औरंगज़ेब की दक्षिण नीति | मुगल साम्राज्य के पतन में औरंगज़ेब की दक्षिण नीति का दायित्व Aurangzeb's South Policy
औरंगज़ेब की दक्षिण नीति Aurangzeb's South Policy
1 औरंगज़ेब का दक्षिण भारत का अभियान और प्रारम्भिक सफलताएं
- शाहजहां के शासनकाल में औरंगज़ेब दो बार दक्षिण सूबेदार रह चुका था। सन् 1656 में वह बीजापुर और गोलकुण्डा पर विजय प्राप्त कर उनको मुगल साम्राज्य में मिलाने के लिए प्रयत्नशील था किन्तु उत्तराधिकार के युद्ध में कूद पड़ने के कारण उसे अपना विजय-अभियान अधूरा ही छोड़ना पड़ा था। परन्तु उत्तर भारत में अपनी व्यस्तताओं के कारण वह दक्षिण विजय के अपने पुराने स्वप्न को साकार करने के लिए समय नहीं निकाल सका था। शिवाजी के अयोग्य उत्तराधिकारी छत्रपति शम्भाजी ने बागी शहज़ादे अकबर को शरण देकर औरंगज़ेब के दक्षिण अभियान के लिए अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न कर दी थीं । औरंगज़ेब ने सन् 1682 में दक्षिण के लिए अभियान किया।
औरंगज़ेब के दक्षिण के अभियान के मुख्य उद्देश्य
1. बागी शहज़ादे अकबर को कैद करना।
2. बीजापुर तथा गोलकुण्डा के शिया राज्यों पर अधिकार कर वहां पर सुन्नी परम्पराओं का प्रचलन करना तथा मुगल साम्राज्य का विस्तार करना।
3. मराठों की शक्ति का दमन करना।
अगले सात वर्षों में अपने उपरोक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने में औरंगज़ेब को ऊपरी तौर पर पर्याप्त सफलता मिली
1. शम्भाजी के साथ 5 वर्ष बिताकर शहज़ादा अकबर भारत छोड़कर ईरान चला गया।
2. सन् 1686 में मुगलों ने बीजापुर पर तथा सन् 1687 में गोलकुण्डा पर अधिकार कर औरंगज़ेब ने दक्षिण में मुगल साम्राज्य के विस्तार के स्वप्न को साकार किया।
3. सन् 1689 में संगामेश्वर में छत्रपति शम्भाजी को मुगलों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया और बाद में उसकी निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई।
मराठा स्वतन्त्रता संग्राम Maratha freedom struggle
1. संगमेश्वर में छत्रपति शम्भाजी अपनी गिरफ्तारी के बाद एक नायक के रूप उभर कर सामने आया। अपनी जान बचाने के लिए न तो वह अपना धर्म परिवर्तित करने के लिए तैयार हुआ और न ही मुगलों की आधीनता स्वीकार करने को एक अयोग्य शासक के रूप में कुख्यात शम्भाजी अपनी निर्भीक मृत्यु के बाद एक शहीद का सम्मान प्राप्त करने का अधिकारी बन गया। उसकी निर्मम हत्या कर औरंगज़ेब ने अपने लिए मुश्किलों का पहाड़ खड़ा कर दिया।
2. मराठों ने अपने छत्रपति के बलिदान को व्यर्थ न जाने देने के लिए शम्भाजी के छोटे भाई राजाराम के नेतृत्व में छापामार युद्ध नीति का आश्रय लेकर स्थानीय निवासियों के सहयोग से अपना स्वतन्त्रता आन्दोलन छेड़ दिया। धानाजी जाधव और सन्ताजी घोरपड़े ने मुगलों पर अनेक सफल हमले किए। उन्होंने औरंगज़ेब के शिविर तक पर हमले किए। मुगलों को अनेक बार मराठों के विरुद्ध सफलताए मिलीं किन्तु उनमें स्थायित्व नहीं रहा। विख्यात मुगल सेनानायक ज़ुल्फ़िकार खाँ ने जिन्जी के प्रसिद्ध किले पर अनेक बार विजय प्राप्त की परन्तु हर बार मराठों ने उसे वापस जीत लिया। मराठों ने मुगल सेना की रसद सामग्री को लूटकर अपने संसाधन बढ़ा लिए तथा मुगलों का जीवन दूभर कर दिया। मराठा छापामारों से अपनी जान बचाने के लिए अनेक बार मुगलों को उन्हें रिश्वत तक देनी पड़ती थी। रुस्तम खाँ, इस्माइल खाँ और अलीमर्दान खाँ जैसे अनेक मुगल सेनापतियों को मराठों ने कैद किया और भारी जुर्माना लेकर ही उनको मुक्त किया।
