मुगल काल की जागीरदारी प्रथा Jagirdari system of Mughal period

मुगल काल की जागीरदारी प्रथा 

Jagirdari system of Mughal period

मुगल काल की जागीरदारी प्रथा  Jagirdari system of Mughal period   जागीरदारी प्रथा सामान्य परिचय Jagirdari system general introduction


जागीरदारी प्रथा सामान्य परिचय Jagirdari system general introduction

 

  • जागीरदारी प्रथा सामन्तवादी शासन प्रणाली का एक प्रकार थी। 
  • सल्तनत काल में अमीरों को उनके नकद वेतन के बदले में उन्हें उसके समतुल्य आय के इक्ते (जागीर) प्रदान किए जाते थे। 
  • बलबन और अलाउद्दीन खिलजी ने जागीरदारी प्रथा का दमन किया जब कि फ़ीरोज़ तुगलक ने इसका पुनरुत्थान किया। 
  • अकबर ने मनसबदारी व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च पदीय मनसबदारों को वेतन के बदले में जागीरें आवंटित कीं। जागीर वंशानुगत नहीं होती थी तथा समय-समय पर उनका हस्तान्तरण भी होता था किन्तु पूर्व शासकों और ज़मींदारों को उनके गृह क्षेत्र में जागीर-ए-वतन प्रदान की जाती थी। 
  • जागीरदार अपनी आवंटित जागीरों में प्रशासक की भूमिका भी निभाते थे। जागीरदारों की गतिविधियों पर सम्बद्ध सूबेदार, फ़ौजदार व शिकदार के माध्यम से राज्य का नियन्त्रण रखा जाता था। धीरे-धीरे सैनिक व राजनीतिक कारणों से जागीरदारों की संख्या बढ़ती चली गई और जागीरों की कमी पड़ने लगी। 
  • औरंगज़ेब के शासनकाल के उत्तरार्ध से जागीरदारी व्यवस्था राज्य पर एक भारी आर्थिक बोझ बन गई और परवर्ती काल में उसमें और भी अधिक अव्यवस्था व अराजकता व्याप्त होने के कारण उसका पतन गया। 
  • कृषि प्रधान देश भारत में राज्य की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व रहा है। मौर्य काल में आमतौर पर उपज का छठा भाग भू-राजस्व के रूप में लिया जाता था। 
  • भू-राजस्व निर्धारण में भूमि की नापजोख किए जाने की व्यवस्था थी। प्राचीन भारत में शासक कृषि विकास और किसानों के कल्याण के प्रति प्रयत्नशील रहते थे। 
  • दिल्ली सल्तनत काल में भू-राजस्व के रूप में उपज का आधा भाग लेकर अलाउद्दीन खिलजी ने किसानों के हितों की सर्वथा उपेक्षा की थी किन्तु उसने राजस्व एकत्रण में मध्यस्थों की भूमिका समाप्त कर तथा लगान निर्धारण हेतु भूमि की पैमाइश की वैज्ञानिक प्रणाली लागू की थी। 
  • फ़ीरोज़ तुगलक ने किसानों पर करों का बोझ कम किया तथा कृषि-विकास हेतु नहरों व जलाशयों का निर्माण किया परन्तु भू-राजस्व के एकत्रण हेतु ठेकेदारी प्रथा का प्रचलन कर उसने किसानों का अहित किया। 
  • भूमि की नापजोख तथा उत्पादकता के आधार पर भू- राजस्व का निर्धारण कर, किसानों को पट्टा प्रदान कर व उनसे कुबूलियत प्राप्त कर शेरशाह ने भू राजस्व प्रशासन को अत्यन्त व्यवस्थित किया। 
  • मुगल भू-प्रशासन इस धारणा पर आधारित था कि साम्राज्य की समृद्धि किसान के सुखी होने पर निर्भर करती है। 
  • अकबर ने शेरशाह के भू-राजस्व प्रशासन से प्रेरणा लेकर राजा टोडरमल के नेतृत्व में दहसाला बन्दोबस्त किया जिसमें भूमि की पैमाइश तथा उसकी उत्पादकता के आधार पर भू-राजस्व का निर्धारण किया गया। 
  • अकबर के शासनकाल के दहसाला बदोबस्त को राजपूतों, मराठों व अंग्रेज़ों ने अपने भू-राजस्व प्रशासन का आधार बनाया। 
  • मुगल शासकों ने किसानों के हितों की रक्षा व कृषि विकास को राज्य का दायित्व समझा परन्तु इस काल में किसानों पर करों का बोझ ब्रिटिश काल की तुलना में कम होते हुए भी बहुत अधिक था फिर भी मध्यकालीन परिस्थितियों को देखते हुए हम मुगल भू-राजस्व व्यवस्था को सफल कह सकते हैं।

