बौद्ध और जैन धर्मों का तुलना | बौद्ध और जैन धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन | Baudh Aur Jain Dharm Ki Tulna
बौद्ध और जैन धर्मों का तुलना
बौद्ध और जैन धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन
बौद्ध धर्म और जैन के बीच समानता
- समानताएं बौद्धधर्म और जैनधर्म दोनों ही उस सामान्य धार्मिक तथा आध्यात्मिक चेतना के प्रतिफल थे जिसका उद्भव भारत में सातवीं तथा छठीं शताब्दी ईसवी पूर्व के लगभग हुआ था। अतएव उनमें कुछ पारस्परिक समानताओं का होना स्वाभाविक है।
- दोनों ही धर्मों के प्रवर्तक ब्राह्मण न होकर राजवंशीय क्षत्रिय थे। इन्होंने सिद्धांतों का प्रचार संस्कृत भाषा में न करके प्राकृत भाषा में किया।
- दोनों ने ही अपने-अपने मतों के लिए जाति और लिंग के बन्धन को तोड़ दिया। बलि प्रथा का विरोध दोनों ने किया।
- दोनों ने ही अपने उपदेश में कर्म के सिद्धांत को स्वीकार किया। दोनों ने ही इस बात पर बल दिया कि प्राणी को अपने कर्मों के कारण ही बार-बार जन्म लेना पड़ता है।
- दोनों धर्मो ने वेदों को ईश्वरीय वाक्य स्वीकार नहीं किया। वे इनको अपने धर्मों का आधार नहीं मानते थे यद्यपि वैदिक साहित्य का उन दोनों पर प्रभाव था।
- दोनों ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आन्दोलन किया और जाति प्रथा अन्य प्रकार के विभेदों को निर्मूल करने का घोर यत्न किया। जीवन की पवित्रता में दोनों का अटूट विश्वास था। उच्च और नैतिक आचरण तथा विचारों के द्वारा ही प्राणी निर्वाण को पा सकता है, किन्तु जब तक मन वचन और कर्म की पवित्रता नहीं आयेगी तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं किया जा सकता है। दोनों ने ही चोरी और जीवन हरण का विरोध किया।
- दोनों ने ही इन्द्रिय इच्छाओं के दमन पर बल दिया है।
- निर्वाण प्राप्ति के लिए कठिन जीवनयापन करने की शिक्षा दोनों ने दी है। यह दूसरी बात है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक ने इस कठोर जीवनयापन पर कुछ कम जोर दिया है।
- बौद्धमत और जैनमत दोनों ने ही निर्वाण प्राप्ति के लिए सत्य चरित्र और सत्य ज्ञान पर बल दिया है। इस सम्बन्ध में दोनों ही वैदिक विधि-विधानों के विरुद्ध रहे हैं।
- निर्वाण प्राप्ति को दोनों ने जीवन का लक्ष्य बताया। दोनों के संघ के अनुयायी दो भागों में विभक्त थे एक उपासक तथा दूसरे साध्वी।
- दोनों ने संघ व्यवस्था की स्थापना कर अपने धर्म का प्रचार किया। संघ के नियम अत्यन्त कठोर रखे गये थे। संघ के प्रत्येक सदस्य को उन नियमों का पालन अनिवार्य रूप से करना पड़ता था। ऐसा नहीं करने वालों के विरुद्ध अनुशासन भंग करने की कार्रवाई की जाती थी।
- दोनों धर्मों का उदय भारत के एक ही प्रान्त में हुआ और पर्याप्त समय तक दोनों का कार्यक्षेत्र उसी प्रान्त की सीमाओं तक सीमित रहा।
बौद्ध और जैन धर्मों धर्मों की विषमता/ असमानता
