अशोक का धर्म (धम्म) | अशोक के धम्म की नीति | Ashok Ki Dham Niti

 

अशोक का धर्म (धम्म) | अशोक के धम्म की नीति

अशोक का धर्म (धम्म) | अशोक के धम्म की नीति | Ashok Ki Dham Niti


अशोक का धर्म (धम्म)

 

  • संसार के इतिहास में अशोक का यश उसके राज्य विस्तार और शासन की क्षमता के कारण नहींअपितु उसके उच्च धार्मिक आदर्श उसके प्रति अशोक की अनुपम आस्था और उसको व्यवहार में लाने के लिए योग्य व्यवहार पर अवलम्बित है।


अशोक का धर्म क्या था

अशोक का धर्म क्या थायह एक अत्यन्त विवादास्पद प्रश्न है और विभिन्न इतिहासकारों ने इस पर अपने विभिन्न मत प्रकट किये हैं।

  •  हेरास का कहना है कि अशोक ब्राह्मणधर्म का अनुयायी था। 
  • डॉ. टॉमस का कथन है कि वह जैनधर्म में विश्वास करता था। .
  • डॉ. फ्लीट के अनुसारउसका धर्म राजधर्म था। 
  • सेनार्त तथा भण्डारकर महोदय का विचार है कि वह बौद्धधर्म को मानने वाला था।
  • डॉ. स्मिथ तथा डॉ. आर. के. मुखर्जी ने उसके धर्म को सार्वभौम धर्म माना हैजिनमें सभी धर्मों के अच्छे-अच्छे गुण सन्निहित थे और जो किसी भी एक धर्म की सीमा में नहीं समा सकता था।

 

  • वास्तव में अशोक का धर्म कोई संकीर्ण तथा साम्प्रदायिक धर्म नहीं था। ऊपर जिन विभिन्न मतों का उल्लेख किया गया हैउन सभी में सत्य का थोड़ा बहुत अंश विद्यमान हैलेकिन सबसे अधिक सत्य कौन-सा मत हैइसका पता लगाने के लिए अशोक के धार्मिक विचारों के क्रमागत विकास का पता लगाना पड़ेगा। वस्तुतः अशोक के धार्मिक विचारों में धीरे-धीरे परिवर्तन हुआ था। अतएव शुरू से अन्त तक उसके धार्मिक कार्यकलापों का अध्ययन करने के पश्चात् ही हम उसके वास्तविक धर्म को जान सकते हैं।

 

  • अशोक के धार्मिक जीवन और विचारों पर कलिंग के युद्ध का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इस युद्ध का अशोक के हृदय पर इतना गहरा असर पड़ा कि उसका धर्म ही बदल गया और वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया। इसके पूर्व अशोक शैव था और उसे नरसंहार तथा पशुबलि से कोई विरोध नहीं था। हजारों पशु उसके भोजन के लिए नित्य मारे जाते थे। राजतरंगिणी के लेखक कल्हण ने भी इस बात को स्वीकार किया है। उसने लिखा है कि अशोक आरम्भ में हिन्दू धर्मानुयायी था। वह ब्राह्मणों का आदर-सत्कार करता था और उनमें भारी श्रद्धा रखता था। सम्राट बनने के आठ वर्ष बाद तक उसकी धार्मिक स्थिति इसी प्रकार की रही थी।


  • राज्यारोहण के नवें वर्ष उसने कलिंग के शक्तिशाली राज्य पर आक्रमण किया। भीषण संग्राम और भयानक नर संहार के पश्चात् उसे विजय प्राप्त हुई। इस युद्ध में लगभग एक लाख व्यक्ति मारे गयेडेढ़ लाख बन्दी बनाये गये और सहस्रों घायल हुए। घायलों की चीख पुकारविधवाओं के विलाप और अनाथ बालकों के करुण क्रन्दन का उस पर भारी प्रभाव पड़ा। उसका हृदय करुणा से ओत-प्रोत हो गया। उसने इस भीषण रक्तपात और जनसंहार का प्रमुख कारण अपने आप को ही माना तथा भविष्य में युद्ध न करने का दृढ़ निश्चय किया। इसके कुछ समय पश्चात ही अशोक बौद्ध भिक्षु उपगुप्त के सम्पर्क में आया और उसकी आचरण की पवित्रताविचारों तथा महानता से बहुत प्रभावित हुआ। उसके संसर्ग से बौद्धधर्म में अशोक की रुचि बढ़ गयी और उसने बौद्ध मत ग्रहण कर लिया। पहले कुछ इतिहासकारों को अशोक को बौद्ध धर्मावलम्बी होने में सन्देह था। किन्तु उसके बौद्ध होने के कई स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। उसी के लेखों से स्पष्ट है कि वह एक बड़ा ही उत्साही बौद्ध था। 

  • बौद्ध ग्रन्थ दीपवंश और महावंश में स्पष्ट कहा गया है कि उसने एक बाल पंडित से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अशोक के बौद्ध होने की परम्परा का उल्लेख किया है। भाबू के लेख में उसने अपने को बौद्ध धर्म तथा संघ का भक्त बतलाया है। सारनाथ के लेख में उसने अपने को संघ रक्षक कहा है तथा संघ में फूट डालने वालों के लिए दण्ड निश्चित किया है। एक स्थल पर कहा गया है कि दो वर्षों तक अशोक ने केवल उपासक की भांति जीवन व्यतीत किया और धर्म के कार्यों में रुचि नहीं दिखाई। उसके बाद वह बौद्ध धर्म में सम्मिलित हो गया। इसके बाद ही उसने बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा की स्तूप बनवाने का कार्य शुरू कियायज्ञादि बन्द करवा दिये तथा बौद्ध धर्मावलम्बियों की एक सभा का आयोजन किया। इन सारी बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अशोक बौद्ध धर्म का पक्का उपासक था।

 

क्या सम्राट अशोक बौद्ध था 

  • अशोक के बौद्ध होने का स्पष्ट प्रमाण हमें उसके चतुर्दश शिलालेखों में से तेरहवें शिलालेख में मिलता है। उस शिलालेख में यह घोषणा अंकित है- कलिंग युद्ध के बाद शीघ्र ही देवानामप्रिय अशोक धम्म के अनुकरणधम्म के प्रेम और धम्म के उपदेश के प्रति उत्साहित हो उठा।" इस प्रकार अशोक ने बुद्ध मत के व्यावहारिक पक्ष के समर्थक सिद्धांतों का प्रचार आरम्भ किया। उसने जिस धर्म का प्रचार किया वह अशोक का धम्म" कहा जाता है। अशोक के अभिलेखों में धम्म शब्द का प्रयोग बार-बार हुआ है। धम्म शब्द के वास्तविक अर्थ के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। दूसरे स्तम्भ लेख में अशोक की जिज्ञासा इस प्रकार है- किच चु धम्मै" (धम्म क्या है?) इस प्रश्न के उत्तर में अशोक स्वयं कहता है आपसिनवे बहुकाथने दया दाने-दाने सोचयें।अर्थात् पापहीनताबहुकल्याणदयादानसत्यता और शुद्धि ही धम्म है। भानू अभिलेख को छोड़कर कहीं भी उसने 'धम्मका प्रयोग बौद्ध धर्म के लिए नहीं किया है। बौद्ध धर्म के लिए 'सद्धर्म या संघशब्द का प्रयोग हुआ है।

 

अशोक के धर्म का रूप

  • अशोक का यह धम्म क्या थाअशोक का यह धम्म तत्कालीन सभी धर्मों का सार था। उस पर सभी धर्मों का प्रभाव था। जिस धर्म में अशोक को जो सिद्धांत अच्छा लगा वही उस धर्म में से चुन लिया। इस प्रकार चुने हुए धार्मिक सिद्धांतों की गणना द्वितीय स्तम्भ लेखसप्त स्तम्भ लेख तथा सप्तम शिलालेख में करायी गयी। यह गणना इस प्रकार है- "संयम भाव शुद्धि दृढ भक्तिशौचसाधुताकृतज्ञतादयादानसत्यमातापितागुरु और वृद्धजनों की सेवा सुश्रूषा तथा बन्धु बान्धवोंब्राह्मणोंश्रमणोंदीन दुखियों आदि के प्रति दान तथा उचित आदर सत्कार।" वस्तुतः अशोक ने जिस धर्म को अपनाया और प्रचार किया वह सर्वहितकारी तथा लोक कल्याणकारी धर्म था। उसने ऐसे नैतिक सिद्धांतों का प्रचार किया जिन्हें प्रत्येक जातिधर्म तथा देश के व्यक्ति मान सकते थे। राधाकुमुद मुखर्जी ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि अशोक का धर्म जीवन तथा विचारों के आधारभूत सिद्धांतों का समन्वय था जो आज भी सर्वमान्य है तथा जिन्हें समस्त मानवता पर लागू किया जा सकता है। " प्रसिद्ध विद्वान भण्डारकर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अशोक किन्हीं विशेष नियमों और व्रतों को यन्त्रवत् केवल दिखाने के लिए पालन नहीं करता था। उसने इन तथ्यों को अपनाया था जो आत्मा को ऊँचा उठाते हैं तथा जिनमें वास्तविक विकास के बीज निहित रहते हैं। सम्राट अशोक के धर्म के सम्बन्ध में सेनार्ट ने लिखा है कि " अशोक का धर्म केवल आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों का समूह था। उसने बौद्ध धर्म के विशेष तथा गूढ़ तत्वों पर बहुत कम ध्यान दिया था। "


