प्राचीन भारत के प्रमुख वैज्ञानिक |Major Scientists of Ancient India in Hindi
प्राचीन भारत के प्रमुख वैज्ञानिक
Major Scientists of Ancient India in Hindi
प्राचीन भारत के प्रमुख वैज्ञानिक |
गणित और नक्षत्र विज्ञान के भारतीय वैज्ञानिक
- प्राचीन काल में उच्च कोटि का विज्ञान और गणित विकसित हो चुका था प्राचीन भारतीयों ने गणित और विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अंतर्गत अभूतपूर्व योगदान किया इस आर्टिकल में हम गणित में हुए विकास और उन विद्वानों के विषय में पढ़ेंगे, जिन्होंने इस कार्य में योगदान किया। आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि आधुनिक गणित के कई सिद्धांत वस्तुत: उस समय के प्राचीन भारतीयों को ज्ञात थे। फिर भी क्योंकि प्राचीन भारतीय गणितज्ञ आधुनिक पश्चिमी जगत के उन जैसे वैज्ञानिकों के समान आलेखन और प्रसारण में इतने चतुर नहीं थे, उनके योगदानों को वह स्थान नहीं मिल पाया जिसके वे योग्य थे।
- वास्तव में पश्चिमी दुनिया ने अधिकांश विश्व पर बहुत समय तक शासन किया जिससे उन्हें हर प्रकार से, यहां तक कि ज्ञान के क्षेत्र में भी, अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने का अवसर मिल गया। आइए अब हम प्राचीन भारतीय गणितज्ञों के कुछ योगदानों पर दृष्टिपात करें।
बौधायन Bodhayan Kaun Tha
- बौधायन पहले विद्वान थे जिन्होंने गणित में कई अवधारणाओं को स्पष्ट किया जो बाद में पश्चिमी दुनिया द्वारा पुन: खोजी गयी। 'पाई' के मूल्य की गणना भी उन्हीं के द्वारा की गई। जैसा कि आप जानते हैं पाई वृत्त के क्षेत्रफल और परिधि को निकालने में प्रयुक्त होती है। जो आज पाइथोगोरस प्रमेय के नाम से जानी जाती है वह बौधायन के शुल्व सूत्रों में पहले से ही विद्यमान है, जो पाइथोगोरस के जमाने से कई वर्ष पूर्व लिखे गये थे.
Major Historic Scientist of India
आर्यभट्ट प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक
- आर्यभट्ट पांचवीं शताब्दी के गणितज्ञ, नक्षत्रविद्, ज्योतिर्विद और भौतिकी के ज्ञाता थे। वह गणित के क्षेत्र में पथप्रदर्शक थे। 23 वर्ष की उम्र में उन्होंने आर्यभट्टीयम् लिखा जो उस समय के गणित का सारांश है इस विद्वत्तापूर्ण कार्य में 4 विभाग हैं। पहले विभाग में उन्होंने बड़ी दशमलव संख्याओं को वर्णों में प्रकट करने की विधि वर्णित की। दूसरे विभाग में आधुनिक काल के गणित के विषयों के कठिन प्रश्न दिए गए हैं जैसे संख्या सिद्धान्त रेखागणित, त्रिकोणमिति और बीजगणित ( एल्जेब्रा) । शेष दो विभाग नक्षत्र विज्ञान से सम्बद्ध हैं।
- आर्यभट्ट ने बताया कि शून्य एक संख्या मात्र नहीं हैं बल्कि एक चिह्न है, एक अवधारणा है। शून्य के आविष्कार से ही आर्यभट्ट पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच की दूरी का सही सही मापन कर पाए। शून्य की खोज से ही ऋणात्मक संख्याओं की एक नई दिशा का भी द्वार खुल गया।
- जैसा कि हमने देखा, आर्यभट्टीय के अंतिम दो विभाग नक्षत्र विज्ञान से सम्बद्ध हैं स्पष्टतया आर्यभट्ट ने विज्ञान के क्षेत्र में, विशेष रूप से नक्षत्र विज्ञान में बहुत बड़ा योगदान किया।
- प्राचीन भारत में नक्षत्र विज्ञान बहुत उन्नत था इसे खगोलशास्त्र कहते हैं। खगोल नालन्दा में प्रसिद्ध नक्षत्र विषयक वेधशाला थी जहां आर्यभट्ट पढ़ते थे वस्तुतः नक्षत्र विज्ञान बहुत ही उन्नत था और हमारे पूर्वज इस पर गर्व करते थे। नक्षत्र विज्ञान की इतनी उन्नति के पीछे शुद्ध पञ्चांग के निर्माण की आवश्यकता थी।
