सुल्तान फ़िरोज़ तुगलक | Sultan Firoz Tughlaq
सुल्तान फ़िरोज़ तुगलक Sultan Firoz Tughlaq
फ़िरोज़ तुगलक के उदारीकरण हेतु प्रयास
- सन् 1351 में मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के बाद उसके चाचा के लड़के फिरोज़ ने अमीरों तथा विधिविज्ञों के समर्थन से ख्वाजा जहां द्वारा मुहम्मद तुगलक के पुत्र के रूप में सुल्तान बनाए गए एक बालक को अपदस्थ कर दिल्ली का तख्त हासिल किया। एक कुशल प्रशासक के रूप में ख्याति प्राप्त मलिक मक़बूल को उसने 'खाने जहां' की उपाधि प्रदान कर अपना वज़ीर नियुक्त किया।
- मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में उपजी राजनीतिक अस्थिरता, विद्रोहों की पुनरावृत्ति, साम्राज्य का विघटन, अनावश्यक रक्तपात, आर्थिक संकट, सुल्तान-अमीर सम्बन्धों में कटुता, सुल्तान के प्रति उलेमा वर्ग का आक्रोश और जनता में सुल्तान के प्रति बढ़ती हुई घृणा के भाव को मिटाकर फ़िरोज़ तुगलक शान्ति, सद्भाव, सभी वर्गों के साथ ताल-मेल, आपसी विश्वास और सहयोग के साथ सु शासन स्थापित करना चाहता था।
फ़िरोज़ तुगलक का राजत्व का सिद्धान्त
- फिरोज़ तुगलक बलबन, अलाउद्दीन तथा मुहम्मद तुगलक की भांति न तो स्वेच्छाचारी निरंकुश शासक बनना चाहता था और न ही राजत्व के दैविक सिद्धान्त में आस्था रख हुए उसे सुल्तान के आदेश में ईश्वर के आदेश की प्रतिध्वनि सुनाई देती थी।
- सुल्तान अमीर सम्बन्ध के विषय में भी वह उदारवादी था। सुल्तान के रूप में राज्य के महत्वपूर्ण अमीरों तथा उलेमा वर्ग ने उसका चुनाव किया था।
- वह स्वयं को सल्तनत का स्वामी नहीं बल्कि उसका ट्रस्टी समझता था। सुल्तान ने अपने वज़ीरों तथा अधिकारियों को अपने दायित्व निर्वाहन हेतु पर्याप्त स्वतन्त्रता और अधिकार प्रदान किए।
- वह राज्य में अमीरों की महत्ता स्वीकार करता था और उनको वह अपने सेवकों के रूप में नहीं, अपितु अपने सहयोगियों के रूप में देखता था। उसकी दृष्टि में उलेमा वर्ग का राज्य में महत्वपूर्ण एवं सम्मानजनक स्थान था।
- अलाउद्दीन तथा मुहम्मद तुगलक ने राज्य में उलेमा वर्ग की भूमिका नगण्य कर दी थी किन्तु फ़िरोज़ तुगलक ने उनके साथ तुष्टीकरण की नीति अपनाई। उसने स्वयं को खलीफ़ा का नाइब घोषित किया।
- सन् 1356 में दिल्ली सल्तनत के वैधानिक शासक के रूप में उसने खलीफ़ा से अधिकार पत्र भी प्राप्त किया।
सुल्तान फ़िरोज़ तुगलक के राजस्व सम्बन्धी सुधार
- फ़िरोज़ तुगलक के तख्तनशीन होने के समय सल्तनत की आर्थिक दशा बहुत शोचनीय थी। उसने राजस्व हेतु परम्परागत कर खिराज, खम्स, जज़िया और ज़कात को ही पर्याप्त माना। किसानों के कंधों पर मुहम्मद तुगलक के काल का दो करोड़ टंकों के ऋण का बोझ था। निर्धन किसानों से ऋण की वसूली असम्भव थी। फ़िरोज़ तुगलक ने व्यावहारिक उदारता का परिचय देते हुए किसानों का ऋण माफ़ कर दिया। अब तक भू-राजस्व एकत्र करने के लिए जिन आँकड़ों को आधार बनाया जाता था (इसे जमा कहा जाता था) वे अतिरंजित होते थे और उनके आधार पर की जाने वाली वसूली (हासिल) कभी उनके बराबर नहीं होती थी। फ़िरोज़ ने जमा और हासिल के अन्तर को दूर करने के लिए ख्वाजा हिसामुद्दीन को नियुक्त किया जिसने सभी प्रान्तों के राजस्व सम्बन्धी दस्तावेज़ों का छह वर्षों की अवधि तक अध्ययन किया। अथक प्रयास के बाद राज्य का महसूल (जमा) 6 करोड 75 लाख टंका निर्धारित किया गया। अपने दीर्घकालीन शासन में फ़िरोज़ ने जमा में कोई बदलाव नहीं किया और अबवाबों के बोझ से किसानों को परेशान नहीं किया। इस प्रकार उसने राजस्व प्रशासन को सुनिश्चितता प्रदान की जिससे शासन में सुस्थिरता आई, राज्य की आय सुनिश्चित हो गई और किसानों को भी अप्रत्याशित कर वृद्धि की आशंका नहीं रही। बाद में शेरशाह ने जमा और हासिल में अन्तर कम करने में और भी अधिक सफलता प्राप्त की थी।
