सल्तनत कालीन राजस्व व्यवस्था |Sultanate Revenue System

 

सल्तनत कालीन राजस्व व्यवस्था |Sultanate Revenue System

सल्तनत कालीन राजस्व व्यवस्था |Sultanate Revenue System


सल्तनत कालीन राजस्व व्यवस्था सामान्य परिचय 

  • दिल्ली सल्तनत के पहले सुल्तान कुतबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत को गज़नी साम्राज्य से अलग कर व्यावहारिक दृष्टि से एक स्वतन्त्र राज्य का रूप प्रदान किया परन्तु उसको ठोस प्रशासनिक ढांचा व राजनीतिक स्थायित्व प्रदान करने का श्रेय इल्तुतमिश को जाता है इल्तुतमिश की पुत्री रज़िया ने सुल्तान के रूप में अपनी योग्यता का परिचय दिया परन्तु अमीरों के प्रबल विरोध के कारण उसका पतन हो गया। 
  • बलबन तथाकथित गुलाम वंश का सबसे शक्तिशाली एवं सफल शासक था, इस काल में शासकों ने प्रजा के हित में कार्य करने का कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं किया। 
  • 1290 ईसवी से 1320 ईसवी तक दिल्ली सल्तनत पर खिलजी वंश का शासन रहा। इस वंश के शासकों में जलालुद्दीन, अलाउद्दीन तथा कुतबुद्दीन मुबारक शाह प्रमुख हैं। 
  • खिलजी शासकों में अलाउद्दीन खिलजी की प्रशासक के रूप में उसकी बाज़ार नियन्त्रण की नीतिकी अनेक अर्थशास्त्री आज भी प्रशंसा करते हैं। 
  • अलाउद्दीन खिलजी ने जनता के हित को कभी भी सर्वोपरि नहीं रखा किन्तु उसके शासन में दीर्घकाल तक शान्ति एवं व्यवस्था बनी रही। 
  • अप्रैल, 1320 में खिलजी वंश का पतन हो गया था। 
  • तुगलक वंश में दो शासकों मुहम्मद तुगलक और फिरोज़ तुगलक ने इतिहास में अपनी अलग छाप छोड़ी है। मुहम्मद तुगलक जहां अपनी विवादास्पद नीतियों, चारित्रिक दुरूहता तथा साम्राज्य के विघटन के लिए कुख्यात है वहीं दूसरी ओर फिरोज़ तुगलक अपने प्रशासनिक सुधारों के लिए विख्यात है। 
  • किन्तु फ़िरोज़ तुगलक की अनावश्यक उदारता और सैनिक दुर्बलता तुगलक वंश के पतन का एक प्रमुख कारण बनी। 
  • 1451 में बहलोल लोदी के सुल्तान बनने पर ही स्थिति में कुछ सुधार आया परन्तु राज्य को पुनर्संगठित करना और विरोधी शक्तियों का स्थायी रूप से दमन कर पाना लोदी शासकों की सामर्थ्य से परे था। यह युग निरंतर संघर्ष और उठापठक का था और विभिन्न सुल्तानों ने समय-समय पर राज्य की आय में वृद्धि करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रयोग किये और अपनी राजस्व नीति निर्धारित करने की कोशिश की। 

 

सल्तनत कालीन राजस्व नीति Sultanate Revenue Policy

 

राजस्व नीति के अंतर्गत किसी शासन की आय-व्यय का अध्ययन शामिल होता है। यहां हम संपूर्ण सल्तनत युग की राजस्व व्यवस्था का विवरण दे रहे हैं अतः हम यहां केवल सल्तनत युग के उन सुल्तानों की नीति पर चर्चा करेंगे जिन्होंने राजस्व सुधार के क्षेत्र में कार्य किया था। इसका विवरण अग्रांकित अंतर्गत किया जा सकता है

 

सल्तनत कालीन वित्त व्यवस्था 

 