 

 

जागीरदारी प्रथा क्या होती थी 


अकबर के शासनकाल से पूर्व जागीरदारी प्रथा 

Jagirdari system before Akbar's reign

 

  • जागीरदारी प्रथा सामन्तवादी शासन प्रणाली का एक प्रकार थी। दिल्ली सल्तनत काल में इक्तादारी प्रथा प्रचलित थी। सल्तनत काल में अमीरों को उनके नकद वेतन के बदले में उन्हें उसके समतुल्य आय के इक्ते प्रदान किए जाते थे। इन इक्तों का प्रबन्ध करने तथा उनमें राजस्व एकत्र करने का अधिकार उन्हें दे दिया जाता था। 
  • इक्तेदार अथवा मुक्ती अपने-अपने इक्तों अथवा जागीरों में लगभग स्वतन्त्र शासक की भांति कार्य करते थे जिसके कारण केन्द्रीय सरकार कमज़ोर पड़ने लगी थी। 
  • दिल्ली सल्तनत काल में मुगल काल की भांति न तो जागीरों के हस्तान्तरण की प्रथा थी और न ही जागीरदार की मृत्यु के बाद राज्य द्वारा जागीर को वापस अपने अधिकार में लिए जाने की परम्परा। 
  • केन्द्रीय शासन की शक्ति बढ़ाने के उद्देश्य से सुल्तान बलबन ने जागीरदारी प्रथा के प्रचलन पर प्रतिबन्ध लगा दिए थे। परन्तु सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने तो उसे समाप्त ही कर दिया था।
  • सुल्तान फ़ीरोज़ शाह तुगलक ने इस प्रथा को पुनर्जीवित किया था तथा जागीरों को वंशानुगत कर दिया। और तब से लेकर लोदियों के शासन काल तक इसका प्रचलन बना रहा परन्तु शेरशाह ने जागीर प्रथा को समाप्त कर दिया। बाबर, हुमायूं तथा अकबर के शासनकाल के प्रथम दशक जागीरदारी प्रथा का प्रचलन नहीं था।

 

अकबर तथा परवर्ती मुगल काल में जागीरदारी

Jagirdari in Akbar and later Mughal period

 

अकबर के शासनकाल में जागीरदारी प्रथा को लागू करने के उद्देश्य

 

  • अकबर के शासनकाल के दूसरे दशक में प्रारम्भ की गई मनसबदारी व्यवस्था के अन्तर्गत मनसबदारों को उनके वेतन के बदले में जागीर दिए जाने की व्यवस्था ने मुगलकालीन जागीरदारी प्रथा को जन्म दिया था। 
  • जागीरदारी व्यवस्था लागू करने का उद्देश्य शाही खज़ाने पर बिना अतिरिक्त बोझ डाले साम्राज्य की सैन्य शक्ति को बढ़ाना था। 
  • सैनिक अधिकारियों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ उनके आधीन सैनिकों तथा उनसे सम्बद्ध पशुओं की ज़रूरतों को भी पूरा करने की सुनिश्चित व्यवस्था करना था।

 

नकदी तथा जागीरदार Nakdi evam Jagidaar 

 

  • मुगल काल में जागीरदारी प्रथा मनसबदारी व्यवस्था का अन्तरंग अंग थी। अकबर के शासनकाल के दूसरे दशक से सभी मुगल सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को सैनिक पद मनसब प्रदान किया गया और वे सभी मनसबदार कहलाए। 
  • मनसबदारों को दिया जाने वाला वेतन दो प्रकार से दिया गया। प्रथम वे, जिन्हें नकद वेतन दिया गया। इन्हें नकदी कहा गया और द्वितीय वे, जिन्हें वेतन के स्थान पर उनके वेतन के बराबर आय के भू-क्षेत्र आवंटित किए गए। 
  • इन भू-क्षेत्रों को जागीर कहा गया और जिन्हें ये क्षेत्र आवंटित किए गए उन्हें जागीरदार कहा गया। इस प्रकार मुगल काल में जागीरदारी प्रथा अकबर के शानकाल से प्रारम्भ हुई थी।

 

जमादामी क्या होती है What is Jamadami 

 

  • जागीर से प्राप्त आय को 'जमादामी' कहा जाता था। आवंटित जागीर की आय से मनसबदार को अपना, अपने सैनिकों का, उनसे सम्बद्ध पशुओं तथा अस्त्र-शस्त्रों का खर्च सम्भालना होता था। सामान्यतया जागीरें उच्चपदीय मनसबदारों को प्रदान की जाती थीं। 
  • इस प्रकार जागीरदार आमतौर पर आभिजात्य वर्ग से सम्बद्ध थे। किसी मनसबदार को जागीर आवंटित करते समय यह सुनिश्चित कर लिया जाता था कि उस जागीर की वार्षिक आय उसके निर्धारित वेतन तथा भत्तों के समतुल्य है अथवा नहीं।

