बादशाह हुमायूं Emperor Humayun |बादशाह हुमायूं प्रारम्भिक कठिनाइयां
बादशाह हुमायूं Emperor Humayun
बादशाह हुमायूं प्रारम्भिक कठिनाइयां
सन् 1530 में बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूं को बादशाह बनते ही अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
- हुमायूं को विरासत में आर्थिक रूप से दुर्बल और प्रशासनिक स्तर पर अव्यवस्थित एवं राजनीतिक दृष्टि से अस्थिर एक ऐसा साम्राज्य मिला था जो कि केवल सैन्य-बल पर टिका हुआ था। उसकी सेना मुगलों, तुर्कों, उज़बेको, ईरानियों, अफ़गानों और हिन्दुस्तानियों का जमावड़ा थी और इसमें जातीय, भाषागत एवं सांस्कृतिक भिन्नता के कारण एकता और संगठन का अभाव था।
- बाबर ने हमायूं को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के साथ ही अपने शेष तीन बेटों- कामरान, अस्करी और हिन्दाल में भी अपना साम्राज्य विभाजित कर दिया था। कामरान को और कान्धार का शासक बनाया गया था। कामरान ने प्रारम्भ से ही हुमायूं के लिए कठिनाइयां खड़ी कर दी थीं। अस्करी और हिन्दाल भी कामरान के मोहरे बन कर हुमायूं को परेशान कर रहे थे।
- हुमायूं के अन्य सम्बन्धी मुहम्मद ज़मां, मुहम्मद सुल्तान मिर्ज़ा तथा मीर मुहम्मद महदी ख्वाजा न केवल शक्तिशाली, साधन-सम्पन्न थे अपितु स्वयं बादशाह बनने की महत्वाकांक्षा भी रखते थे। ये सभी नए बादशाह के प्रति निष्ठावान नहीं थे।
- बंगाल के शासक नुसरत शाह ने मुगलों से पराजित अफ़गानों को शरण दी थी और इब्राहीम लोदी की पुत्री से विवाह कर दिल्ली के तख्त पर स्वयं अधिकार करने की योजना भी बनाई थी।
- सिंध और मुल्तान के अरघुन शासकों से बाबर ने काबुल छीन लिया था और खनवा के युद्ध में विजय के बाद उन्हें अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया था। बंगाल और गुजरात में बादशाह हुमायूं की व्यस्तता देखकर अरघुन शासकों ने स्वयं को न केवल स्वतन्त्र घोषित किया अपितु हुमायूं के विद्रोही भाई कामरान मिर्ज़ा से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध भी स्थापित कर लिए थे।
- भारत में नवजात मुगल साम्राज्य को पूर्व में शेर खाँ के नेतृत्व में अफ़ग़ान शक्ति के पुनर्गठन से सबसे बड़ा खतरा था।
- दक्षिण में गुजरात का शासक बहादुर शाह मालवा और चित्तौड़ पर अधिकार करना चाहता था और फिर उत्तर भारत की ओर भी बढ़ना चाहता था।
बादशाह हुमायूं का बहादुर शाह से संघर्ष
- गुजरात का शासक बहादुरशाह मालवा तथा राजपूताने पर अधिकार करना चाहता था। उसने शेर खाँ से मित्रता कर ली और बागी मुगल ज़मां मिर्ज़ा को अपने यहां शरण दी और हुमायूं द्वारा उसको मुगलों को सौंपने की मांग ठुकरा दी।
- सन् 1535 में जब बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर घेरा डाला तो वहां की रानी कर्णवती ने हुमायूं से सहायता मांगी।
- हुमायूं बहादुर शाह के विरुद्ध अभियान के लिए निकला किन्तु एक विधर्मी से जिहाद करते हुए एक मुसलमान के विरुद्ध उसने युद्ध न करने का मूर्खतापूर्ण निर्णय लेकर एक ओर जहां राजपूतों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का मौका खा दिया, वहीं उसने मुश्किल में पड़े हुए बहादुर शाह को चित्तौड़ जीतने का अवसर भी प्रदान कर दिया।
- हुमायूं और बहादुर शाह की सेनाओं का मन्दसौर में आमना-सामना हुआ जिसमें मुगल सेना की विजय हुई। भागते हुए बहादुर शाह का हुमायूं ने मन्दसौर, चम्पानेर और खम्भात तक पीछा किया और फिर अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया।
- अस्करी को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया किन्तु एक वर्ष के अन्दर ही मालवा तथा गुजरात की मुगल विजय निरर्थक सिद्ध हुई और बहादुर शाह को एक बार फिर गुजरात पर अधिकार करने का अवसर मिल गया।