3. औरंगज़ेब को यह समझ आ गई कि साम्राज्य विस्तार हेतु उसने मराठों की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने वाले गोलकुण्डा तथा बीजापुर के राज्यों को समाप्त कर अपनी मुश्किलें बढ़ा ली हैं। राजाराम की सन् 1700 में मृत्यु के बाद भी औरंगज़ेब की कठिनाइयों का अन्त नहीं हुआ। राजाराम की विधवा ताराबाई के कुशल नेतृत्व में मराठा सवतन्त्रता संग्राम पूर्ववत जारी रहा। औरंगज़ेब ने तोरना के किले को छोड़कर मराठों के सभी किलों पर अधिकार तो किया किन्तु उन पर उसकी पकड़ कभी मज़बूत नहीं हो सकी।
दूसरी ओर मराठों द्वारा दक्षिण के छहो मुगल सूबों पर छापे डाले जाते रहे और व्यावहारिक दृष्टि से इन क्षेत्रों पर मराठों का ही अधिकार हो गया।
मुगल साम्राज्य के पतन में औरंगज़ेब की दक्षिण नीति का दायित्व
1. औरंगज़ेब ने सन् 1686 में बीजापुर तथा सन् 1687 में गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में मिलाकर दक्षिण में मुगल साम्राज्य का व्यापक विस्तार किया था किन्तु कुछ वर्षों के दक्षिण प्रवास में उसको यह समझ आ गई कि साम्राज्य विस्तार हेतु उसने मराठों की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने वाले इन स्वतन्त्र राज्यों को समाप्त कर अपनी मुश्किलें बढ़ा ली हैं। अब मराठों की शक्ति से उसको अकेले अपने दम पर ही निपटना था।
2. लगातार अपने घरों से दूर रहकर अनजान, दुर्गम एवं अभावग्रस्त क्षेत्र में जन-समर्थन प्राप्त मराठा शत्रुओं की छापामार युद्धनीति का मुगल सेना के पास कोई जवाब नहीं था। सन् 1707 में अपनी मृत्यु से पूर्व औरंगज़ेब दक्षिण में 26 वर्ष बिता चुका था किन्तु इतने समय में उसने केवल निराशा, हताशा, धन-जन तथा प्रतिष्ठा की अपरिमित हानि ही अर्जित की थी।
3. लगातार 26 वर्ष तक दक्षिण में रहने के कारण अपने साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों पर औरंगज़ेब की पकड़ अत्यन्त शिथिल हो गई थी। राजपूताना, बुन्देलखण्ड, पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त आदि क्षेत्र व्यावहारिक दृष्टि से मुगलों के अधिकार से निकल गए थे। औरंगज़ेब मुगल साम्राज्य के विघटन का एक मूक दर्शक बनकर रह गया था।
4. दक्षिण में लगातार युद्धों में व्यस्त रहने के कारण धन-जन की अपार हानि के बाद भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके थे। मुगल अपने
5. औरंगज़ेब की असफल दक्षिण नीति प्रशासनिक भ्रष्टाचार, अशान्ति, राजनीतिक अराजकता, गुटबन्दी, षडयन्त्र, आर्थिक संकट, कृषि, उद्योग एवं व्यापार के विकास में बाधा, साहित्य, कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में अवनति के लिए ज़िम्मेदार थी। सर जदुनाथ सरकार ने औरंगज़ेब की दक्षिण नीति और नैपोलियन के स्पेन अभियान (स्पेन के नासूर) के विनाशकारी परिणामों में बहुत समानता पाई है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि औरंगज़ेब ने अपने दक्षिण अभियान से अपने साम्राज्य की कब्र खुद अपने हाथों से खोदी थी।
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