अलाउद्दीन का राज्यारोहण |अलाउद्दीन की बाज़ार नियन्त्रण की नीति Alauddin's market control policy
अलाउद्दीन का राज्यारोहण Alauddin's ascension
- भिलसा तथा देवगिरि के अभियानों के बाद अलाउद्दीन का अगला अभियान दिल्ली का तख्त हासिल करना था। बूढ़े और शिथिल सुल्तान के प्रति बढ़ते हुए असन्तोष से दिल्ली के तख्त तक पहुंचने की उसकी राह आसान होती जा रही थी।
- अलाउद्दीन के प्रति अनुरक्त सुल्तान को अहमद चप ने उसके गुपचुप देवगिरि अभियान का हवाला देकर उससे सावधान रहने की सलाह भी दी थी पर सुल्तान का अपने भतीजे की वफ़ादारी पर भरोसा ज्यों का त्यों बना रहा।
- अपने भाई अलमास बेग के माध्यम से अलाउद्दीन ने सुल्तान से देवगिरि अभियान गुप्त रखने की क्षमा मांगी और उसे कड़ा आने का निमन्त्रण दिया जिसे उसने स्वीकार कर लिया। कड़ा में सुल्तान को देवगिरि की लूट सौंपे जाने का वादा किया गया था।
- अलमास बेग ने सुल्तान को इस बात के लिए भी कर लिया कि वह मानिकपुर में अलाउद्दीन से बिना अपने सैनिकों को साथ लिए बिना अकेला मिले। दूसरी ओर अलाउद्दीन सुल्तान का विधिवत स्वागत करने के बहाने अपनी सेना के साथ था। सुल्तान से मिलते ही अलाउद्दीन के अधिकारियों, मुहम्मद सलीम और इख्तियारुद्दीन हुद ने सुल्तान पर हमला कर दिया। सुल्तान अपने सभी अनुचरों के साथ मारा गया। भाले पर टंगे हुए सुल्तान
- जलालुद्दीन के सिर के सामने अलाउद्दीन की ताजपोशी की गई। इस षडयन्त्र में शामिल अलमास खाँ, ज़फ़र खाँ, हिज़ाब्रुद्दीन, मलिक संजर, अल्प खाँ, नुसरत खाँ आदि को पुरस्कृत किया गया। परन्तु दिल्ली पर अभी भी जलालुद्दीन के समर्थकों का अधिकार था। देवगिरि अभियान से प्राप्त अथाह धन-सम्पदा के बल पर अलाउद्दीन ने जहां एक ओर विशाल सेना संगठित की वहीं उसने इसके बल पर अपने विरोधियों को भी अपनी ओर मिला लिया। अहमद चप जलालुद्दीन के बेटे और उसकी बेगम के साथ मुल्तान चले गए।
- दिल्ली में 22 अक्टूबर, 1296 को बलबन के लालमहल में अलाउद्दीन की विधिवत ताजपोशी हुई। मुल्तान में उलुग खाँ और ज़फ़र खाँ ने जलालुद्दीन के समर्थकों को पराजित कर मौत के घाट उतार दिया।
सुल्तान के रूप में अलाउद्दीन Alauddin as Sultan
अलाउद्दीन का राजत्व का सिद्धान्त Alauddin's theory of kingship
- अलाउद्दीन छल-कपट, विद्रोह, तलवार और सोने के बल पर सुल्तान बना था। उसको अमीरों का समर्थन दौलत के बल पर खरीदना पड़ा था और प्रजा को उसने तलवार के ज़ोर पर अपना सुल्तान मानने के लिए विवश किया था।
- अलाउद्दीन की ताजपोशी को उलेमा वर्ग का समर्थन भी प्राप्त नहीं था। इन परिस्थितियों में उसका अस्तित्व सदैव खतरे में था। बलबन की राजनीति में जहां सुल्तान का रुतबा घटा था वहीं अमीरों का दबदबा बना हुआ था। अनेक अमीर सुल्तान बनने का स्वप्न देख रहे थे। अलाउद्दीन ने बलबन के राजत्व के दैविक सिद्धान्त का पोषण किया।
- उसने शासक को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित किया। अलाउद्दीन ने अमीरों की शक्ति व प्रतिष्ठा में कमी की। उसने जलाली अमीरों का पूर्णतया दमन कर दिया और अपने वफ़ादार अमीरों की शक्तियों को भी नियन्त्रित किया।
