मनसबदारी व्यवस्था Mansabdari System Kya hai |मनसबदारों की श्रेणियां
मनसबदारी व्यवस्था Mansabdari System
मनसबदारी व्यवस्था की उत्पत्ति Origin of mansabdari system
- मुगलों की मनसबदारी व्यवस्था को हम मध्य एशिया की सैन्य व्यवस्था का एक संशोधित एव सवंर्धित रूप कह सकते हैं।
- बाबर के पूर्वज चंगेज़ खाँ की सेना में अधिकारियों का, उनके अधीन घुड़सवारों की संख्या के आधार पर, वर्गीकरण किया गया था। उनको 10 (दहबशी) से लेकर 10000 (दहहज़ारी) घुड़सवारों तक के सेनानायक का पद प्रदान किया गया था।
- बाबर ने विभिन्न कबीलों तथा कुलों के सरदारों को उनकी सेनाओं के साथ भारत पर आक्रमण किया और पानीपत के युद्ध में विजय प्राप्त कर जब भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की तो उसने विभिन्न सरदारों को उनकी योग्यता के अनुसार सैनिक पद प्रदान किए। इन सैन्य अधिकारियों को वजहदार कहा गया।
- इसी परम्परा को आगे बढ़ाकर अकबर ने प्रशासनिक तथा वैतनिक एकरूपता स्थापित करने के उद्देश्य से अपने सभी सैनिक अधिकारियों (अशब-उस-सैफ़) तथा प्रशासनिक अधिकारियों (अशब उल-क़लम) तथा राज्य सेवा में नियुक्त धर्म शास्त्रियों एवं न्याय वेत्ताओं (अशब-उल-अमामा) को सैन्य पद- मनसब प्रदान कर मनसबदारी व्यवस्था का विकास किया।
- अकबर ने इसे मुगल सैनिक संगठन तथा नागरिक प्रशासन का आधार बनाया। बादशाह द्वारा नियुक्त अधिकारियों का पहले मनसब (पद) निर्धारित किया गया फिर उसी के आधार पर उनका वेतन निर्धारित किया गया।
- प्रारम्भ में 20 से लेकर पाँच हज़ारी मनसबदार ( 20 घुड़सवारों के नायक से लेकर 5000 घुड़सवारों के नायक) तक नियुक्त किए गए। बाद में उच्चतम मनसब 7000 और फिर 10000 तक बढ़ा दिया गया। बाद में शहज़ादों का मनसब इससे भी अधिक ऊँचाई तक पहुंचा दिया गया।
- अबुल फ़ज़्ल आइन-ए-अकबरी में मनसबों की कुल संख्या 66 बताता है किन्तु उल्लेख केवल 33 मनसबों का करता है।
जागीर तथा जागीर-ए-वतन Jagir and jagir-e-watan
जागीरदार किसे कहा जाता था
- मनसब के आधार पर वेतन के रूप में या तो मनसबदार को उसके निर्धारित वेतन के अनुरूप एक जागीर आवंटित कर दी जाती थी या उसे नकद वेतन दिया जाता था। इस प्रकार के मनसबदार क्रमश: जागीरदार और नकदी कहलाते थे।
- अपने वेतन से मनसबदार को अपना, अपने सैनिकों का, उनसे सम्बद्ध पशुओं तथा अस्त्र-शस्त्रों का खर्च सम्भालना होता था।
- मनसबदा लम्बे समय तक एक ही जागीर पर नहीं दी जाती थी। उनकी जागीरें हस्तान्तरित होती रहती थीं। जागीर और मनसब वंशानुगत नहीं होते थे अर्थात् मनसबदार की मृत्यु के बाद उसके वंशज उसकी जागीर या उसके मनसब पर अपना दावा प्रस्तुत नहीं कर सकते थे।
- मनसबदार की मृत्यु के बाद उसकी जागीर स्वतः बादशाह के अधिकार में वापस चली जाती थी। परन्तु आमतौर पर बादशाह मनसबदार की मृत्यु पर उसके वंशजों के साथ उदारता का ही व्यवहार करता था।
- सामान्यतया मनसबदार को उसके गृह पदेश में जागीर नहीं दी जाती थी।
- गृह प्रदेश की जागीर को जागीर-ए-वतन कहा जाता था। यह केवल उन मनसबदारों को प्रदान की जाती थी जिनके कि पास मुगल सेवा में आने से पूर्व अपना राज्य होता था या ज़मींदारी होती थी।
- उदाहरणार्थ राजपूत शासक जब मुगलों की आधीनता स्वीकार कर उनके मनसबदार बनाए गए तो उन्हें जागीर-ए-वतन प्रदान की गई। दीवान-ए विज़ारत में जागीरों का लेखा-जोखा रखा जाता था।
मनसबदारी व्यवस्था के अन्तर्गत जात तथा सवार पद
- सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में मनसबदारी व्यवस्था में एकल पदीय ज्ञात व्यवस्था के स्थान पर द्वि-पदीय व्यवस्था ज़ात और सवार को लागू किया गया। इसका उद्देश्य मनसबदारों से उनके सैनिक उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्ण निर्वाहन कराना था।
- अब मनसबदार को ज़ात और सवार दोनों के पद प्रदान किए गए।
- इनमें से ज़ात मनसबदार का वैयक्तिक पद होता था (जितने घुड़सवार रखने की उससे अपेक्षा की जाती थी) तथा सवार पद (अश्वारोही पद) वास्तव में उसके अधीन घुड़सवारों की संख्या के आधार पर निश्चित किया जाता था।
मनसबदारों की श्रेणियां Mansabdar categories
- मनसबदारों की तीन श्रेणियां निर्धारित की गई थीं।
- प्रथम श्रेणी के मनसबदार का ज़ात और सवार मनसब एक समान होता था।
- द्वितीय श्रेणी के मनसबदार सवार मनसब उसके ज़ात मनसब का आधा या उससे अधिक होता था।
- तृतीय श्रेणी के मनसबदार का सवार मनसब उसके ज़ात मनसब के आधे से कम होता था।
- मनसबदारी में 500 से कम मनसब प्राप्त को 'मनसबदार', 500 से लेकर 2500 से कम मनसब वाले को 'अमीर' तथा 2500 व उससे अधिक मनसब वाले को 'अमीर-ए उम्दा' कहा जाता था।
दोअस्पा तथा सिहअस्पा
- जहांगीर के शासनकाल में मनसबदारों के साथ दोअस्पा (दो घोड़ों वाले घुड़सवार ) तथा सिंहअस्पा (दो से अधिक घोड़े वाले घुड़सवार) पद जोड़ा जाने लगा। यह व्यवस्था उन मनसबदारों के लिए की गई जिनके पास अपने सवार पद से अधिक घुड़सवार होते थे। ऐसे मनसबदारों का जात और सवार पद बढ़ाए बिना उनको उनके आधीन दोअस्पा तथा सिंहअस्पा सवारों के अनुसार उन्हें अतिरिक्त भत्ता दिया जाता था। जहांगीर ने महाबत खाँ को इस प्रकार का पद प्रदान किया था।
मुगलकाल में मनसबदारों की संख्या Number of mansabdars in Mughal period
- अकबर के शासनकाल के चालीसवें वर्ष में मनसबदारों की कुल संख्या 1803 थी।
- इनमें तुर्क, उज़बेग, ईरानी, अफ़गान, भारतीय मुसलमान तथा राजपूत सम्मिलित थे औरंगज़ेब के शासन तक इनमें मराठे और दक्किनी भी शामिल हो गए।
- मनसबदारों की संख्या में परन्तु बाद में निरन्तर वृद्धि होती ही चली गई। औरंगज़ेब के शासनकाल के अन्त में इनकी संख्या बढ़कर साढ़े चौदह हज़ार तक पहुंच गई। इन मनसबदारों को दिए जाने वाले वेतन और जागीरों के कारण शाही खजाने पर असहनीय बोझ पड़ने लगा। बाद में मनसबदारों को दी जाने वाली जागीरें कम पड़ने लगीं।
मनसबदारी व्यवस्था पतन Collapse of mansabdari system
- मनसबदारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि ने राज्य पर न केवल आर्थिक बोझ डाला अपितु राज्य की ओर से उन पर भरपूर नज़र न रख पाने के कारण उनकी क्षमता पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
- जागीरों की कमी को पूरा करने के लिए एक ही जागीर को मनसबदारों में विभाजित करके दिया जाने लगा जिसके कारण जागीरदारों ने अपना खर्च निकालने के लिए कृषकों का और अधिक शोषण करने का प्रयास किया |
- मनसबदारों की निष्ठा और स्वामिभक्ति में भी कमी आई। मनसबदारों द्वारा भर्ती किए गए सैनिकों की निष्ठा अब बादशाह के प्रति न होकर रोज़ी देने वाले मनसबदार के प्रति होने लगी।
- अधिक साधन सम्पन्न मनसबदार अब स्वतन्त्र शासक बनने की महत्वाकांक्षा पालने लगे और पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य में उनकी बढ़ती हुई शक्ति और महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने की किसी में क्षमता ही नहीं रही। धीरे धीरे मनसबदारी व्यवस्था मुगल शासन को सुदृढ़ एवं सक्षम बनाने के स्थान पर उसके पतन का कारण बनने लगी।
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