- जिससे वर्षा चक्र के अनुसार फसलों को चुना जा सके, फसलों की बुआई का सही समय निर्धारित किया जा सके, त्योहारों और ऋतुओं की सही तिथियां निर्धारित की जा सकें; समुद्री यात्राओं के लिए समय के ज्ञान के लिए और ज्योतिष में जन्म कुण्डलियां बनाने के लिए पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो सके। नक्षत्र विज्ञान का ज्ञान विशेष रूप से नक्षत्रों और ज्वार भाटा का ज्ञान व्यापार के लिए बहुत आवश्यक था क्योंकि उन को रात के समय समुद्र और रेगिस्तानों को पार करना पड़ता था।
- हमारी पृथ्वी नामक ग्रह अचल है इस लोक प्रसिद्ध विचार को तिरस्छत करते हुए आर्यभट्ट ने अपना सिद्धांत बताया कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है। उसने उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि सूर्य का पूर्व से पश्चिम की ओर जाना मिथ्या है, उनमें से एक उदाहरण था- जब एक मनुष्य नाव में यात्रा करता है, तब किनारे के पेड़ उल्टी दिशा में दौड़ते हुए मजर आते हैं। उसने यह भी सही बताया कि चांद और अन्य ग्रह सूर्य की रोशनी के प्रतिबिम्ब के कारण ही चमकते हैं। उसने चन्द्र ग्रहण और सूर्यग्रहण का भी वैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया और कहा कि ग्रहण केवल राहु या केतु या किसी अन्य राक्षस के कारण नहीं होते। अब आप स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं कि क्यों भारत के प्रथम उपग्रह का नाम जो आकाश में छोड़ा गया, आर्यभट्ट रखा गया।
ब्रगुप्त- प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक
- सातवीं शताब्दी से ब्रगुप्त ने गणित को अन्य वैज्ञानिकों की अपेक्षा कहीं अधिक ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। उन्होंने अपने गुणन की विधियों में स्थान का मूल्य उसी प्रकार निर्धारित किया जैसा कि आजकल किया जाता है। उन्होंने ऋणात्मक संख्याओं का भी परिचय दिया और गणित में शून्य पर अनेक प्रक्रियाएं सिद्ध कीं। उन्होंने ब्रंस्फुट सिणंत लिखा जिसके मध्यम से अरब हमारी गणितीय व्यवस्थाओं से परिचित हो सके।
भास्कराचार्य- प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक
- भास्कराचार्य 12वीं शताब्दी के विख्यात व्यक्ति थे। वह कर्णाटक में बीजापुर में पैदा हुए। वह अपनी पुस्तक सिणंतशिरोमणि के कारण प्रसिद्ध हैं। इसके भी चार खण्ड हैं लीलावती (गणित), बीजगणित (एल्जेब्रा), गोलामयाय और ग्रहगणित ( ग्रहों का गणित) भास्कराचार्य ने बीजगणितीय समीकरणों को हल करने के लिए चक्रवात विधि का परिचय दिया। यही विधि छः शताब्दियों बाद यूरोपीय गणितज्ञों द्वारा पुनः खोजी गई जिसे वे चक्रीय विधि कहते हैं। 19वीं शताब्दी में एक अंग्रेज- जेम्स टेलर ने ' लीलावती का अनुवाद किया और विश्व को इस महान छति से परिचित करवाया।
महावीराचार्य- प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक
- जैन साहित्य में (ई.पू. 500 से 100 शताब्दी तक) गणित का व्यापक वर्णन है। जैन गुरुओं को द्विघाती समीकरणों को हल करना आता था। उन्होंने, भिन्न, बीजगणितीय समीकरण, श्रृंखलाएं, सेट सिद्धांत, लघुगणित (legarithms) घाताक ( मगचव. दमदजे) आदि को बड़ी रोचक विधि से समझाया। जैन गुरु महावीराचार्य ने 850 ( ई.पू.) में गणित सार संग्रह लिखा, जो आधुनिक विधि में लिखी गई पहली गणित की पुस्तक है । दी गई संख्याओं का लघुतम निकालने का आधुनिक तरीका भी उनके द्वारा वर्णित किया गया है। अत: जॉन नेपियर के विश्व के सामने इसे प्रस्तुत करने से बहुत पहले यह विधि भारतीयों को ज्ञात थी।
विज्ञान के प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक
गणित की ही तरह, प्राचीन भारतीयों ने विज्ञान के विषय