- गुप्तचरों का जाल बिछाकर अमीरों के आपस में मिलने जुलने, वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने आदि पर उसने राज्य का नियन्त्रण स्थापित किया।
- विद्रोह षडयन्त्र करने वालों का समूल विनाश कर उसने सभी को भविष्य में विद्रोह करने का दुःसाहस करने से रोक दिया।
- अलाउद्दीन ने उलेमा वर्ग की भी उपेक्षा की। उलेमाओं को मिलने वाली आर्थिक सुविधाओं और रियायतों को उसने समाप्त कर उन्हें साधनहीन बना दिया।
- अलाउद्दीन चूंकि शासक को ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था इसलिए धर्म के नाम पर उलेमा वर्ग द्वारा राजकाज में हस्तक्षेप करना उसे स्वीकार्य नहीं था। उसने राज्य पर से धर्म का नियन्त्रण हटा दिया। अलाउद्दीन ने खलीफ़ा से खिलअत अथवा उपाधि प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया।
मंगोल आक्रमणों की समस्या के निवारण के प्रयास
- अलाउद्दीन के सुल्तान बनने के सवा साल बाद ही कंदर के नेतृत्व में मंगोलों की एक लाख की सेना पंजाब तक चढ़ आई। फ़रवरी, 1298 में उलुग खाँ और ज़फ़र खाँ ने उन्हें जालन्धर में पराजित किया। इसी वर्ष के अन्त में साल्दी के नेतृत्व में मंगोलों ने सिवस्तान के किले पर अधिकार कर लिया किन्तु ज़फ़र खाँ ने उस पर दोबारा अधिकार कर साल्दी और वह उसके भाई सहित अनेक मंगोलों को बन्दी बनाकरं दिल्ली ले आया।
- सन् 1299 में कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में दो लाख मंगोलों की सेना ने दिल्ली को घेर लिया। अलाउद्दीन और ज़फ़र खाँ के संयुक्त प्रयास से मंगोलों की भयंकर पराजय हुई और फिर भारी नुक्सान के बाद उन्हें वापस लौटना पड़ा।
- सन् 1303 में अलाउद्दीन जब स्वयं चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करने में व्यस्त था और उसकी सेना का एक बड़ा भाग तेलंगाना विजय अभियान के लिए गया हुआ था तब तरगी के नेतृत्व में मंगोल सेना ने एक बार फिर दिल्ली पर घेरा डाल दिया। इस बार अलाउद्दीन को सीरी के किले में शरण लेनी पड़ी। मंगोलों ने दिल्ली के आसपास का इलाका खूब लूटा किन्तु घेरा डालने की तकनीक से अपरिचित मंगोलों को शीघ्र ही वापस लौटना पड़ा। अलाउद्दीन ने अब मंगोल समस्या से निपटने के लिए ठोस कदम उठाए ।
- उसने उत्तर पश्चिमी सीमा से लेकर दिल्ली तक किलों की मरम्मत कराई और उनमें अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित विशाल सेना तैनात की। उसने अपनी सेना का पुनर्गठन किया। भारी संख्या में नए सैनिकों की भर्ती की गई और उनके लिए नकद वेतन की व्यवस्था की गई। इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों को नकद वेतन देने में कठिनाई देखते हुए उसने आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों पर नियन्त्रण रखने के लिए बाज़ार नियन्त्रण की नीति अपनाई ।
- मंगोलों को अब दिल्ली पर आक्रमण करने का साहस नहीं हो सका किन्तु उन्होंने दिसम्बर, 1305 में अली बेग, के नेतृत्व में दोआब पर हमला कर दिया मलिक नायक ने अमरोहा में उन्हें पराजित किया। बन्दी मंगोलों के सिरों को काटकर सीरी के किले की दीवारों में चुनवा दिया गया।
