दिल्ली सल्तनत काल में राजत्व का सिद्धान्त |The principle of kingship in the Delhi Sultanate period

दिल्ली सल्तनत काल में राजत्व का सिद्धान्त

 

दिल्ली सल्तनत काल में राजत्व का सिद्धान्त |The principle of kingship in the Delhi Sultanate period

गुलाम वंश में राजत्व का सिद्धान्त


  • इस्लाम के व्यापक प्रचार-प्रसार के साथ खलीफ़ा की खिलाफ़त का भी विस्तार हुआ किन्तु व्यावहारिक रूप में इतने विशाल क्षेत्र पर एक ही व्यक्ति द्वारा शासन कर पाना असम्भव था।
  • इसलिए खलीफ़ा’ के अधीन सुल्तानतथा 'खिलाफ़तके अन्तर्गत 'सल्तनतकी संस्थाओं का विकास किया गया गया। 
  • सुल्तान को खलीफ़ा के नाइब के रूप में स्थापित किया गया। 
  • खुतबे में खलीफ़ा का नाम लिया जाना अनिवार्य था। 
  • दिल्ली के सुल्तानों ने तुर्क राजत्व के सिद्धान्त का पोषण किया जिसमें कि सुल्तान को शरियत के नियमों के अनुसार शासन करना आवश्यक होता था। इस हेतु उसको उलेमा वर्ग और उसमें भी विशेषकर सद्र-उस-सुदूर की सलाह अथवा उसके मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती थी।
  • दिल्ली के सुल्तान के रूप में इल्तुतमिश को गुलाम के गुलाम होने के कलंक को मिटाने के लिए खलीफ़ा से वैधानिक मान्यता प्राप्त करना आवश्यक हो गया था।

 
बलबन का राजत्व का सिद्धान्त

  • बलबन का राजत्व का सिद्धान्त प्रत्यक्षतः निरंकुशस्वेच्छाचारी शासन का समर्थक दिखाई देता है परन्तु वास्तव में यह अनेक उपयोगी नियमोंनैतिक व धार्मिक आदर्शों से बंधा हुआ था।
  • बलबन ने सुल्तान के पद की खोई हुई प्रतिष्ठा फिर से स्थापित करने और जनता व आभिजात्य वर्ग में सुल्तान के प्रति श्रद्धा तथा भय का भाव फिर से संचारित करने के लिए राजत्व के दैविक सिद्धान्त का पोषण किया। 
  • इस्लाम के इतिहास से यह विदित होता है किं खलीफ़ा का चयन किया जाता था और खलीफ़ा के अधिकारों का उसके कर्तव्यों से अटूट सम्बन्ध था किन्तु राजत्व के दैविक सिद्धान्त के अन्तर्गत शासक पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है और उसके आदेश में ईश्वर का आदेश प्रतिध्वनित होता है। 
  • राज्य में शासक का कोई समकक्ष नहीं हो सकता और न ही शासक के रूप में उसका कोई सम्बन्धी हो सकता है। 
  • शासक के सगे रक्त सम्बन्धियों के लिए भी उसके प्रति श्रद्धा और स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करनाउनका कर्तव्य होता है। उसने सुल्तान के समक्ष हर किसी के लिए सिजदा और पैबोस जैसी गैर मुस्लिम परम्पराओं का प्रचलन किया। 
  • सुल्तान को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से उसने वैभवशाली एवं गरिमापूर्ण दरबार लगाया। इस दरबार में सुल्तान के सामने सभी हाथ बांधकर खड़े रहने के लिए बाध्य थे। 
  • सुल्तान के आदेश को ग्रहण करने के लिए अमीरों को उसे पैदल चलकर प्राप्त करना होता था। शासक के लिए आम इंसान की तरह हँसना या रोना तक निषिद्ध हो गया। 
  • बलबन ने दरबार में अपने पुत्र महमूद समाचार सुनकर भी रोना उचित नहीं समझा।
  • आभिजात्य वर्गउलेमा तथा विद्वानों के अतिरिक्त उसने आम आदमियों से मिलना-जुलना बिलकुल बन्द कर दिया। 
  • बलबन ने स्वयं को पौराणिक मृत्यु का अपरीसियाबों का वंशज घोषित किया।
  • बलबन ने बलबन का राजत्व का दैविक सिद्धान्त इस्लाम की मूल अवधारणाओं के विरुद्ध था किन्तु बलबन ने खलीफ़ा के प्रभुत्व अथवा उसकी सर्वोच्चता को कभी चुनौती नहीं दी। 
  • बलबन के राजत्व के सिद्धान्त को हम पूर्ववर्ती कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा परवर्ती मैकियावेली के दि प्रिंस में उल्लिखित राजत्व के सिद्धान्त के समकक्ष रख सकते हैं।

 

अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक का राजत्व का सिद्धान्त

 