में भी अपना योगदान किया। आइए अब हम प्राचीन भारत के कुछ वैज्ञानिकों के योगदानों
के विषय में जानें।
कणाद का विज्ञान
- कणाद, छ: भारतीय दर्शनों में से एक वैशेषिक दर्शन के छठी शताब्दी के वैज्ञानिक थे कणाद वास्तविक नाम औलूक्य था। बचपन से ही वे बहुत सूक्ष्म कणों में रुचि रखने लगे थे। अतः उनका नाम कणाद पड़ गया उनके आणविक सिद्धांत किसी भी आधुनिक आणविक सिद्धांतों से मेल खाते हैं। कणाद के अनुसार, यह भौतिक विश्व कणों अणु/एटम) से बना है जिसको मानवीय चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। इनका पुनः विखण्डन नहीं किया जा सकता। अतः न इनको विभाजित किया जा सकता है न ही इनका विनाश हो सकता है। निस्संदेह यह वही तथ्य है जो आधुनिक आणविक सिद्धांत भी बताता है।
वराहमिहिर के बारे में जानकारी
- भारत में प्राचीन काल के एक अन्य सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक थे वराहमिहिर। वह गुप्त काल में हुए। वराहमिहिर ने जलविज्ञान, भूगर्भीय विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान के क्षेत्र में महान योगदान किया। वह पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने यह दावा किया कि दीमक और पौधे भी भूगर्भीय जल की पहचान के निशान हो सकते हैं । उसने छ: पशुओं और तीस पौधों की सूची दी जो पानी के सूचक हो सकते हैं। उन्होंने दीमक (जो लकड़ी को बर्बाद कर देती है) के विषय में बहुत महत्त्वपूर्ण सूचना प्रदान की कि वे बहुत नीचे पानी के तल तक जाकर पानी लेकर आती हैं और अपनी बांबी (घर) को गीला करती है। एक अन्य सिद्धान्त, जिसने विज्ञान की दुनिया को आकृष्ट किया वह है भूचाल मेघ सिद्धांत जो वराहमिहिर ने अपनी बृहत्संहिता में लिखा इस संहिता का 32वां अध्याय भूचालों के चिह्नों को दर्शाता है। उन्होंने भूचालों का संबंध नक्षत्रों के प्रभाव, समुद्रतल की गतिविधियों, भूतल के जल असामान्य मेघों के बनने से और पशुओं के असामान्य व्यवहार से जोड़ा है।
- एक अन्य विषय जहां वराहमिहिर का योगदान उल्लेखनीय है वह है ज्योतिष/नक्षत्र विज्ञान/प्राचीन भारत में फलित ज्योतिष को बहुत उच्च स्थान दिया जाता था और वह प्रथा आज तक भी जारी है। ज्योतिष का, जिसका अर्थ है प्रकाश की विद्या, मूल वेदों में है। आर्यभट्ट और वराहमिहिर के द्वारा एक व्यवस्थित रूप में वैज्ञानिक ढंग से इस विद्या का प्रस्तुतीकरण किया गया आर्यभट्ट की आयभटीयम् के दो विभाग नक्षत्र विज्ञान पर आधारित हैं जो वस्तुत: फलितज्योतिष का आधार हैं। फलित ज्योतिष भविष्यवाणी करने की विद्या है। विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में वराहमिहिर का स्थान था वराहमिहिर की भविष्यवाणियां इतनी शुद्ध होती थीं कि विक्रमादित्य ने उन्हें 'वराह' की उपाधि दी।
नागार्जुन के बारे में जानकारी
- नागार्जुन दसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक थे। उनके परीक्षणों का प्रमख उद्देश्य था मूल धातुओं को सोने में बदलना जैसाकि पश्चिमी दुनिया में कीमियागर करते थे। यद्यपि वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ। फिर भी वह एक ऐसा तत्त्व बनाने में सफल हुआ जिसमें सोने जैसी चमक थी। आज तक यही तकनीक नकली जेवर बनाने के काम आती है। अपने ग्रंथ रसरत्नाकर में उन्होंने सोना, चांदी, टीन और तांबा निकालने का विस्तार से वर्णन किया है।
प्राचीन भारत में चिकित्सा विज्ञान/आयुर्वेद और योग
- जैसा कि आप ने पढ़ा; प्राचीन भारत में वैज्ञानिक उपलब्धियां बहुत उन्नत स्तर की थीं। अपने युग के अनुसार, चिकित्सा विज्ञान भी बहुत उन्नत था।