  • सल्तनत-युग की वित्त-नीति सुन्नी विधिविज्ञों की हनीफी शाखा के वित्त सिद्धान्तों पर आधारित थी। भारत के प्रारम्भिक तुर्की सुल्तानों ने गजनवी सुल्तानों की यह प्रथा अपना ली थी। 
  • मुस्लिम धार्मिक कानून शरियत में राजस्व के मुख्य साधन अग्रांकित बताये गये हैं- (1) उश्र, (2) खराज, 3. खम्स, 4. जकात और 5. जजिया। इनके अतिरिक्त इस काल में आय के कई अन्य साधनों का भी उल्लेख मिलता है- जैसे खानों से होने वाली आय, भूमि से प्राप्त गड़ा हुआ धन, लावारिस इत्यादि। 
  • उश्र, भूमि कर था और मुसलमान भूमिधरों की उस भूमि पर लगाया जाता था जिसकी सिंचाई प्राकृतिक साधनों से होती थी। यह उपज के 1/10 की दर से वसूल किया जाता था। गैर मुसलमानों की भूमि पर लगाया जाने वाला कर खराज कहलाता था। इस्लामी कानून के अनुसार इसकी दर 1/10 से 1/2 तक होती थी। 
  • खम्स उस लूट के धन को कहते थे जो युद्ध में प्राप्त होता था, सिद्धान्ततः उसका 4/5 भाग सेना में बांट दिया जाता था और 1/5 सुल्तान द्वारा रखा जाता था लकिन व्यवहार में सदैव इसका विपरीत ही होता था। 
  • जकात धार्मिक कर था जो केवल मुसलमानों से प्राप्त किया जाता था। यह कर कुछ निश्चित मूल्य से अधिक की सम्पत्ति पर ही लगता था। इसकी दर 2.5 प्रतिशत थी। इस कर से होने वाली आय मुसलमानों के लाभ के लिए व्यय की जाती थी जैसे कर से प्राप्त धन को मस्जिदों और कब्रों की मरम्मत, धर्मस्व और धार्मिक लोगों तथा दरिद्रों को दिये जाने वाले भत्ते इत्यादि में खर्च किया जाता था।

 

जजिया कर क्या होता है | Jajiya Kar Kya hota Hai

 

  • जजिया केवल गैर-मुसलमानों पर लगाया जाता था। कुछ विद्वानों का मानना है कि वह धार्मिक कर था और गैर-मुसलमानों से वसूल किया जाता था और इसके बदले में उन्हें अपने जीवन तथा सम्पत्ति की रक्षा का आश्वासन मिलता था और वे सैनिक-सेवा से मुक्त रहते थे।
  • सुन्नी विचारधारा के अनुसार गैर-मुसलमानों को मुसलमानों के राज्य में रहने का अधिकार नहीं हैं। किन्तु कुछ अन्य मुस्लिम विद्वानों का मत है कि जजिया धर्मनिरपेक्ष कर था और गैर-मुसलमानों पर इसलिए लगाया जाता था क्योंकि वे सैनिक सेवा से मुक्त थे। 
  • मुसलमानों को कम से कम सिद्धान्ततः अनिवार्य रूप से राज्य की सैनिक सेवा करनी पड़ती थी। 
  • प्रारम्भिक मुसलमान विधिविज्ञों ने करों को दो वर्गों में विभक्त किया, धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष कर, और जजिया को उन्होंने दूसरी कोटि में रखा। 
  • प्रारम्भ में भारत के बाहर इस्लामी देशों में इस कर के लगाने का कुछ भी उद्देश्य रहा हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि भारत में उस समय जजिया धार्मिक कर समझा जाता था। वह गैर मुसलमानों पर इसलिए लगाया जाता था कि राज्य उनके जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करता और सैनिक सेवा से उन्हें मुक्त रखता था। 
  • दिल्ली के सुल्तान कठोरता से इस कर को वसूल करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते थे। स्त्रियाँ, बच्चे, भिखारी तथा लंगड़े जजिया से मुक्त थे। 
  • इस कर के लिए समस्त हिन्दू जनता को तीन वर्गों में विभक्त किया गया था। पहले वर्ग को 48 दिरहम, दूसरे को 24 दिरहम और तीसरे को 12 दिरहम कर चुकाना पड़ता था।