 

जागीरों का हस्तान्तरण तथा जागीरों का वंशानुगत न होना 

  • किसी भी जागीरदार को आवंटित जागीर पर स्वामित्व (मालिकाना हक़) प्रदान नहीं किया जाता था। मनसबदारों को लम्बे समय तक एक ही जागीर पर नहीं दी जाती थी। सावधानी के तौर पर समय-समय पर जागीरों का हस्तान्तरण भी किया जाता था ताकि जागीरदार आवंटित जागीर पर स्थायी रूप से अपने अधिकार अथवा स्वामित्व का दावा पेश न करने लगे। 
  • जागीर और मनसब वंशानुगत नहीं होते थे अर्थात् मनसबदार की मृत्यु के बाद उसके वंशज उसकी जागीर या उसके मनसब पर अपना दावा प्रस्तुत नहीं कर सकते थे। मनसबदार की मृत्यु के बाद उसकी जागीर स्वतः बादशाह के अधिकार में वापस चली जाती थी।

 

जागीरों का प्रशासन Jagir administration

 

  • जागीरदार को आवंटित जागीर से राज्य को देय भू-राजस्व तथा विभिन्न अबवाब प्राप्त करने का अधिकार था। अपनी आवंटित जागीर में जागीरदार करों की वसूली के लिए अपने कर्मचारी नियुक्त करता था। 
  • इस प्रकार जागीरदारों की जागीरों में राज्य की ओर से भू-राजस्व एकत्र करने वाले कर्मचारियों की सेवाओं की आवश्यकता नहीं रह गई और इससे राज्य को इन क्षेत्रों में भू राजस्व एकत्र करने के व्यय से छुटकारा मिल गया। 
  • प्रारम्भ में जागीरदारी व्यवस्था से न केवल राज्य के भू-राजस्व एकत्र करने के कार्य में खर्च होने वाली राशि में कमी आई अपितु मनसबदारों के आधीन सैनिकों और उनके पशुओं के रख-रखाव की चिन्ता से भी राज्य छुटकारा मिल गया। 
  • जागीरदार अपनी-अपनी जागीरों में स्वतन्त्र शासक की भांति कार्य करते थे। अपनी-अपनी जागीरों में शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने का तथा प्रजा के हितों की रक्षा करने का दायित्व जागीरदारों का ही होता था ।

 

राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों का जागीरदारों पर नियन्त्रण

 

  • यद्यपि जागीरदारों को अपनी-अपनी जागीरों में व्यावहारिक दृष्टि से स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की छूट दी गई थी किन्तु उनकी स्वेच्छाचारिता पर अंकुश रखने के लिए जागीरदारों के अधिकार क्षेत्रों से सम्बद्ध सूबेदारों / फ़ौजदारों / शिकदारों को उनकी गतिविधियों पर नज़र रखने का निर्देश था। 
  • आर्थिक मामलों में जागीरदार कोई गड़बड़ी या ज्यादती न करें, इसकी देखभाल करने का दायित्व उन क्षेत्रों से सम्बद्ध राजस्व अधिकारियों अर्थात् दीवानों / अमल गुज़ारों /आमिलों को दिया गया। 
  • जागीरदार अपने सैनिक अभियानों के लिए राज्य से अग्रिम राशि प्राप्त करते थे तथा अन्य आवश्यकताओं के लिए उधार भी लिया करते थे। 
  • दीवान-ए-विज़ारत का सवानिह निगार नामक अधिकारी जागीरदारों और राज्य के मध्य लेनदेन का हिसाब रखता था।
  • जागीरदार की मृत्यु स्थिति में उसकी जागीर स्वत: बादशाह के पास वापस चली जाती थी तथा उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति भी राज्य की ओर से ज़ब्त कर ली जाती थी। इसके बाद सवानिह निगार के कार्यालय में उसके पिछले लेनदेन का हिसाब चुकता करने के बाद उसकी निजी सम्पत्ति की शेष राशि उसके परिवार जनों को लौटा दी जाती थी।

 

जागीर ए वतन Jagir e watan

 

  • सामान्यतया मनसबदार को उसके गृह पदेश में जागीर नहीं दी जाती थी। गृह प्रदेश की जागीर को जागीर-ए-वतन कहा जाता था। यह केवल उन मनसबदारों को प्रदान की जाती थी जिनके कि पास मुगल सेवा में आने से पूर्व अपना राज्य होता था या ज़मींदारी होती थी। 
  • उदाहरणार्थ जब मुगलों की आधीनता स्वीकार कर राजपूत शासक उनके मनसबदार बनाए गए तो उन्हें जागीर-ए वतन प्रदान की गई। इस प्रकार आनुवंशिक ज़मींदारों तथा पूर्व शासकों को जागीर-ए-वतन प्रदान की गईं।

