDelete