फाहियान का विवरण | फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण | Phaiyan Kaun Tha
फाह्यान का भारत विवरण फाहियान का विवरण फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण Phaiyan Kaun Tha
फाहियान के बारे में जानकारी- परिचय एवं यात्राएँ
- फाहियान एक चीनी यात्री था, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में स्थलमार्ग से भारत आया तथा समुद्री मार्ग से वापस गया। वह एक बौद्ध भिक्षु था। धर्म की पुस्तकों की खोज तथा बौद्ध तीर्थ स्थानों के दर्शन के लिए यात्रा के अनेक कष्टों को सहता हुआ बुद्धदेव की पवित्र भूमि भारत आ पहुँचा। पूरी यात्रा में उसे 15 वर्ष लगे जिनमें से छः वर्ष उसने भारत में बिताये, जिसमें से तीन वर्ष वह पाटलिपुत्र में ठहरा।
फाहियान की भारत यात्रा
- जैसा कि विदित है कि फाहियान पश्चिमी चीन से पूर्व तुर्किस्तान होता हुआ तारतार पहुँचा। यहाँ उसने कई बौद्ध भिक्षुकों को भारतीय भाषा व पुस्तकें पढ़ते देखा। यहाँ से वह खोतान पहुँचा जहाँ उसने 14 विहार देखे। केवल गोमती विहार में ही 14 हजार भिक्षु थे। यहाँ से वह काशगार, कुफेन (काबुल) गान्धार व तक्षशिला होता हुआ पुरुषपुर ( पेशावर) पहुँचा। इन सभी स्थानों पर बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव था। अफगानिस्तान में उसने महायान तथा हीनयान शाखा के तीन हजार बौद्ध भिक्षु देखे। गान्धार देश में भी हीनयान मतावलम्बियों की संख्या अधिक थी।
- तक्षशिला में तो उसने बौद्ध स्तूपों पर इतनी भीड़ देखी कि वहाँ पुष्प तथा दीप चढ़ाने वालों का कभी तांता नही पेशावर से फाहियान पंजाब पहुँचा जहाँ उसकी भेंट लगभग 10 हजार भिक्षुओं से हुई।
- यहाँ से वह मथुरा आया जहाँ उसने 20 विहार देखे तथा 3 हजार बौद्ध भिक्षुओं से मिला। यहाँ से वह मध्य प्रदेश पहुँचा। यहाँ से कन्नौज रुकता हुआ श्रावस्ती पहुंचा जहाँ उसने अनेक बौद्ध स्मारक देखे।
- उसके बाद उसने गौतम बुद्ध से सम्बन्धित सभी स्थान कपिलवस्तु, राजगृह, कुशीनगर, वैशाली, सारनाथ, बोधगया , नालन्दा, पाटलिपुत्र आदि स्थानों की यात्रा की और वह ताम्रलिप्ति बन्दरगाह पहुँचा। यहां से वह सिंहल द्वीप (लंका) पहुँचा जहाँ उसने दो वर्ष व्यतीत किये। यहाँ से होता हुआ समुद्री मार्ग से चीन वापस लौट गया।
- सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि फाहियान अपनी भारत यात्रा तथा यहाँ के अध्ययन में इतना मग्न रहा कि उसने उस समय के शासन की बहुत प्रशंसा की है। सामाजिक धार्मिक व आर्थिक दशा को सराहा परन्तु तत्कालीन शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय का कहीं भी नाम नहीं दिया है।
फाहियान का भारत वर्णन Phaiiyan Ka Bharat Vivran
फाहियान के अनुसार भारत की राजनीतिक दशा
- फाहियान के विवरण के अनुसार मगध के राजा का शासन श्रेष्ठ व कुशल था। राज्य का उद्देश्य अधिक से अधिक जनता का हित करना था। शासन में लोगों को सभी प्रकार की स्वतंत्रता थी। समस्त साम्राज्य का प्रशासन राजधानी पाटलिपुत्र से संचालित होता था। राजतंत्र प्रमुख था। राजा वंशानुगत होते थे और साम्राज्य की सारी सत्ता राजा में केन्द्रीभूत होती थी। फिर भी राज्य लोककल्याणकारी थे। धर्म, नीति, परम्पराएँ मंत्रिपरिषद् आदि उसकी निरंकुशता पर नियंत्रित थे।
- शासन संचालन के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती थी। इनका पद प्रायः पैतृक होता था युद्ध, संधि व शांति का एक ही मंत्री होता था जो शांति विग्रहिक' कहलाता था। वह युद्ध स्थल में सम्राट के साथ रहता था। अन्य विभागों में भी मंत्री होते थे।
- प्रशासन की सुविधा के लिये सम्पूर्ण साम्राज्य प्रान्तों में विभक्त था जिन्हें देश या मुक्ति कहा जाता था और इसके सर्वोच्च अधिकारी को 'उपरिक' कहा जाता था। यह अधिकतर राज परिवार के होते थे। प्रान्त जिलों में विभाजित था, जिन्हें प्रदेश या विषय कहा जाता था और इसके प्रधान को विषयपति। गाँव के शासक को ग्रामिक कहते थे।
- राज्य की आमदनी का मुख्य साधन भूमि कर था जिसे उद्रंग कहते थे। यह उपज का 1/6 भाग होता था। भूमि के उर्वरापन के हिसाब से 16% से लेकर 25% तक कर लगाया जाता था। राज्य के प्रमुख करों में उपरिक जिन्हें भूस्वामित्व प्राप्त नहीं था उनसे लिये जाते थे। 'वट', 'भूत', 'धान्य' (अनाज कर), हिरण्य (मूल्यवान धातुओं पर कर), न्याय शुल्क, अर्थ दण्ड, भोग कर (व्यापारिक वस्तुओं पर) आदि थे।
फाहियान के अनुसार की सरकारी कर्मचारी व अधिकारी
साम्राज्य की विशालता तथा प्रशासन चलाने हेतु अनेक सरकारी कर्मचारी व अधिकारी थे जिनकी फाहियान ने सूची दी है-
(1) राजामात्य (सम्राट का परामर्शदाता)
(2) महासामन्त व महाप्रतिहार (अन्तःपुर का अधिकारी),
(3) राजस्थानीय (सम्राट के राजप्रासाद का अधिकारी)
(4) देशपाशाधिकारी (पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी)
(5) चौरोद्धरणिक (गुप्तचर विभाग का अधिकारी)
(6) मट (पुलिस का सिपाही)
(7) उपरिक ( न्याय व राजस्व अधिकारी)
(8) विनय स्थिति स्थापक (मुख्य दण्डाधिकारी)
(9) दण्डनायक व महादण्ड नायक (न्याय विभाग के अन्य अधिकारी),
(10) भांडागाराधिकृत (कोष विभाग का अध्यक्ष)
(11) महापालिक ( राजकीय लेखे-जोखे का अधिकारी)
(12) महासेनापति (सेना का सर्वोच्च अधिकारी)
(13) महापीलुपति (हाथियों की सेना का अध्यक्ष)
(14) महाश्वपति (अश्वारोही सेना का अध्यक्ष),
(15) रणभांडागारिक (युद्ध व रसद सामग्री का अधिकारी) ।
- इन सभी अधिकारियों को राज्य की ओर से नकद वेतन मिलता था। वे पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा से कार्य करते थे। देश में शान्ति व व्यवस्था थी और चोरी व अपराध कम होते थे।
- फाहियान वर्षों तक अकेला निर्जन मार्गों तथा वनों में घूमता रहा परंतु उसे किसी भी चोर-लुटेरे ने तंग नहीं किया। उसके अनुसार अपराध कम होते थे तथा दण्ड विधान कठोर नहीं था। अधिकांश अभियुक्त केवल जुर्माना द्वारा ही दण्डित किए जाते थे। बार-बार विद्रोह करने वालों का अंगभंग कर दिया जाता था या हाथी से कुचलवा दिया जाता था। देशद्रोहियों की आँखें निकलवा ली जाती थीं। यात्रियों को बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। वे बिना प्रवेश पत्र के एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूम सकते थे।
- दान धर्म की कई संस्थाएँ थीं। सड़कों के किनारे या उनसे दूर लोग दानगृह बनवाते थे। सड़क के दोनों ओर छायादार वृक्ष व धर्मशालाएँ बनी हुई थीं, जहाँ यात्रा करने वाले भिक्षुओं व यात्रियों को बिस्तर व भोजन की सुविधा मिलती थी। स्थायी निवासी व यात्री भिक्षुओं को बिस्तरों व चटाइयों और खाने तथा कपड़े सहित रहने के लिए कमरे दिए जाते थे। सारीपुत्त, मोगालन, अभिधम्म आनन्द विनय व सुत्तों के सम्मान में पैगोडे बनाए जाते थे। यादि कोई विदेशी यात्री किसी विहार में जाता था तो उच्च पुरोहित उसे अतिथि गृह तक छोड़ने जाते थे तथा उसके वस्त्र व दानपात्र भी उठाते थे। वे उन्हें पैर धोने के लिए पानी व मालिश के लिए तेल देते थे तथा उनके लिए विशेष खाना बनाया जाता था। कुछ विश्राम के पश्चात् धर्माचार्य की पदवी व स्थिति पूछी जाती थी और उसके अनुसार स्थान व बिस्तर दिया जाता था।
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फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
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