  • अलाउद्दीन खिलजी ने बलबन के राजत्व के दैविक सिद्धान्त का पोषण किया। उसने शासक को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित किया। 
  • अलाउद्दीन ने अमीरों की शक्ति व प्रतिष्ठा में कमी की। उसने जलाली अमीरों का पूर्णतया दमन कर दिया और अपने वफ़ादार अमीरों की शक्तियों को भी नियन्त्रित किया। 
  • गुप्तचरों का जाल बिछाकर अमीरों के आपस में मिलने-जुलनेवैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने आदि पर उसने राज्य का नियन्त्रण स्थापित किया। 
  • विद्रोह व षडयन्त्र करने वालों का समूल विनाश कर उसने सभी को भविष्य में विद्रोह करने का दुःसाहस करने से रोक दिया। अलाउद्दीन ने उलेमा वर्ग की भी उपेक्षा की। 
  • उलेमाओं को मिलने वाली आर्थिक सुविधाओं और रियायतों को उसने समाप्त कर उन्हें साधनहीन बना दिया। 
  • अलाउद्दीन चूंकि शासक को ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था इसलिए धर्म के नाम पर उलेमा वर्ग द्वारा राजकाज में हस्तक्षेप करना उसे स्वीकार्य नहीं था। 
  • उसने राज्य पर से धर्म का नियन्त्रण हटा दिया। अलाउद्दीन ने खलीफ़ा से खिलअत अथवा उपाधि प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया। 

  • मुहम्मद तुगलक ने भी अलाउद्दीन खिलजी की भांति अपने राज्य में धर्म अथवा धर्म प्रतिनिधियों की भूमिका पर नियन्त्रण लगा दिया किन्तु अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद बिन तुगलक जैसे महत्वाकांक्षी सुल्तानों ने भी कभी खलीफ़ा की सत्ता से पूर्णतया स्वतन्त्र होने का साहस नहीं किया। 
  • अपनी गिरती साख को उठाने के उद्देश्य से मुहम्मद तुगलक ने खलीफ़ा के प्रतिनिधि का भव्य स्वागत सम्मान किया था।

 

अफ़गान राजत्व का सिद्धान्त

 

1. बहलोल लोदी राजत्व का सिद्धान्त

  • सुल्तान बहलोल लोदी अफ़ग़ान जाति का था। वह अफ़गानों की कबाइली राजनीतिक अवधारणा में विश्वास करता था। 
  • शासक की पूर्ण सम्प्रभुता और उसकी निरंकुश शक्ति में अफ़ग़ानों की आस्था नहीं थी। उनका विश्वास शासक अथवा मुखिया के चुनाव में था न कि राजत्व के दैविक सिद्धान्त और वंशानुगत शासन की अवधारणा में अपनी कबाइली संस्कृति में विश्वास रखते हुए अफ़गानों के विभिन्न कबीलेशासक को अपनी बिरादरी का मुखिया मानते थे न कि अपना स्वामी।
  • बलबनअलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक के राजत्व के दैविक सिद्धान्त के विपरीतसुल्तान बहलोल लोदी अफ़गानों के कबाइली और कुनबे की राजनीतिक अवधारणा में विश्वास करता था। 
  • बहलोल ने कभी भी एक स्वेच्छाचारीनिरंकुश एवं पूर्णसम्प्रभुता प्राप्त शासक की भांति व्यवहार नहीं किया। वह स्वयं को राज्य संघ का प्रमुख मात्र मानता था। उसने अपने पुरखों के स्थान रोह से अपने कबीले वालों को अपने राज्य में आने के लिए निमन्त्रित किया था। 
  • अपनी बिरादरी के अमीरों को उसने अपनी बराबरी का दर्जा दिया और सल्तनत में उनको अपना हिस्सेदार माना। उनके रूठने पर उनको मनाने के लिए उनके घर तक जाने में उसे कोई ऐतराज़ नहीं था और उनके साथ एक ही मसनद पर बैठने में उसे कोई संकोच नहीं था।

 

2. सिकन्दर लोदी राजत्व का सिद्धान्त

  • सिकन्दर लोदी के अमीर उसको अपना स्वामी नहींअपितु अपना मुखिया मात्र मानते थे।
  • उसके अनेक अमीर उसके स्थान पर बरबक शाह अथवा आज़म हुमायूं को सुल्तान बनाना चाहते थे। 
  • सिकन्दर लोदी ने बहलोल लोदी द्वारा पोषित राजत्व के सिद्धान्त में बदलाव कर सुल्तान पद की गरिमा को बढ़ाया और अमीरों के महत्व को कम किया। 
  • सुल्तान ने अपने अमीरों को अपने साथ एक ही मसनद पर बिठाने के स्थान पर उन्हें अपने सामने खड़े रहकर सम्मान प्रदर्शित करने के लिए विवश किया। 
  • अमीरों को सुल्तान के आदेश को पैदल चलकर ग्रहण करने के लिए बाध्य किया गया। अनुशासनहीन एवं भ्रष्ट अमीरों को उसने दण्डित किया और उनकी गतिविधियों पर दृष्टि रखने के लिए गुप्तचर नियुक्त किए।

 

 3  इब्राहीम लोदी  राजत्व का सिद्धान्त

  • इब्राहीम लोदी ने भी अपने पिता के समान अफ़गान राजत्व के सिद्धान्त को नकारते हुए सुल्तान के पद और उसकी गरिमा को अत्यधिक महत्ता दी और सुल्तान के चयन अथवा उसके कार्य संचालन में अमीरों की किसी भी प्रकार की भूमिका को समाप्त कर दिया।


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