- सन् 1306 में कबाक, इक़बाल व ताइबू के आक्रमण मलिक नाइब काफ़ूर तथा ग़ाज़ी मलिक द्वारा विफल किए गए। इसके बाद हज़ारों बन्दी मंगोलों को दिल्ली मौत के घाट उतारा गया।
- मंगोलों की आन्तरिक समस्याओं और अलाउद्दीन के उनके विरुद्ध उठाए गए कठोर कदमों के कारण सन् 1307 से लेकर अलाउद्दीन के शासनकाल के अन्त तक मंगोल उसके राज्य पर आक्रमण करने से दूर ही रहे।
अलाउद्दीन की बाज़ार नियन्त्रण की नीति Alauddin's market control policy
बाज़ार नियन्त्रण की नीति लागू करने का कारण
- ख़ैरुल मजालिस के लेखक शेख नासिरुद्दीन ने अलाउद्दीन की बाज़ार नियन्त्रण की नीति को जन-कल्याण हेतु उठाया गया कदम बताया है परन्तु इस दावे में सत्य का लेशमात्र भी नहीं है। तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता, मुद्रा अवमूल्यन, शाही खजाने में धन की कमी के बावजूद सैनिक खर्च में सीमातिरेक वृद्धि की आवश्यकता ने अलाउद्दीन को इस जटिल, कठिन और लगभग अव्यावहारिक नीति को अपनाने के लिए प्रेरित किया था।
- ज़ियाउद्दीन बर्नी की फ़तवा-ए-जहांदारी के अनुसार इस नीति का उद्देश्य राज्य पर मंगोल आक्रमणों के संकट को जड़ से समाप्त करने के लिए एक विशाल सेना का सीमित संसाधन में खर्च चलाना था।
- इसके अतिरिक्त आन्तरिक विद्रोहों का दमन करने के लिए तथा साम्राज्य का विस्तार करने के लिए भी अलाउद्दीन को अपने नियन्त्रण में एक विशाल और स्थायी सेना की आवश्यकता थी। इस विशाल सेना के सैनिकों को नकद वेतन का भुगतान करने के लिए राजकोष में सीमित धन था। सैनिकों की क्रय क्षमता के अनुरूप उनके जीवन से जुड़ी सभी आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों पर नियन्त्र रखने के लिए अलाउद्दीन ने बाज़ार नियन्त्रण की नीति अपनाई थी।
सैनिकों के वेतन का निर्धारण
- राजकोष की क्षमता का आकलन कर एक घुड़सवार को मात्र 234 टंके का वार्षिक वेतन ही दिया जा सकता था। अलाउद्दीन ने इस बात का खयाल रखा था कि अपने वेतन में हर एक सैनिक अपने परिवार और अपने काम के लिए ज़रूरी मवेशियों का खर्च सुगमतापूर्वक निकाल सके।
मूल्य नियन्त्रण
- मध्यकालीन इतिहास में अलाउद्दीन पहला शासक था जिसने सुनियोजित आर्थिक नीति अपनाई थी। परवर्ती शासकों में शेरशाह तथा अकबर ने उसका अनुकरण किया था। मुद्रा अवमूल्यन के कारण वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे थे।
- मंगोल आक्रमणों के कारण आयातित घोड़ों की कीमत बहुत बढ़ गई थी । आवश्यक वस्तुओं की कालाबाज़ारी हो रही थी। इन विषम परिस्थितियों में सैनिकों की क्रय क्षमता के अनुरूप उनके जीवन से जुड़ी सभी आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों पर नियन्त्र रखने के लिए अलाउद्दीन ने बाज़ार नियन्त्रण की नीति अपनाई थी। उसने खाद्यानों, कपड़ों, घोड़ों, गुलामों, बांदियों आदि सभी के मूल्य निर्धारित किए गए।