 

सल्तनत कालीन आय-कर

 

  • आयात पर भी कर लगता था, जिसकी दर व्यापारिक वस्तुओं के लिए 2.5 प्रतिशत और घोड़ों के लिए 5 प्रतिशत थी। आयात कर की दर गैर-मुसलमानों के लिए मुसलमानों से दूनी थी।
  • इसके अतिरिक्त मकान कर, चरागाह कर, पानी पर कर तथा अन्य साधारण कर भी वसूल किये जाते थे। 
  • खनिज पदार्थों तथा गढ़े धन का 1/5 राजकोष में जमा करना होता था। लावारिस लोगों की सम्पत्ति भी राज्य की हो जाती थी। 
  • आय के एक अन्य महत्वपूर्ण साधन के अंतर्गत प्रतिवर्ष सुल्तान को जनता, पदाधिकारियों तथा अमीरों से बहुत सा धन भेंट के रूप में मिलता था।

 

सल्तनत कालीन भू-राजस्व

 

दिल्ली सल्तनत की आय का सबसे महत्वपूर्ण साधन, भू-राजस्व या लगान था को चार प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया था, यथा- 


1. खालसा भूमि

2. मुक्तियों की भूमि जो उन्हें कुछ निश्चित वर्षों अथवा जीवन भर के लिए दे दी जाती थी

3. अधीनस्थ हिन्दू सामन्तों के राज्य की भूमि और 

4. मुसलमान विद्वान तथा सन्तों को इनाम अथवा मिल्क अथवा वक्फ के रूप में दी गयी भूमि।

 

खालसा भूमि क्या होती है 

  • खालसा भूमि का प्रबन्ध सीधा केन्द्रीय सरकार द्वारा होता था किन्तु सरकार प्रत्येक किसान से सीधा नहीं, बल्कि चौधरी, मुकद्दम, खुत आदि स्थानीय राजस्व पदाधिकारियों द्वारा भूमि कर वसूल करती थी। 
  • ये पदाधिकारी किसानों से लगान वसूल करते थे और हर एक शिक में आमिल नाम का एक पदाधिकारी रहता, जो कर संग्रहित कर राजकोष में जमा करता था। 
  • राजस्व की दर उपज के आधार पर सावधानी से हिसाब लगाकर नहीं, बल्कि अनमान से ही निश्चित की जाती थी। 
  • इक्ता में राजस्व निर्धारित तथा वूसल करने का काम मुक्ती का था। वह अपना भाग काटकर बचत को केन्द्रीय सरकार के कोष में जमा कर देता था। 
  • मुक्ती पर नियंत्रण के लिए सुल्तान प्रत्येक इक्ते में ख्वाजा नामक एक पदाधिकारी को नियुक्त करता था जिसका काम राजस्व वसूली की देखरेख करना तथा मुक्ती पर नियन्त्रण रखना था।
  • गुप्तचरों के कारण ख्वाजा तथा मुक्ती में झगड़ा होने की सम्भावना कम रहती थी, क्योंकि वे स्थानीय पदाधिकारियों के कामों की खबरें केन्द्र सरकार को देते थे। 
  • अधीन हिन्दू राजा अपने अपने राज्यों में पूर्ण स्वायत्तता का उपभोग करते थे। उन्हें केवल सुल्तान को कर देना पड़ता था। जमींदार भी सरकार को निश्चित कर दिया करते थे और उनके अधिकार क्षेत्रों में रहने वाले किसानों को अपने जमीदारों को छोड़कर अन्य किसी अधिकारी से सम्बन्ध नहीं था। वक्फ अथवा इनाम के रूप में दी गयी भूमि राजस्व से मुक्त थी।

 

अलाउद्दीन खिलजी की राजस्व नीति

अलाउद्दीन खिलजी पहला सुल्तान था जिसने राजस्व नीति तथा व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये । उसकी नीति दो मुख्य सिद्धान्तों पर आधारित थी- 