- उद्योग एवं व्यापार की उन्नति के लिए यह आवश्यक था कि व्यापारियों से बार-बार चुंगी न वसूली जाए स्वीकृत करों के अतिरिक्त अन्य करों की वसूली पर उसने रोक लगा दी। राजस्व एकत्र करने वाले अधिकारियों - खुत, मुकद्दम आदि को अपने परम्परागत करों को वसूलने के लिए बल का प्रयोग करने से रोक दिया गया।
- मुस्लिम परम्परा के अनुसार खम्स अर्थात युद्ध में लूटे हुए धन में से शासक को 1/5 तथा सैनिक को 4/5 भाग रखने का अधिकार है किन्तु आमतौर पर शासक इसका 4/5 भाग अपने पास रख लेते थे और 1/5 भाग सैनिक को देते थे। फ़िरोज़ तुगलक ने इस विषय में मुस्लिम परम्परा को फिर से प्रचलित किया।
- राजस्व में जज़िया का महत्वपूर्ण स्थान था। फ़िरोज़ तुगलक गैर-मुस्लिम प्रजा के प्रति असहिष्णु था। फ़िरोज़ तुगलक से पूर्व के मुस्लिम शासकों ने ब्राह्मणों को निर्धन मानकर जज़िया से मुक्त कर रखा था किन्तु उसने ब्राह्मणों से सख्ती के साथ जज़िया वसूलने का आदेश दिया।
- राजस्व में वृद्धि के उद्देश्य से फिरोज़ तुगलक ने कृषि विस्तार की महत्ता को समझा। उसने कृषि प्रोत्साहन के लिए 5 बड़ी नहरों का निर्माण कराया। यमुना, सतलज और घघ्घर नदी पर नहरों का निर्माण किया गया। नहरों से सिंचित क्षेत्र में हक-ए-शिर्ब (सिंचाई कर) कुल उपज का 1/10 निर्धारित किया गया। राजस्व में वृद्धि के उद्देश्य से बागवानी को प्रोत्साहन दिया गया। सुल्तान ने दिल्ली तथा उसके आसपास 1200 बाग लगवाए।
- शम्स-ए-सिराज अफ़ीफ़ ने फ़िरोज़ तुगलक के शासनकाल में किसानों की खुशहाली और बिना सरकारी नियन्त्रण के खाद्यान्न के सस्ते होने का उल्लेख किया है। जनता की खुशहाली और स्त्रियों के गहनों से लदे होने का भी वह उल्लेख करता है।
- फ़िरोज़ तुगलक ने राजस्व एकत्र करने के लिए ठेकेदारी की प्रथा और जागीरदारी की प्रथा को पुनर्जीवित कर किसानों के शोषण तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार का रास्ता खोल दिया था।
सुल्तान फ़िरोज़ तुगलक के सार्वजनिक निर्माण के कार्य
- फ़िरोज़ तुगलक महान निर्माता था। फ़रिश्ता के अनुसार उसने 40 मस्जिदें, 20 महल, 100 सराय, 5 बड़ी नहरे, 5 जलाशय, 100 दवाखाने, 5 मकबरे, 100 हमाम, 10 स्तम्भ स्मारक और 150 पुलों के साथ लगभग 300 नगरों का निर्माण किया था। हिसार, फिरोज़ाबाद, फ़िरोज़पुर तथा जौनपुर उसके बनवाए हुए प्रसिद्ध नगर हैं। दिल्ली का फिरोज़ शाह कोटला उसी की देन है। बिजली गिरने से क्षतिग्रस्त कुतुब मीनार की मरम्मत भी उसने कराई थी।
सुल्तान फ़िरोज़ तुगलक का कल्याणकारी राज्य
- फ़िरोज़ तुगलक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में विश्वास रखता था। अनाथों तथा विधवाओं की परवरिश, खैराती दवाखानों, मदरसों तथा मक्तबों का निर्माण, गरीब कन्याओं के विवाह हेतु आर्थिक सहायता, बेरोज़गारों को उनकी योग्यतानुसार रोज़गार दिए जाने की व्यवस्था करना आदि उसके कल्याणकारी कार्यों में सम्मिलित थे किन्तु उसकी जन-कल्याण की भावना केवल मुस्लिम प्रजा तक सीमित थी।
सुल्तान फ़िरोज़ तुगलक की कट्टर धार्मिक नीति