- खाद्यानों में गेहूँ 7.5 जीतल प्रति मन, चावल 5 जीतल प्रति मन, नमक 2 जीतल प्रति मन और शक्कर 1.25 जीतल प्रति सेर पर बेची जानी निश्चित की गई। अच्छा सूती कपड़ा 1 टंके में 20 गज़ और मोटा कपड़ा 1 टंके में 40 गज़, सूती चादर का दाम 10 जीतल प्रति नग निर्धारित हुआ किन्तु रेशमी कपड़ा काफ़ी महंगा रहा। मवेशियों के बाज़ार में अच्छे घोड़े का दाम 100 से 120 टंका, मध्यम श्रेणी के घोड़े का 80 से 90 टंका और टट्टू का दाम 10 से 20 टंका रखा गया। घोड़ों की तुलना में गुलाम और बांदियों की कीमत बहुत कम रखी गई थी।
- अलाउद्दीन ने बाज़ार से बिचौलियों और दलालों की उपस्थिति लगभग समाप्त कर दी थी। बाज़ार नियन्त्रण की नीति लागू किए जाने से लेकर अलाउद्दीन की मृत्यु तक वस्तुओं के दाम स्थिर रहे परन्तु इस व्यवस्था का लाभ मुख्य रूप से वेतन भोगियों को और वह भी दिल्ली और उसके आसपास के निवासियों को ही मिल पाया था।
बाज़ार नियन्त्रण की व्यवस्था
- बाज़ारों का नियन्त्रण दीवान-ए-रियासत करता था। मलिक याकूब इस विभाग का अध्यक्ष था। अलाउद्दीन ने विभिन्न आवश्यक वस्तुओं के लिए चार अलग-अलग बाज़ार स्थापित किए थे। ये थे - खाद्यान्न बाज़ार, निर्मित वस्तुओं का बाज़ार (सराय-ए-अद्ल), सामान्य वस्तुओं का बाज़ार, मवेशियों, गुलाम तथा बांदियों का बाज़ार प्रत्येक बाज़ार एक शुहना-ए-मण्डी के नियन्त्रण में होता था। सभी व्यापारियों का पंजीकरण किया जाता था और सुल्तान तक रोज़ाना बाज़ार की गतिविधियों की सूचना पहुंचाने का दायित्व शुहना, बरीद तथा मुंशियों का था।
- महंगी तथा आयातित किन्तु आवश्यक वस्तुओं को कम कीमत पर उपलब्ध कराए जाने के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध कराई जाती थी किन्तु इसके लिए खरीदार को परवाना रईस (अनुज्ञप्ति अधिकारी) से परमिट प्राप्त करना होता था।
- अलाउद्दीन ने संकटकालीन स्थिति से निपटने के लिए बड़ी संख्या में राजकीय गोदामों में खाद्यान्न जमा करने की व्यवस्था की थी। अकाल, बाढ़ आदि प्राकृतिक विपदाओं की स्थिति में खाद्यान्न की कमी की आपूर्ति इन्हीं सरकारी गोदामों में जमा खाद्यान्न से की जाती थी।
कानून तोड़ने वालों के लिए कठोर दण्ड व्यवस्था
- अलाउद्दीन ने कीमतों में फेर बदल, माप-तौल में गड़बड़ी, जमाखोरी, मिलावट आदि करने वालों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की थी। भ्रष्ट अधिकारी भी उसके कोप का भाजन बनते थे।
व्यापारियों, किसानों तथा आम आदमी को हानि
- बाज़ार नियन्त्रण की नीति कृत्रिम, दमनकारी तथा शोषक थी। इसके दूरगामी परिणाम लाभकारी नहीं हो सकते थे। इससे व्यापारियों को मिलने वाले लाभ में बहुत कमी आई। प्रॉफ़िट इन्सेन्टिव समाप्त होने के कारण एक प्रकार से वे कमीशन एजेण्ट या मज़दूर बन कर रह गए। व्यापारियों ने व्यापार एवं वाणिज्य के विकास में रुचि लेना छोड़ दिया। किसानों को अपने उत्पादों को निर्धारित मूल्यों पर बेचने के कारण कम धन प्राप्त होता था जबकि उन्हें लगान नकदी में देना होता था। इससे कृषि के विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। आम आदमी के पास तो सस्ती वस्तुएं खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे ज़ियाउद्दीन बर्नी कहता है- 'सुना है कि बाज़ार में ऊँट एक दाम का बिक रहा था पर किसी की जेब में उसे खरीदने के लिए एक भी दाम नहीं था।'
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