बौद्धधर्म की सफलता और लोकप्रियता के प्रमुख कारण |Baudh dharm ki safalta ke karan
बौद्धधर्म की सफलता और लोकप्रियता के प्रमुख कारण बौद्धधर्म का प्रचार बौद्धधर्म की सफलता
- प्राचीनकाल में बौद्धधर्म का बहुत अधिक और शीघ्र प्रचार हुआ। गौतम बुद्ध को अपने जीवनकाल में ही अपने सिद्धांतों को फैलाने में अपूर्व सफलता मिली। बाद में इस धर्म का खूब प्रचार प्रसार हुआ और यह शीघ्र ही न केवल भारत का वरन् एशिया के अधिकांश पूर्वी एवं उत्तर दक्षिणी क्षेत्र का एक अत्यन्त ही लोकप्रिय धर्म हो गया। इस समय भी देश-विदेश में इस धर्म के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान हैं।
बौद्धधर्म की सफलता और लोकप्रियता के प्रमुख कारण
बौद्धधर्म की सफलता के कारण
धार्मिक सरलता
- यह कहना अनुचित नहीं कि भारत में बौद्धधर्म का उदय एक धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप था। वह धार्मिक क्रांति वैदिक धर्म के कर्मकाण्डों और पुरोहितों के प्रभाव के विरुद्ध हुई थी। जिस समय बौद्धधर्म का अभ्युदय हुआ उस समय की सामाजिक तथा धार्मिक स्थितियाँ उसके अनुकूल थीं। वैदिक धर्म काफी पुराना था। उसमें पहले जैसी सरलता, स्वाभाविकता और पवित्रता नहीं रह गयी थी। प्रारम्भ में यज्ञादि अनुष्ठानों में इतना आडम्बर नहीं था लेकिन बाद में धार्मिक कर्मकांड को ही साध्य समझा जाने लगा। लोग सदाचार को भूलकर कर्मकांड की बीमारियों में दिमाग खपाने लगे। यज्ञों तथा बलिदानों में ऐसी जटिलता आ गयी थी और उन पर इतना अधिक धन व्यय करना पड़ता था कि ये साधारण व्यक्ति की पहुँच के बाहर की चीज हो गये थे। अतएव, जब बुद्ध ने वैदिक कर्मकांड का विरोध करते हुए ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देना शुरू किया तो अनेक लोग उनके उपदेशों से प्रभावित हो गये और उनका शिष्य बनना स्वीकार किया। बुद्ध के उपदेश सरल तथा सादा थे। उनका आधार सदाचार था न कि पूजा पाठ। ऐसी दशा में जनता का उनकी ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक था। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि महात्मा बुद्ध ने जीवन की जो व्यवस्था की उसमें किसी प्रकार की दार्शनिक जटिलता अथवा दुर्बोधता का अभाव था। बुद्ध ने सरल और स्पष्ट शब्दों में समझाया कि मानव जीवन दुखमय है।
- अतएव, बार-बार जन्म ग्रहण करना दुख का कारण है। मनुष्य की अन्तर्निहित वासनाओं के ही कारण उसे पुनः जन्म लेना पड़ता है। अतएव उसका कर्तव्य है कि वह उन वासनाओं का समूलोन्मूलन करें। इस कार्य के लिए उसे मध्यम पथ का सेवन करना चाहिये। कर्मवाद के सिद्धांत का बुद्ध ने प्रतिपादन किया और बड़े सरल शब्दों में समझाया। उन्होंने मनुष्य को स्वावलम्बी होने का उपदेश दिया। उनके इन उपदेशों में ऐसी कोई बात नहीं है जिसको समझने में कठिनाई का अनुभव करना पड़े। बुद्ध स्वयं बड़े ही सूक्ष्म विचारक थे और उन्होंने अपने सिद्धांतों को जिस रूप में जनता के सम्मुख रखा उससे उनकी प्रतिभा की मौलिकता का परिचय प्राप्त होता है। उन्होंने अपने सिद्धांतों में आचार और कर्म को अधिक महत्त्व दिया। दार्शनिक सिद्धांतों की सूक्ष्मता और पेचीदगी में वे तनिक भी नहीं पड़े। बुद्ध ने आचारवादिता पर इतना अधिक बल प्रदान किया कि कुछ लोगों की सम्मति में बौद्धधर्म एक धर्म न होकर आचार के कतिपय नियमों का समूह है। वस्तुतः वैदिक धर्म में विकृति तथा विकार उत्पन्न हो जाने के कारण ही बौद्धधर्म का अभ्युदय हुआ था और वैदिक धर्म के दोषों के कारण ही बौद्धधर्म की उन्नति अत्यन्त द्रुतगति से हुई।
