बौद्ध धर्म की शिक्षा और सिद्धांत-02 | Baudh Dharm ki Shiksha Aur Sidhant
बौद्ध धर्म की शिक्षा और सिद्धांत
Baudh Dharm Ki Shiksha Aur Sidhant
अनिश्वरवाद
- बुद्ध मूलतः अनिश्वरवादी थे। ईश्वर के अस्तित्व और उसकी सत्ता में उनका विश्वास नहीं था। अपने उपदेशों में प्रायः कहा करते थे कि इस सृष्टि की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति द्वारा नहीं की गयी है और न ईश्वर नाम की कोई वस्तु इस दुनिया में है। संसार की उत्पत्ति 'प्रतीत्य समुत्पाद' के नियम के अनुसार हुई है। इस नियम का आधार कोई कार्य तथा कारण की श्रृंखला मात्र है, अर्थात् कारण के आधार पर कोई कार्य किया जाता है और वह किया हुआ कार्य दूसरे कार्य की उत्पत्ति का कारण बन जाता इसी प्रकार एक कार्य से दूसरा, दूसरे से तीसरा और तीसरे से चौथा कार्य उत्पन्न होता रहता है और कार्य तथा श्रृंखला में ही सम्पूर्ण सृष्टि के कार्य चलते रहते हैं।
अनात्मवाद
- आत्मवाद उपनिषदों के चिन्तन का मुख्य आधार था और बुद्ध के समय में भी इस सिद्धांत का व्यापक प्रचार था। आत्मवादियों का विश्वास था कि हर प्राणी में आत्मा नाम का एक अजर-अमर तत्व है जो शरीर के नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता। बुद्ध ने इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि विश्व आत्मा से शून्य है। मनुष्य में कोई ऐसा तत्व नहीं है जो अविनाशी हो। जिस वस्तुओं के योग से मनुष्य बनता है वे सब नाशवान हैं। वे कहा करते थे कि जिस प्रकार पहिया, धुरी आदि विभिन्न पुर्जों को जोड़कर कारीगर गाड़ी बनाता है उसी प्रकार हमारे इस शरीर की रचना भी विभिन्न अंगों के संयोग से हुई है और उसी प्रकार मनुष्य की बोलचाल, कार्य और विचार भी संस्कार, संज्ञा स्वरूप, संवेदना और विज्ञान रूपी पाँच समूह द्वारा सम्पन्न होते हैं। जिस प्रकार गाड़ी के अलग-अलग कर देने पर उन पुर्जों के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती है, उसी प्रकार शरीर में उन तत्वों के अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई अलग तत्व नहीं है।
कर्मवाद तथा पुनर्जन्मवाद
- बुद्ध अनात्मावादी होते हुए भी कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांतों को मानते थे। उनका कहना था कि पुनर्जन्म तो होता है परन्तु आत्मा का नहीं वरन् मनुष्य के अहंकार का होता है। यह बारम्बार जन्म लेने की क्रिया कर्मवाद और प्रतीत्य समुत्पाद के नियमों के अधीन होती है। तृष्णा के तृप्त होने पर भी अतृप्तता का अनुभव करने से ही अहंकार होता है और इस अंहकार के कारण ही पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है। अतएव, निर्वाण के लिए तृष्णा का परित्याग परम आवश्यक है।
निर्वाण
- बुद्ध सम्पूर्ण विश्व को क्षणिक मानते थे। उनका कहना था कि सभी चीजें परिवर्तनशील हैं जो निरन्तर बदलती रहती हैं। केवल प्रवाह के रूप में वे स्थायी दिखायी पड़ती हैं। अब प्रश्न यह है कि क्या विश्व में कुछ स्थायी भी है? कोई ऐसी भी स्थिति है जिसमें दुःख नहीं है? बुद्ध ने बतलाया कि निर्वाण की स्थिति स्थायी और दुःख से रहित है, किन्तु बुद्ध ने निर्वाण का अर्थ स्पष्ट नहीं किया। इसीलिए अनेक आधुनिक विद्वानों के अनुसार निर्वाण वह अवस्था है जिसमें सब कुछ नष्ट हो जाता है। केवल भौतिक शरीर ही समाप्त नहीं हो जाता बल्कि चेतना और विचार तत्व भी लुप्त हो जाते हैं। निर्वाण का कोई विशेष स्थान नहीं है। वह कहीं भी और किसी समय प्राप्त किया जा सकता है। इस जीवन में भी मनुष्य को निर्वाण मिल सकता है। उसे साधारण निर्वाण कहा जा सकता है। मृत्यु के बाद जो निर्वाण मिलता है उसे परिनिर्वाण कहेंगे।
बुद्ध का मध्यम मार्ग
मध्यम मार्ग
- बुद्ध का धर्म मध्यम मार्ग पर आधारित है। उन्होंने बतलाया कि दो अन्तों से बचकर रहना चाहिए-कठोर तप तथा अत्यधिक भोग विलास। इन दोनों के बीच की स्थिति (मध्यम प्रतिपदा) श्रेयष्कर है। इस मार्ग का प्रतिपादन उन्होंने इस प्रकार किया "भिक्षुओं, संन्यासी को दो अन्तों का सेवन नहीं करना चाहिए। वे दोनों अन्त कौन से हैं? एक तो काम और विषय सुख में फंसना जो अत्यन्त हीन, ग्राम्य (गंवारू), अनार्य और अनर्थकर हैं, और दूसरा शरीर को व्यर्थ में अति कष्ट देना जो अनार्य और अनर्थकर हैं। इन दोनों अन्तों को त्यागकर तथागत (बुद्ध) ने मध्यम प्रतिपदा (मध्यम मार्ग) को ग्रहण किया है जो आँखे खोलने वाली और ज्ञान को देने वाली है। "
- बुद्ध ने वीणा का उदाहरण देकर अपने इस मार्ग का और भी स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन किया। जैसे वीणा के तारों को यदि बहुत ढीला कर दिया जाये तो वह बजेगी नहीं और यदि उसे अधिक कस दिया जाये तो तार टूटने का डर है। इसी प्रकार न तो भोग विलास का ही जीवन सुखकर है और न कठिन तपस्या का सम जीवन ही अच्छा है।
बुद्ध के दस शील
दस शील
बुद्ध के नैतिक उपदेशों में शील पर बहुत जोर दिया गया है। नैतिक आचरण के लिए निम्नलिखित दस शीलों का पालन करना आवश्यक बतलाया गया है-
(1) दूसरों की सम्पत्ति की चाह न करना,
(2) हिंसा न करना,
(3) झूठ न बोलना,
(4) मादक द्रव्यों का सेवन न करना,
(5) व्यभिचार न करना,
(6) गाने बजाने में भाग न लेना
(7) सुगन्धित पदार्थों फूलों आदि का प्रयोग न करना
(8) कुसमय भोजन न करना
(9) आराम देने वाली चारपाई पर न सोना और
(10) रुपया पैसा न ग्रहण करना और न रखना।
उपर्युक्त नैतिक शिक्षाओं के अतिरिक्त बुद्ध ने सभी व्यक्तियों को माता-पिता की आज्ञा पालन करने, गुरुजनों के प्रति श्रद्धा, आदर और मान प्रकट करने, सत्पात्रों को दान देने, प्रेम और उदारतापूर्ण व्यवहार करने किसी प्रकार का नशा न करने और प्राणीमात्र के साथ सद्व्यवहार करने का भी उपदेश दिया।
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