हुमायूं का शेर खाँ से संघर्ष
- अगस्त, 1532 में दौहरिया के युद्ध में मुगलों ने अफ़गानों को पराजित कर बिहार बंगाल के प्रवेश द्वार चुनार के किले पर अपना दावा किया था जिस पर कि शेर खाँ ने अधिकार कर लिया था।
- शेर खाँ बाबर का सैनिक पदाधिकारी रह चुका था। उसने हुमायूं को अपना स्वामी स्वीकार करते हुए चुनार का किला उसी के पास रहने देने की प्रार्थना की ।
- हुमायूं ने किले को घेर लिया परन्तु छह महीने के घेरा डालने के बाद भी वह उस पर अधिकार नहीं कर सका। इधर ग्वालियर पर बहादुरशाह द्वारा कब्ज़ा किए जाने से परेशान हुमायूं उसे रोकने के लिए वापस जाना चाहता था।
- शेर खाँ द्वारा मुगलों की दिखावे मात्र की आधीनता और ज़मानत के तौर पर अपने बेटे कुतुब खाँ को हुमायूं को सौंपने के प्रस्ताव के बदले में हुमायूं ने चुनार का किला उसी के पास रहने दिया और वह स्वयं आगरा लौट गया।
- गुजरात में हुमायूं की व्यस्तता का लाभ उठाकर शेर खाँ ने दक्षिणी बिहार पर अधिकार कर लिया। उसने हुमायूं को कोई भेंट नहीं भेजी और हुमायूं के कब्ज़े से कुतुब खाँ के वापस निकल आने के बाद सन् 1534 में बंगाल के शासक महमूद शाह को सूरजगढ़ के युद्ध में पराजित कर उससे भारी रकम वसूली।
- सन् 1537 में शेर खाँ द्वारा बंगाल पर दुबारा आक्रमण के समय वहां के शासक महमूद शाह के अनुरोध पर हुमायूं सन् 1537 में शेर खाँ के दमन हेतु पूर्व की ओर बढ़ा लेकिन बंगाल में उससे निपटने से पहले हुमायूं ने नवम्बर, 1537 में चुनार किले का घेरा डाला और जून, 1538 में उसे जीत लिया।
- इस बीच शेर खाँ ने बंगाल पर अधिकार कर लिया था। शेर खाँ के दमन के उद्देश्य से मई, 1538 में हुमायूं बंगाल के लिए निकला। शेर खाँ के पुत्र जलाल खाँ द्वारा उसका मार्ग अवरुद्ध किए जाने के कारण वह चार महीने बाद बंगाल की राजधानी गौड़ पहुंच सका।
- शेर खाँ तब तक रोहतास गढ़ पहुंच गया था। हुमायूं ने चार महीने का समय गौड़ में व्यतीत किया। उसके द्वारा बिहार की रक्षा के लिए नियुक्त उसका भाई हिन्दाल बिहार को असुरक्षित छोड़कर आगरा चला गया और वहां उसने तख्त पर अधिकार कर लिया।
- आगरा वापस लौटने के लिए उत्सुक हुमायूं ने चौसा से शेर खाँ के समक्ष अप्रैल, 1539 को सन्धि का प्रस्ताव भेजा जिसे स्वीकार करने में टालमटोल करते हुए उसने तीन महीने बिता दिए।
- बरसात के मौसम में, पश्चिम से पूरी तरह कटे हुए, रसद की कमी से जूझ रहे, शेर खाँ सन्धि की प्रत्याशा के कारण पूर्णतया असावधान हुमायूं पर 25 जून की रात में हमला कर दिया और मुगल हमला सेना को पराजित किया।
- भारी नुक्सान उठाकर हुमायूं जान बचाकर वापस आगरा पहुंच सका। चौसा के युद्ध के बाद शेर खाँ ने शेर शाह की उपाधि धारण कर ली।
- शेर शाह से युद्ध करने हेतु हुमायूं ने अपनी सेना का पुनर्संगठन किया। अप्रैल, 1540 तक शेर शाह बंगाल से बढ़ते हुए कन्नौज पहुंच चुका था और अपनी सेना के साथ हुमायूं भी आगरा से वहां पहुंच गया था।
- कन्नौज में दोनों सेनाएं एक महीने तक एक-दूसरे के सामने थीं किन्तु हुमायूं की सेना का पड़ाव निचली सतह पर था। मई माह में अप्रत्याशित हुई बारिश से हुमायूं के शिविर में पानी भर गया और उसकी तोपें बेकार हो गईं। इसका लाभ उठाकर शेर शाह ने मुगलों पर हमला बोल दिया।
- 17 मई, 1540 को बिलग्राम के युद्ध में शेर शाह ने मुगल सेना को पराजित किया। शेर शाह ने सुगमता से आगरा तथा दिल्ली पर अधिकार कर लिया और फिर उसने हुमायूं को हिन्दुस्तान से पूरी तरह निष्कासित कर दिया।
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