बुद्ध का व्यक्तित्व
- बौद्धधर्म के प्रचार में महात्मा बुद्ध के चुम्बकीय व्यक्तित्व का बहुत योग था। उनका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली, तेजस्वी और महान् था। उनका चरित्र इतना सरल और पवित्र था कि जो भी उनके सम्पर्क में आया उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। वास्तव में उन्होंने अपने सिद्धांतों को अपने जीवन में पूर्णरूपेण चरितार्थ करके दूसरों पर अपने विचार की श्रेष्ठता की धाक जमायी। कुछ स्वार्थी लोगों ने उन्हें बदनाम करने का यत्न किया किन्तु उनके चरित्र की उच्चता के सामने उनके सारे यत्न विफल रहे। मनुष्य को चाहिए कि वह क्रोध पर प्रेम से, बुराई पर भलाई से, लोभ पर उदारता से और झूठ पर सच्चाई से विजय प्राप्त करें। अपने इस उपदेश को बुद्ध ने स्वयं अपने जीवन में पूर्णरूपेण निबाहा तात्पर्य यह है कि बुद्ध के धर्म की लोकप्रियता के और कुछ भी कारण रहें हो किन्तु उनके चरित्र ने अपने आप जनता का दिल जीत लिया। बुद्ध के अद्भुत अलौकिक और महान् व्यक्तित्व ने बौद्धधर्म की उन्नति में महत्त्वपूर्ण भाग लिया, जिससे उसका उत्थान अति शीघ्र हुआ।
- बुद्ध स्वयं एक राजकुमार थे किन्तु उन्होंने राजसुखों को छोड़कर लोककल्याण के लिए सन्यासव्रत ग्रहण कर लिया था। इस कारण सभी बुद्ध के व्यक्तित्व से प्रभावित थे वो गालियाँ सुनने पर भी मानसिक सन्तुलन बनाये रखते थे। उनकी दृष्टि में मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं था। बौद्धधर्म के प्रचार में इस बात से बड़ी सहायता मिली।
साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग
- बुद्ध ने अपने उपदेश साधारण जनता की बोलचाल की भाषा में दिये। इस समय के सभी धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखित थे। धार्मिक वाद-विवाद और व्याख्यान आदि सभी संस्कृत भाषा में होते थे। साधारण जनता इस भाषा के प्रति उदासीन हो गयी थी, क्योंकि जनसाधारण की बोलचाल की भाषा पाली थी। बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार पाली में शुरू किया। इससे उन्हें धर्म प्रचार के कार्य में बड़ी सहूलियत मिली। बुद्ध का अभिप्राय अपनी विद्वता दिखाना नहीं था, बल्कि सरल से सरल भाषा में अपने विचारों को रखना था, जिससे प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी विशेष कठिनाई के उन्हें ग्रहण कर सके। किसी बौद्ध ग्रन्थ में इस बात का उल्लेख मिलता है कि एक बार बुद्ध से किसी ब्राह्मण शिष्य ने प्रश्न किया कि आप संस्कृत में अपने उपदेश क्यों नहीं देते? इस पर बुद्ध ने उत्तर दिया “मैं गरीबों की भाषा द्वारा गरीबों तक पहुँचना चाहता हूँ।" बुद्ध भली भांति जानते थे कि संस्कृत का प्रयोग केवल सुशिक्षितों में ही प्रचलित है। अतएव, संस्कृत में उपदेश देने से उनके शिक्षाओं का प्रचार केवल थोड़े से पढ़े लिखे व्यक्तियों के बीच ही हो सकेगा। यही कारण है कि उनके विचार बड़े लोकप्रिय सिद्ध हुए। अशिक्षित स्त्री-पुरुष को उन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
तर्कसम्मत धर्म
- बौद्धधर्म के उत्थान का प्रमुख कारण उसका तर्कसम्मत होना था। बुद्ध ने अन्धविश्वास का परित्याग करके तर्क को अपनाया। उनकी तर्कपूर्ण धार्मिक विवेचना की सरलता हिन्दू धर्म के बड़े-बड़े दिग्गज महारथियों तक को परास्त कर निरूत्तर कर दिया करती थी। बड़े-बड़े प्रसिद्ध विद्वान और महाकश्यप सारिपुत्र जैसे हिन्दू धर्म के महान आचार्य तक पराजित होकर उनके शिष्य बन गये थे।