अशोक के धर्म की विशेषताएँ

  • अशोक ने धार्मिक क्रियाकलाप कर्मकाण्ड और अनुष्ठानों पर जोर नहीं दिया। उसने चरित्र तथा आचरण की शुद्धता और कर्म की पवित्रता पर जोर दिया। एक लेख में उसने इन्द्रियविजय, विचारों की शुद्धता, कृतज्ञता और दृढ़ भक्ति पर बल दिया है। एक अन्य लेख में दया, दान, सत्य, शौच को श्रेष्ठ बतलाया गया है। 
  • इसी प्रकार उसने क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या आदि कुवृत्तियों का दमन करने का उपदेश दिया है। किन्तु अशोक का धर्म कोरे सिद्धांत तक ही सीमित नहीं था।
  • उसने धर्म के व्यावहारिक रूप को भी सामने रखा। माता-पिता, बन्धु-बान्धव, मित्र, साथी, गुरु, नौकर, दास सभी की सेवा तथा भक्ति उसके धर्म के मूल मंत्र थे। 
  • उसका उपदेश था कि गृहस्थों को चाहिए कि वे ब्राह्मणों तथा श्रमणों का आदर करें तथा पशुओं तक के साथ दया का बर्ताव करें। 
  • अशोक के धर्म की सबसे बड़ी विशेषता सहिष्णुता की भावना थी। वह संसार की सभी जातियों और धर्मों में समन्वय स्थापित करना चाहता था। 


उसका बारहवां शिलालेख इसी बात का सबूत है। उसने पारस्परिक सहिष्णुता तथा श्रद्धा पर विशेष जोर दिया और इन भावनाओं के उत्थान के लिये चार तरीकों का प्रतिपादन किया। वे थे-

(i) सभी धर्मों के मूल तत्त्वों की अभिवृद्धि करना

(ii) किसी धर्म की निन्दा नहीं करना और सभी धर्मों की आधारभूत एकता पर जोर देना। 

(iii) विभिन्न धर्म के लोगों को परस्पर मिलाना और आपस में विचार विनिमय करना। 

(iv) अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाने के लिए अन्य धर्मों के ग्रन्थों का अनुशीलन करना ।

 

अशोक के एक लेख पर निम्न वाक्य अंकित किये गये हैं 

जो अपने धर्म का सम्मान करता है और दूसरे धर्मों का निरादर करता है और इस प्रकार अपने धर्म का यश बढ़ाना चाहता है वह वास्तव में अपने धर्म को भी हानि पहुँचाता है। ऐसे मनुष्य में धर्म की वास्तविकता की कमी है। सब धर्मों का सार है कि दूसरे धर्मों का भी आदर करना चाहिए।"

 

  • अशोक ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति को उपदेश तक ही सीमित नहीं रखा वरन् उसे अपने निजी जीवन में चरितार्थ भी किया। उसने ब्राह्मणों, आजीविकों, निर्ग्रन्थों आदि सम्प्रदायों का भी आदर किया और सभी के हितों को ध्यान में रखा। उसने बराबर की पहाड़ी में आजीविका सम्प्रदाय के संन्यासियों के लिए गुफाएँ बनवायीं। 
  • अहिंसा अशोक के धर्म का अन्य महत्त्वपूर्ण अंग थी। उसका कहना था कि जीवन के सभी रूप पवित्र हैं। उसकी अहिंसा मनुष्यों तक ही सीमित नहीं थी; पशु-पक्षियों के जीवन को भी उसने पवित्र माना। शाही भोजनालय के लिए सैकड़ों पशुओं का वध होता था, उसे उसने बन्द करवा दिया। 
  • अहिंसा के सिद्धांतों को उसने व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि राजनीति के क्षेत्र में भी उसको कार्यान्वित करके दिखा दिया। कलिंग विजय के उपरांत उसने युद्ध तथा साम्राज्य विस्तार की नीति को सदैव के लिए त्याग दिया। संसार के इतिहास में इस प्रकार का अन्य उदाहरण मिलना असम्भव है।


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