- प्राचीन भारत में विकसित चिकित्सा विज्ञान की देसी व्यवस्था आयुर्वेद है। आयुर्वेद शब्द का शाब्दिक अर्थ है अच्छा स्वास्थ्य लंबी आयु।
- औषधि को प्राचीन भारतीय व्यवस्था न केवल बीमारियों की चिकित्सा करने में सहायता करती है बल्कि यह बीमारियों का कारण और लक्षण भी मालूम करने का प्रयत्न करती है। यह स्वस्थ और बीमार दोनों की ही मार्गदर्शिका है। यह स्वास्थ्य को तीनों दोषों की समवस्था और इन्हीं तीनों दोषों की विषमता का बीमारी के रूप में परिभाषित करती है।
- जड़ीबूटियों की औषधियों से किसी बीमारी की चिकित्सा करते हुए यह बीमारी की जड़ पर प्रहार करके उसके कारणों को दूर करने का उद्देश्य रखती है। आयुर्वेद का प्रमुख उद्देश्य स्वास्थ्य और दीर्घायु यह हमारी पृथ्वी का प्राचीनतम चिकित्सा शास्त्र है।
- आयुर्वेद का एक अन्य ग्रन्थ 'आत्रेय संहिता' विश्व की प्राचीनतम पुस्तकों में से है।
- चरक को आयुर्वेदिक औषधि का जनक कहा जाता है और सुश्रुत को शल्यचिकित्सा का।
- सुश्रुत, चरक, माधव; वाङ्भट्ट और जीवक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। आयुर्वेद अब पिछले कुछ समय से पश्चिमी जगत में भी लोकप्रिय होता जा रहा है । इसका प्रधान कारण यह है कि पश्चिमी मूल की आधुनिक एलोपेथी के मुकाबले इसके कई लाभ हैं।
सुश्रुत के बारे में जानकारी
- सुश्रुत शल्यचिकित्सा के क्षेत्र में अग्रणी हुए। वह शल्य चिकित्सा को चिकित्साकला की सर्वोत्तम शाखा समझते थे जिसका बहुत कम निष्फल होने का भय है। उसने एक मृत शरीर की सहायता से शरीर की रचना का अध्ययन किया। सुश्रुत संहिता में प्राय: 1100 से भी अधिक बीमारियों का वर्णन है जिनमें 26 प्रकार के मूत्र - रोग दिए गए हैं। 760 से भी अधिक क जड़ीबूटियों का वर्णन किया गया है । पौधों की जड़ें, छाल, रस, फूल आदि सभी का प्रयोग किया जाता था दालचीनी तिल, काली मिर्च, इलायची, अदरक आदि आज भी घरेलू औषधियों के रूप में प्रयोग की जाती हैं।
- सुश्रुत संहिता में विस्तृत अमययन के लिए किसी शव को चुनने और सुरक्षित रखने की भी विधि बताई गई है । किसी वृद्ध मनुष्य का शरीर या जो किसी भयंकर बीमारी से मृत्यु को प्राप्त हुआ हो, उसका शरीर मुख्यतः अमययन के लिए नहीं चुना जाता था। शव को पहले पूरी तरह साफ करके फिर पेड़ की छाल में सुरक्षित रखा जाता था। फिर इसे एक पिंजरे में बंद करके नदी में किसी स्थान पर सावधानीपूर्वक छुपा दिया जाता था नदी के जल के प्रवाह से शरीर नरम पड़ जाता था सात दिन के बाद फिर इसे नदी से निकालते थे। तदुपरान्त घास की जड़ों, बालों और बांस की तीलियों से बने ब्रश से इसे साफ करते थे ऐसा करने के पश्चात् शरीर के अंदर और बाहर के अंग साफ साफ नजर आने लगते थे ।
- सुश्रुत का सबसे बड़ा योगदान सुनम्य चिकित्सा
(प्लास्टिक सर्जरी ) और आंखों के आपरेशन ( मोतिया बिंद निकालना) के क्षेत्र में
हुआ। उस समय में नाक या कान काटना एक सामान्य दण्ड था इन अंगों का लगाना या युद्ध
में कटे अंगों का जोड़ना किसी वरदान से कम न था। सुश्रुत संहिता में इन
शल्यक्रियाओं का क्रमशः बहुत शुद्ध विवरण दिया गया है । आश्चर्य की बात है कि क्रम
सुश्रुत द्वारा इस शल्य चिकित्सा के विषय में अनुपालन किया जाता था वही व्म आज के
आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी | के चिकित्सकों द्वारा भी अपनाया जा रहा है। सुश्रुत संहिता में
शल्यचिकित्सा में प्रयोग होने वाले यन्त्रों का भी वर्णन है। कुछ गंभीर प्रकार की
शल्यव्यिा के उदाहरण हैं गर्भ में से शिशु को निकालना, जख्मी मलाशय को ठीक करना, मूत्राशय से पत्थरी निकालना आदि। क्या
यह रोचक और साथ ही आश्चर्यजनक नहीं प्रतीत होता?