सहिष्णुता की भावना
- बौद्धधर्म के सिद्धांतों में सहिष्णुता की मात्रा बहुत अधिक थी जिसने लोगों को बहुत प्रभावित किया। बुद्ध मतवादी नहीं थे। उनके विचारों में किसी प्रकार की कट्टरता अथवा असहिष्णुता नहीं थी। यही कारण था कि राजा महाराजा, सेठ, साहूकार, ब्राह्मण, क्षत्रिय सभी ने उनके उपदेशों को ग्रहण किया। उनके समकालीन कट्टर ब्राह्मणों ने भी संगठित रूप से उनका कोई विरोध नहीं किया। इससे सिद्ध होता है कि बुद्ध ने कोई ऐसा प्रचार नहीं किया जो किसी अन्य धर्मानुयायी को बुरा लगता।
जातिपाति से परे धर्म
- महात्मा बुद्ध ने जातपात को अपने धर्म में कोई स्थान नहीं दिया। बौद्धधर्म का द्वार सम्पूर्ण मानवता के लिए खुला रखा। बुद्ध के अनुसार समस्त वर्णों के व्यक्ति निर्वाणपद प्राप्त करने के अधिकारी थे। इससे उनकी ओर केवल वे लोग स्वतः आकृष्ट हुए जिसके लिए ब्राह्मण धर्म के द्वार बन्द थे जो जनता ब्राह्मणों के ऊँच-नीच के व्यवहार से तंग आ गयी थी उसको बौद्धधर्म में सामाजिक मुक्ति का द्वार दिखायी पड़ा। महात्मा बुद्ध ने आचार और विचार की पवित्रता पर विशेष बल दिया था। यह पददलित लोगों को आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त था। समाज के दलित वर्ग ने उनके उपदेशों को उत्साह के साथ ग्रहण किया। उस समय हिन्दू समाज में अस्पृश्यता की घृणित प्रथा जड़ जमाये हुए थी। उससे ऊबकर हजारों की संख्या में अस्पृश्य कहे जाने वाले व्यक्तियों ने बौद्धधर्म को अंगीकार किया और हिन्दू धर्म के साथ अपना सम्बन्ध तोड़ लिया।
प्रचारकों की लगन
- बौद्धधर्म के प्रचारकों ने बौद्धधर्म के प्रचार के लिए घोर प्रयत्न किये। इस धर्म को ऐसे शिष्यों तथा अनुयायियों का दल प्राप्त हुआ, जिन्होंने उनके उपदेशों का प्रचार पूर्ण उत्साह से किया विश्व के इतिहास में किसी भी महापुरुष के अनुयायियों ने अपने गुरू के आदेश के पालन में इतना उत्साह, इतनी तत्परता तथा इतना त्याग नहीं प्रदर्शित किया, जितना बुद्ध के अनुयायियों ने किया। स्वयं महात्मा बुद्ध बहुत बड़े प्रचारक थे। ज्ञान प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए काफी प्रयत्न किया।
- बौद्धधर्म एक सुधार आन्दोलन के रूप में अपने प्रचारकों की प्रेरणा का स्वयं साधन था और प्रचारकों ने अपनी जान हथेली पर रखकर सुदूरस्थ स्थानों की दुर्गम्य मार्गों से यात्रा की। बौद्धधर्म के प्रचार में इन्होंने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। जिन निःस्वार्थ सेवी, मनीषियों, विद्वानों आचार्यों और भिक्षुओं ने महासागर की उत्ताल तरंगों से उद्वेलित लंका, जावा, सुमात्रा और चीन आदि देशों की केवल आर्यधर्म के अहिंसात्मक बौद्ध सिद्धान्तों के पवित्र सन्देश देने के लिए ही लम्बी-लम्बी यात्राएँ की उनकी इस दशा में असाधारण लगन अत्यन्त सराहनीय है। इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न समयों पर बौद्धधर्म की सभाएँ हुईं जिनसे इस धर्म के प्रचार में बड़ा सहयोग मिला। इस प्रकार की चार बौद्ध सभाएँ विभिन्न समयों पर हुई थीं, जिनमें इस धर्म के सिद्धांतों का संकलन किया गया तथा उनको व्यावहारिक रूप प्रदान किया गया।
प्रचार शैली की रोचकता