 

जागीरदारी व्यवस्था का पतन Vassal system collapse

 

  • जागीरदारी व्यवस्था का अतिशय विस्तार मुगल साम्राज्य के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुआ। अकबर के शासनकाल में मनसबदारों की कुल संख्या दो हज़ार से भी कम थी और औरंगज़ेब के शासनकाल में उनकी संख्या लगभग साढ़े चौदह हज़ार तक पहुंच गई। इनमें जागीर आवंटित किए गए मनसबदारों अर्थात् जागीरदारों की संख्या भी हज़ारों में थी।
  • बीजापुर और गोलकुण्डा विजय के बाद मुगल साम्राज्य विस्तार को पूर्ण विराम लग चुका था। अब नए भू-क्षेत्रों का मुगल साम्राज्य में समावेश नहीं हो रहा था किन्तु अपने अनवरत सैनिक अभियानों के कारण औरंगज़ेब को सैनिक अधिकारियों की संख्या में लगातार वृद्धि करनी पड़ रही थी। राज्य को अपने नए मनसबदारों को आवंटित करने के लिए नई जागीरों की निरन्तर आवश्यकता पड़ रही थी। 
  • इस प्रकार आवंटन हेतु जागीरों की कमी पड़ने लगी। धीरे-धीरे मनसबदार को आवंटित जागीर मिलने में वर्षों का समय लगने लगा और कभी-कभी अपनी आवंटित जागीर प्राप्त करने उसकी पूरी उम्र कम पड़ने लगी। शाह-ए-बेखबर कहे जाने वाले औरंगज़ेब के पुत्र बहादुर शाह प्रथम के काल में तो एक ही जागीर दो या उससे भी अधिक मनसबदारों को आवंटित की जाने लगी। धीरे-धीरे स्थिति इतनी खराब हो गई कि जागीर के आवंटन का पत्र रद्दी की टोकरी की शोभा बढ़ाने के लायक ही रह गया। 
  • अपनी-अपनी जागीरों पर वास्तविक अधिकार रखने वाले मनसबदारों की स्वेच्छाचारिता मुगल बादशाहों की दुर्बलता के कारण दिनों-दिन बढ़ती चली गई। उन्होंने किसानों का अनियन्त्रित होकर शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने किसानों से मनमाना लगान वसूल करना प्रारम्भ कर दिया और दुर्भिक्ष व बाढ़ की स्थिति में भी उन पर किसी प्रकार का रहम करना उचित नहीं समझा। जागीरदारों की इस ज़ोर-ज़बर्दस्ती से कृषि विकास को गहरा आघात लगा। जागीरदारी आनुवंशिक नहीं थी। 
  • जागीरदार के उत्तराधिकारियों का जागीरदार बनाया जाना बादशाह की इच्छा पर निर्भर करता था। इसके अतिरिक्त जागीरों के समय-समय पर हस्तान्तरित किए जाने के नियम तथा जागीरदार की मृत्यु की स्थिति में उसकी जागीर स्वतः बादशाह के पास वापस चले जाने और उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति भ राज्य की ओर से ज़ब्त किए जाने के कारण जागीरदारों के मन में आशंका, भय व अनिश्चितता बनी रहती थी। 
  • अपनी आवंटित जागीर और उसमें रहने वाली प्रजा के प्रति उनका कोई स्थायी लगाव नहीं हो पाता था। इन परिस्थितियों में अधिकांश जागीरदार अपनी-अपनी जागीरों में अपने दायित्वों के प्रति असावधान होकर मनमाने ढंग से किसानों तथा अन्य निवासियों को शोषण करते थे तथा निजी जीवन में बचत करने के स्थान पर अपनी विलासिता में अयिन्त्रित अपव्यय करते थे।
  • विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण जागीरदार अपने सैनिकों के रख-रखाव के प्रति भी असावधान हो गए जिसका कि प्रतिकूल प्रभाव राज्य की सैन्य शक्ति पर पड़ा । 
  • इस प्रकार राज्य की सैनिक क्षमता बढ़ाने तथा जागीरों में राजस्व एकत्रण हेतु सरकारी खर्च में कमी करने के जिन उद्देश्यों को लेकर जागीरदारी प्रथा को लागू किया गया था उनको प्राप्त करने की कोई भी सम्भावना जाती रही। धीरे-धीरे जागीरदारी प्रथा न केवल साम्राज्य के लिए असहनीय आर्थिक बोझ का कारण बनती गई अपितु उसके पतन का एक प्रमुख कारण भी बन गई।

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