- फ़िरोज़ तुगलक धार्मिक प्रवृत्ति का एक धर्मभीरु, आस्थावान मुसलमान था और वह इस्लाम के संरक्षक के रूप में अपनी छवि बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था। सत्ता प्राप्ति में उसे उलेमा वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ था। सुल्तान बनते ही उसने अलाउद्दीन खिलजी व मुहम्मद तुगलक की धर्म से राजनीति को अलग करने की नीति को पलटते हुए उलेमा वर्ग का राजनीतिक महत्व बढ़ा दिया और उसे आर्थिक सुविधाएं भी उपलब्ध कराई। खलीफ़ा से उसके नाइब और सुल्तान के रूप में वैधानिक अधिकार पत्र प्राप्त करने को भी उसने अत्यधिक महत्व दिया। उसने अपने राज्य को दारुल इस्लाम का रूप दिया और गैर-मुस्लिम परम्पराओं के अनुपालन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सुल्तान को मुसलमानों का कल्याण ही सर्वोपरि था। गैर मुस्लिमों के प्रति उसक असहिष्णुतापूर्ण थी। उसने ब्राह्मणों को जज़िया के दायरे में लाकर अपनी धर्मांधता का परिचय दिया था। उसने हिन्दुओं को ही नहीं अपितु शियाओं, महदवियों तथा सूफ़ियों का भी उत्पीड़न किया। उसने हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित होने के लिए प्रलोभन देने की नीति अपनाई अपनी आत्मकथा फ़ुतूहात-ए-फ़िरोज़शाही में वह बड़े दम्भ के साथ प्रलोभन देकर हिन्दुओं को इस्लाम धर्म में दीक्षित होने के लिए प्रेरित करने की बात स्वीकार करता है। नगरकोट और जाजनगर पर आक्रमण तथा वहां मन्दिरों व मूर्तियों का विनाश करना उसकी धार्मिक उत्पीड़न की नीति के उदाहरण थे।
तुगलक वंश के पतन के लिए फिरोज़ तुगलक का दायित्व
फिरोज़ तुगलक ने 37 वर्ष तक शासन किया। अपने प्रशासनिक सुधारों के लिए उसके समकालीन इतिहासकारों - ज़ियाउद्दीन बर्नी तथा शम्स-ए-सिराज अफ़ीफ़ ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। आधुनिक इतिहाकारों ने उसके लोक-कल्याणकारी कार्यों के लिए उसकी तुलना अशोक व अकबर से की है। परन्तु फ़िरोज़ तुगलक ने दिल्ली सल्तनत के विघटन की प्रक्रिया को रोकने के स्थान पर उसकी गति को और बढ़ा दिया।
1. फिरोज़ तुगलक में सैनिक प्रतिभा का नितान्त अभाव था। उसके शासनकाल में साम्राज्य विस्तार की नीति का परित्याग कर दिया गया। सैनिक अनुशासन में कमी, सैनिकों की भर्ती के नियमों में शिथिलता, पदों को वंशानुगत करना, घोड़ों को दागने तथा सैन्य निरीक्षण की प्रथा का स्थगन और सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार ने राज्य की सैन्य शक्ति को अत्यन्त क्षीण कर दिया।
2. धार्मिक कट्टरता की नीति अपना कर फ़िरोज़ तुगलक ने अपनी बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा का सद्भाव तथा सहयोग खो दिया। उसने इस्लाम के संरक्षक का चोला पहन कर धर्मांधता तथा धार्मिक वैमनस्य को बढ़ावा दिया। उलेमा वर्ग को राजनीति में हस्तक्षेप करने का अधिकार देकर भी उसने दिल्ली सल्तनत को पतन की ओर ढकेल दिया।
3. फिरोज़ तुगलक ने दास प्रथा को बढ़ावा देकर राज्यकोष पर अनावश्यक बोझ डाला।
4. शक्ति के विकेन्द्रीकरण की नीति अपना कर फिरोज़ तुगलक ने प्रशासनिक शिथिलता को और बढ़ा दिया। उसकी अनावश्यक उदारता ने भ्रष्ट अधिकारियों तथा कर्मचारियों के दुःसाहस का पोषण किया।
5. फिरोज़ तुगलक ने अपने पुत्रों को प्रशासनिक व सैनिक प्रशिक्षण से दूर रखा। सभी परवर्ती तुगलक सुल्तानों के अयोग्य सिद्ध होने के पीछे उसका भी दायित्व है।
6. सैनिक दुर्बलता के कारण उत्तर-पश्चिमी सीमा से होने वाले आक्रमणों को रोक पाना असम्भव हो गया था। तैमूर का आक्रमण फ़िरोज़ तुगलक की मृत्यु के एक दशक बाद हुआ किन्तु उसके लिए अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न करने का दायित्व बहुत कुछ उसी का था।
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