अकबर का राजत्व का सिद्धान्त Akbar's theory of kingship
अकबर का राजत्व का सिद्धान्त Akbar's theory of kingship
अकबर का राजत्व का सिद्धान्त-01
- मुगलों ने राजत्व के दैविक सिद्धान्त का अनुपालन किया। मुगलों द्वारा शासक को ईश्वर का प्रतिनिधि बताया गया और उसके आदेश में ईश्वर के आदेश की प्रतिध्वनि बताई गई। राजभक्ति को ईश्वरीय भक्ति का ही एक रूप माना गया।
- इस दृष्टि से बादशाह के साम्राज्य के हर व्यक्ति के लिए उसके आदेश को मानना उसका धार्मिक कर्तव्य माना गया।
- अबुल फ़ज़्ल ने अपने ग्रंथ अकबरनामा में राजत्व को ईश्वरीय उपहार माना है। अबुल फ़ज़्ल ने बादशाह को प्रजा के संरक्षक, उसके पालक, शुभचिन्तक और अभिभावक के रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रकार बादशाह के अपरिमित अधिकारों के साथ उसके कर्तव्यों को भी जोड़ दिया गया क्योंकि पिता के पद की गरिमा और उसके अधिकारों को बिना किसी दायित्व के ग्रहण नहीं किया जा सकता। अबुल फ़ज़्ल के अनुसार बादशाह का कार्य राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित कर उसे सुदृढ़ता तथा सुरक्षा प्रदान करना है।
- अगर बादशाह का अस्तित्व नहीं होता तो हर जगह अशान्ति, अराजकता व्याप्त रहती और निहित स्वार्थों में लिप्त व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का हनन कर रहे होते। समस्त मानवजाति के लिए विनाशकारी इन प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए बादशाह को अपनी शक्ति का भय दिखलाना आवश्यक है।
- बादशाह के प्रति आज्ञाकारिता और उसके प्रति निष्ठा व स्वामिभक्ति प्रदर्शित करना उसकी प्रजा का कर्तव्य है। प्रजापालक बादशाह जनकल्याण, सर्वतोन्मुखी प्रगति तथा निष्पक्ष न्याय का जीवन्त प्रतीक होता है।
अकबर का राजत्व का सिद्धान्त-02
- अबुल फ़ज़्ल पादशाह शब्द में पाद को स्थायित्व व स्वामित्व का तथा शाह को ईश्वर के प्रतिनिधि का प्रतीक मानता है।
- अतः पादशाह दैविक शक्ति से युक्त, ईश्वरीय आदेश पर पृथ्वी पर भेजा गया एक सर्वशक्तिमान शासक है जिसको आम प्रजा अथवा प्रभावशाली उलेमा वर्ग अथवा अमीरों द्वारा अपदस्थ नहीं किया जा सकता।
- पादशाह के विरुद्ध विद्रोह करना अथवा उसके आदेश की अवज्ञा करना, ईश्वरीय आदेश की अवमानना है ।
- एक आदर्श बादशाह सुख-दुःख से परे होता है। उसमें ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश प्रतिबिम्बित होता है इसलिए उसे अपनी प्रजा का आध्यात्मिक गुरु अथवा मार्गदर्शक बनने का भी अधिकार है।
- सन् 1579 में निर्गत महज़र में अकबर ने मुसलमानों के धार्मिक विवादों के विषय में प्रामाणिक व्याख्या तथा अन्तिम निर्णय देने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा था।
- अकबर की नीतयों से असन्तुष्ट उलेमा वर्ग ने जब उसको अपदस्थ करने के षडयन्त्र में भाग लिया तब उसने उनके प्रभाव और प्रतिष्ठा को और भी क्षीण कर दिया।
अकबर का राजत्व का सिद्धान्त-03
- सन् 1582 में दीन-ए-इलाही की योजना को प्रस्तुत किया गया था। अकबर इस नवीन मत का प्रणेता, आध्यात्मिक गुरु पुरोहित तथा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि था।
- इसके मतावलम्बी अकबर से दीक्षा लेते थे और अपने अहंकार तथा स्वार्थ को त्याग कर उसके प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा एवं भक्ति व्यक्त करते थे।
- तौहीद-ए-इलाही (दैविक एकेश्वरवाद) अथवा दीन-ए-इलाही को बदायूंनी ने अकबर द्वारा धर्म प्रवर्तक के रूप में अपने साम्राज्य की समस्त प्रजा को स्वनिर्मित एक राष्ट्रीय धर्म के अन्तर्गत लाने की महत्वाकांक्षी योजना कहा है।
- कुछ अन्य विद्वानों ने उसके द्वारा स्वयं को एक पैगम्बर या खलीफ़ा के रूप में प्रस्तुत करने का षडयन्त्र कहा है। दीन-ए-इलाही में अल्लाह हो अकबर (अल्लाह महान है।) तथा जल्ले जलाल हू के नारों का महत्व था। इन दोनों में बादशाह के नाम - ‘अकबर' तथा 'जलालुद्दीन' का सम्मिलित होना आकस्मिक नहीं माना जा सकता।
- दीन-ए इलाही में बादशाह अकबर को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते हुए उपासक उसके समक्ष अपना तन मन-धन तथा ईमान अर्पित करते थे। वास्तव में अकबर के राजत्व के सिद्धान्त के अनुसार, बादशाह, इस पृथ्वी पर, ईश्वर की छाया और उसका प्रतिनिधि होता है।
- अबुल फ़ज़्ल ने बादशाह अकबर को इंसान-ए-कामिल अर्थात् सर्वगुण सम्पन्न, दोषरहित, पूर्ण पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया है। अकबर का राजत्व का सिद्धान्त इस्लाम की राजनीतिक परम्पराओं पर आधारित नहीं था। उसके राजत्व के सिद्धान्त पर हिन्दुओं के राजत्व सिद्धान्त का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
- फ़तेहपुर सीकरी में अकबर ने दीवान-ए-खास का निर्माण कराया था। इसके मुख्य कक्ष के मध्य में बादशाह एक सुदृढ़ स्तम्भ के ऊपर कमल की आकृति के गोलाकार स्थान पर रखे सिंहासन पर बैठता था। इसकी प्रेरणा कमल पर विराजमान प्रजापति ब्रह्मा की अवधारणा से ली गई थी। अकबर ने अपने नवरत्नों की अवधारणा की प्रेरणा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य तथा अन्य भारतीय शासकों से प्राप्त की थी।
- अकबर के ब्राह्मण चाटुकारों ने उसे भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में भी प्रस्तुत किया था। अकबर ने झरोखा दर्शन की हिन्दू शासकों की परम्परा को पुनर्जीवित किया था। उसके काल में उसके अनेक भक्त दर्शनिए बन गए थे जो कि अकबर का दर्शन किए बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। इस प्रकार अकबर ने व्यक्ति पूजा को प्रोत्साहन दिया जो कि इस्लाम के मूलभूत सिद्धान्तों के विरुद्ध था।
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