1. राज्य की आय में अधिक से अधिक वृद्धि करना और 

2. लोगों को आर्थिक अभाव की दशा में रखना जिससे वे विद्रोह अथवा आज्ञा के उल्लंघन का विचार भी न कर सके। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने निम्नलिखित उपाय किये:

 

  • सबसे पहले उसने मुसलमान अमीरों की तथा मिल्क, इनाम, इद्रात और वक्फ के रूप में धर्म के नाम पर दी गयी भूमि को जब्त कर लिया। इस प्रकार की अधिकतर भूमि पर राज्यका अधिकार हो गया, किन्तु कुछ लोग पूर्ववत अपने अधिकारों का उपभोग करते रहे। 
  • मुकद्दम, खुत, चौधरी आदि राजस्व पदाधिकारी जो सभी हिन्दू थे, उनको जो विशेषाधिकार मिले हुए थे उनसे छीन लिये गये और अब उन्हें भी अन्य लोगों की भांति अपनी भूमि पर राजस्व तथा मकान और चरागाह कर देने पड़ते थे। 
  • भू-राजस्व की दर उपज का 1/2 भाग निर्धारित कर दी गयी। अलाउद्दीन ने भू-राजस्व तथा अन्य विद्यमान करों के अतिरिक्त भी किसानों पर मकान कर तथा चरागाह कर लगाये और जजिया और जकात पूर्व की भांति ही था। अलाउद्दीन ने भूमि की वास्तविक उपज जानने के लिए भूमि की नाप करने की परिपाटी प्रचलित की और पटवारियों के अभिलेखों की जांच करवायी, जिससे कि राजस्व विभाग लगान निर्धारित करने के लिए सही जानकारी प्राप्त कर सके। 
  • अलाउद्दीन ने सब प्रकार का राजस्व कठोरता से वसूल करने के लिए उसने एक विभाग का निर्माण किया और फसल की किसी प्रकार की हानि होने पर भी राजस्व में छूट देने का नियम नहीं रखा। 
  • अलाउद्दीन की नीति अत्यधिक कठोर तथा अप्रिय थी इसलिए उसके उत्तराधिकारी उसका अनुसरण नहीं कर सके। उसके अनेक कठोर नियम त्याग दिये गये, किन्तु उसके द्वारा निश्चित की गयी लगान की दर में परिवर्तन नहीं किया गया।


गियासुद्दीन तुगलक की राजस्व नीति

  • गियासुद्दीन तुगलक ने भू-राजस्व कर की दर किसी प्रकार से नहीं घटायी और वह पूर्ववत् उपज का 1/2 कायम रही। 
  • गियासुद्दीन तुगलक ने फसल को प्राकृतिक अथवा अन्य किन्हीं कारणों से हानि होने पर छूट देने के सिद्धान्त को स्वीकार किया और उचित अनुपात में राजस्व की छूट दी। 
  • गियासुद्दीन तुगलक ने खुत, मुकद्दम और चौधरी लोगों को भूमि कर तथा चरागाह कर से मुक्त कर दिया। गियासुद्दीन तुगलक ने नियम बनाया कि किसी इक्ते में 1 वर्ष में 1/10 अथवा 1/11 से अधिक राजस्व में वृद्धि न की जाय।
  • किंतु गियासुद्दीन की राजस्व नीति में दो मुख्य दोष थे। एक तो गियासुद्दीन तुगलक ने भूमि की नाप कराने की परिपाटी त्याग दी और पूर्ववत अनुमति से राजस्व निर्धारित करने की नीति को अपनाया। 
  • दूसरे, गियासुद्दीन तुगलक ने सैनिक तथा असैनिक पदाधिकारियों को जागीरें देने की प्रथा को पुनः प्रचलित कर दिया।

 