- जीवन की पवित्रता की ओर तो दोनों ने ध्यान दिया था, किन्तु इस दृष्टि से जैन धर्म बौद्धधर्म की अपेक्षा बहुत आगे था जैन मतावलम्बी जीव रक्षा में बहुत आगे थे। वे नहीं चाहते थे कि साधारण से साधारण जीव भी उनके कारण मारा जाये। सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना तथा मुख आगे हर समय कपड़े का एक टुकड़ा धारण किये रहना उनकी उपरोक्त धारणा के परिणाम थे।
- निर्वाण प्राप्ति के लिए जैन मतावलम्बी बौद्धों से अधिक कठोर जीवन बिताते थे। बुद्ध ने अत्यधिक शरीर यातना को वर्जित ठहराया था। किन्तु महावीर के अनुयायी इस दृष्टि से बहुत आगे बढ़ गये थे। महावीर ने भी अपने शरीर को यातनाएँ दी थीं।
- जब कोई नया व्यक्ति जैनमत में प्रविष्ट होने के लिए जैन मन्दिर में जाता तो उसे अपने सिर के एक-एक बाल को अपनी सहनशीलता प्रकट करने के लिए अपने ही हाथों से नोचना पड़ता था। इस प्रकार शरीर को यातना देने में जैनधर्म बौद्धधर्म से बहुत आगे था।
- यह ठीक है कि जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म हिन्दू से पृथक् थे। पर जहाँ बौद्धधर्म ने अपने आपको हिन्दूधर्म से पूरी तरह अलग कर लिया था। वहाँ जैन मतावलम्बियों ने हिन्दू धर्म से पूर्णतया नाता नहीं तोड़ा। जैन धर्म को मानने वाले ब्राह्मणों से सम्पर्क बनाये रखे।
- जैन लोग गृहस्थ को महत्त्व देते थे। परन्तु बौद्ध लोग संघ को अधिक महत्त्व देते थे।
- बौद्ध लोग अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि आठ बातों पर बल देते थे जिन्हें वे अष्टांगिक मार्ग कहते थे, परन्तु जैन लोग केवल सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र पर बल देते थे जिन्हें ये त्रिरत्न कहते थे।
- बौद्ध मत के अनुयायी राजाओं और सम्राटों ने पूर्ण उत्साह और शक्ति से अन्य धर्मावलम्बियों को अपने धर्म में लाने की कोशिश की। जबकि जैन धर्म को भारत के महान सम्राटों का संरक्षण प्राप्त नहीं हो सका।
- बौद्धधर्म में भिक्षुओं को जितना अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है उतना उपासकों (गृहस्थ) को नहीं। किन्तु इसके विपरीत जैनधर्म में संन्यासियों की अपेक्षा गृहस्थों को ही अधिक महत्त्व दिया गया है।
- जैनधर्म ने हिन्दूधर्म से कभी भी पृथकता का संबंध नहीं स्थापित किया, जबकि बौद्धधर्म ने पृथकता की नीति का ही अवलम्बन किया। बात यह थी कि बौद्धों का दृष्टिकोण आरम्भ से ही क्रान्तिकारी था, जिससे वे प्रचलित धार्मिक विश्वासों के साथ सामन्जस्य स्थापित नहीं कर सके। परन्तु जैन धर्म का दृष्टिकोण सहिष्णुतापूर्ण था। यद्यपि जैनमत की शिक्षाओं में भी जाति भेद का विरोध किया गया, यह विरोध बौद्ध धर्म के विरोध की तुलना में कहीं अधिक नरम और हल्का है।
- स्वयं बुद्ध ने कई स्थानों पर जाति भेद की तीव्र शब्दों में निन्दा की और यज्ञादि का खण्डन भी किया। परन्तु जैनियों ने तत्कालीन जीवन की प्रचलित व्यवस्थाओं पर कोई प्रबल कुठाराघात नहीं किया। कालान्तर में जैनियों और वैष्णवों में आचरण की इतनी अधिक समानता हो गयी कि उनमें करना कठिन गया। आज भी जैनियों और वैष्णवों का आचरण बिल्कुल एक-सा ही है।
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