चरक के बारे में जानकारी
- चरक प्राचीन भारतीय औषध विज्ञान का जनक माना जाता है। वह कनिष्क के दरबार में राजवैद्य था उसकी औषमाविज्ञान पर लिखी पुस्तक चरकसंहिता अतिप्रशंसनीय ग्रंथ है इसमें बहुत बड़ी संख्या में रोगों का वर्णन किया गया है और साथ ही उनके कारणों का पता लगाने की विधियों और उनके इलाज के तरीके भी बताए गए हैं।
- उसी ने सर्वप्रथम पाचन क्रिया, चयापचय (metabolism)
रोगों की निवारक क्षमता को स्वास्थ्य
के लिए महत्त्वपूर्ण माना है और इसीलिए चरकसंहिता में चिकित्सा विज्ञान में रोग की
चिकित्सा करने की अपेक्षा रोग के कारण को दूर करने पर अधिक बल दिया गया है चरक
वंशप्रक्रिया के भी मूल सिद्धांतों को जानता था। क्या यह तथ्य आपको मंत्रमुग्ध
नहीं कर देता कि हजारों वर्ष पूर्व चिकित्सा विज्ञान भारत में इतनी उन्नत अवस्था
में था?
योग और पातंजलि
- आयुर्वेद से सम्बद्ध एक अन्य विज्ञान प्राचीन भारत में विकसित हुआ जिसे योग कहते हैं और जिसके द्वारा औषधि के बिना ही शारीरिक और मानसिक धरातल पर चिकित्सा की जाती है।
- योग शब्द संस्कृत के योक्त शब्द से बना है इसका शाब्दिक अर्थ है मन को आत्मा के साथ जोड़ना और बाहरी इन्द्रियों के विषयों से विरक्त करना।
- अन्य विज्ञानों के समान इसकी जड़े भी वेदों में ही हैं। यह चित्त को परिभाषित करता है अर्थात् विचारों, भावों और मनुष्य की चेतना को पवित्र करके एक संतुलन की स्थिति को पैदा करना।
- योग वह शक्ति है जो चेतना को पवित्र करके दिव्य अनुभूति के स्तर तक पहुंचाती है। योग शारीरिक भी है और मानसिक भी। शारीरिक योग हठयोग कहलाता है। सामान्यतया इसका उद्देश्य होता है बीमारियों को दूर करना और शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करना। राजयोग मानसिक योग है। इसका उद्देश्य है आत्म प्राप्ति और शारीरिक, मानसिक भावनात्मक और आध्यात्मिक संतुलन के द्वारा बन्धनों से मुक्ति।
- योग एक ऋषि से दूसरे ऋषि तक मौखिक रूप से पहुंचा। इस विज्ञान को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय पतंजलि को जाता है।
- पतंजलि के योग सूत्रों में ॐ ईश्वर का प्रतीक बताया गया है। वह ॐ को एक अंतरिक्षीय ध्वनि बताता है जो हर समय आकाश में निरंतर व्याप्त रहती है और केवल प्रबुद्ध को ही पूरी तरह ज्ञात होती है। योग सूत्रों के अतिरिक्त पतंजलि ने एक ग्रंथ औषधविज्ञान पर भी लिखा और पाणिनि के व्याकरण पर भाष्य लिखा जो महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है ।
Post a Comment