मुहम्मद तुगलक की राजस्व नीति

  • मुहम्मद तुगलक राजस्व शासन को सुव्यवस्थित करने का इच्छुक था। उसकी आज्ञानुसार राजस्व विभाग ने सल्तनत की आय और व्यय का विस्तृत लेखा तैयार करना आरम्भ किया, जिससे राज्य में एक सी राजस्व व्यवस्था स्थापित की जा सके और कोई गांव भूमि कर से न बच सके। 
  • किन्तु यह कार्य अधूरा ही रह गया। उसका दूसरा प्रयोग भूमि कर की दर पहले की भाँति 50 प्रतिशत ही कायम रही। रैयतों ने इस नीति के विरूद्ध घोर असन्तोष प्रकट किया किन्तु सुल्तान ने बढ़े हुए करों को वसूल करना जारी रखा। 
  • अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ गया जिसकी भी उसने चिन्ता नहीं की। परिणामस्वरूप भयंकर विद्रोह उठ खड़ा हुआ, किन्तु सुल्तान ने अपने अध्यादेश को वापस नहीं लिया। बाद में उसने तकावी ऋण बांटा और सिंचाई के लिए कुएं भी खुदवाये किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
  •  अतः दोआब का सम्पूर्ण प्रदेश बरबाद हो गया। सुल्तान का एक अन्य सुधार था, कृषि विभाग की स्थापना करना, जिसे दीवाने-कोही करते थे। इसका उद्देश्य कृषि के क्षेत्र में विस्तार करना था, किन्तु यह योजना भी निष्फल रही।

 

फीरोज तुगलक की राजस्व नीति

  • फीरोज तुगलक के सिंहासन पर बैठने के समय से दिल्ली सल्तनत की कृषि नीति का एक नया युग आरम्भ हुआ। उसने राजस्व सम्बन्धी विषयों की ओर ध्यान दिया और जनता की भौतिक अभिवृद्धि के लिए हृदय से प्रयत्न किया। 
  • उसने तकावी ऋण माफ कर दिया, राजस्व विभाग के पदाधिकारियों के वेतन बड़ा दिये और उन शारीरिक यातनाओं को बन्द कर दिया जो सूबेदारों और राजस्व पदाधिकारियों को भुगतनी पड़ती थी। 
  • इसके अतिरिक्त उसने राजस्व सम्बन्धी लेखों की बड़ी सावधानी और परिश्रम से जांच करवायी और समस्त खालसा भूमि का राजस्व स्थारी रूप से निश्चित कर दिया। 
  • फीरोज तुगलक ने 24 कष्टप्रद कर हटा दिये जिनमें घृणित मकान कर, तथा चरागाह कर भी सम्मिलित थे। 
  • कुरान में बताये गये केवल पांच कर खराज, खम्स, जजिया, जकात तथा सिंचाई कर कायम रखे। फीरोज तुगलक ने खेती की सिंचाई के लिए पांच नहरों का निर्माण कराया और अनेक कुएं खुदवाये। 
  • फीरोज तुगलक ने गन्ना, तिलहन, अफीम आदि उत्तम फसलों की कृषि को प्रोत्साहन दिया। फीरोज तुगलक ने अनेक बाग लगवाये और फलों के उत्पादन को बढ़ाने का प्रयत्न किया।
  • इन सुधारों से राज्य की आय में बहुत वृद्धि और सामान्य जनता की आर्थिक दशा में उन्नति हुई। 
  • किन्तु फीरोज की राजस्व व्यवस्था में तीन दोष थे 1-भू-राजस्व को ठेके पर उठाने के सिद्धान्त को पुनः लागू करना, 2. भू राजस्व के रूप में वेतन देना और पदों को बेचने की आज्ञा देना तथा 3. जजिया के क्षेत्र में वृद्धि करना और कठोरता से उसे वसूल करना।

 

जब लोदियों के हाथों में राजशक्ति आयी तो उन्होंने अपने राज्य की समस्त भूमि महत्वपूर्ण अफगान परिवारों में बांट दी । खालसा भूमि का क्षेत्र तथा महत्व बहुत कम हो गया सिकन्दर लोदी ने भूमि की नाप करने की परिपाटी पुनः प्रचलित करने का प्रयत्न किया, अन्यथा उसने राजस्व नियमों तथा उपनियमों में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया।


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