- बुद्ध ने जिस प्रचार शैली को अपनाया वह नितांत सरल, सुबोध और लोकरुचि के अनुकूल थी। उन्होंने लोककथाओं, लोकोक्तियों और मुहावरों को अपनी शिक्षाओं में प्रचुरता से प्रयोग किया। अपने सिद्धांतों को समझाने के लिए वे जिन उदाहरणों और उपमाओं का प्रयोग करते थे, उनका सीधा सम्बन्ध मनुष्य के दैनिक जीवन से होता था। वे अपने उपदेशों में हास्य और व्यंग्य का भी उचित मात्रा में पुट दिया करते थे जिससे उनमें रोचकता आ जाती थी। वे गूढ़ तत्वज्ञानी होने के साथ व्यावहारिक जीवन में भी निपुण थे। उनके द्वारा दिये गये दृष्टांत उनकी व्यावहारिक निपुणता का परिचय देते हैं। बुद्ध ने अपने शिष्यों को भी इसी नीति का अनुसरण करने की शिक्षा दी, जिससे बौद्धधर्म का प्रचार कार्य सरल हो गया।
संघ का संगठन
- बुद्ध केवल एक महान दार्शनिक और धर्मप्रवर्तक ही नहीं थे वरन् उनमें संगठन की अपूर्व क्षमता थी। उन्होंने यह भली भांति समझ लिया था कि सुव्यवस्थित संगठन के अभाव में कोई धर्म अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। अतएव उन्होंने अपने अनुयायियों को एक सुदृढ़ संगठन में बंध जाने की सलाह दी। बौद्धधर्म की सफलता का मुख्य कारण संघ का संगठन भी था। बुद्ध का जन्म एक संघ राज्य में हुआ। अतएव संघ की स्थापना में उनकी विशेष रुचि थी। भिक्षुओं को संगठित करते समय उनका भी उन्होंने एक संघ बनाया। बौद्ध संघ का संगठन शुद्ध जनतांत्रिक ढंग पर था। इस स्वरूप ने संघ को लोकप्रिय बनाया। जिन धार्मिक संघों में ऊँच-नीच और छोटाई बड़ाई की भावना होती है और जिनमें पदाधिकारीगण अपना प्रभुत्व कायम रखना चाहते हैं तथा अपने को श्रेष्ठ समझकर शिष्य वर्ग से हर प्रकार की सेवा लेना अपना अधिकार समझते हैं वे साधारण जनता को आकर्षित करने में अधिक सफल नहीं हो पाते। कम से कम प्रारम्भिक शताब्दियों में बौद्ध भिक्षुओं का जीवन इतना पवित्र और सरल था, उनमें सेवा की भावना कूट-कूट कर भरी थी, अहंकार का इस प्रकार अभाव था कि जनता पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा। बुद्ध ने अपने अनुयायियों को इस प्रकार प्रेरणा दी "भिक्षुओं! बहुत से लोगों के हित के लिए, बहुत से लोगों के सुख के लिए, भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाओ। एक साथ दो मत जाओ।" यही आदर्श उनके शिष्यों ने बहुत समय अपनाया। जब वे इन आदशैँ से हट गये, तो बौद्धधर्म अपनी जन्म भूमि से ही लुप्त हो गया।
राजा महाराजाओं का संरक्षण
- महात्मा बुद्ध के धर्म के उत्थान का एक मुख्य कारण यह भी था कि बड़े-बड़े राजा महाराजा और प्रभावशाली व्यक्ति भी इस धर्म के अनुयायी बनकर उसके प्रचार में भरपूर योगदान दे रहे थे। गौतम बुद्ध स्वयं एक राज्य के उत्तराधिकारी थे और सभी प्रकार के ऐश्वर्यों का त्याग करके जगत के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। उनके इस त्याग का राजा से रंक तक सभी लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ा था। महाराज बिम्बसार, कौशल नरेश प्रसेनजित, अवन्ति के चण्ड प्रद्योत कौशाम्बी के महाराज उदयन और फिर बाद में सम्राट अशोक, कनिष्क, हर्षवर्द्धन आदि ने बौद्धधर्म स्वीकार करके इस धर्म को राजकीय धर्म का उच्च आसन प्रदान किया। सम्राट अशोक जो बौद्धधर्म के इतिहास में द्वितीय बुद्ध के नाम से स्मरण किया जाता है, बौद्धधर्म का प्रबल पोषक था। कलिंग विजय के उपरान्त उसने बौद्धधर्म को अपना राज्य धर्म घोषित कर दिया तथा बौद्धधर्म के प्रचार के लिए जीवनपर्यन्त उद्योग करता रहा। उसने बौद्धधर्म को एक साधारण स्थानीय धर्म से विश्वधर्म के रूप में परिणत कर दिया तथा बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए भारत के बाहर उसने भिक्षुकों को भेजा। अपने पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा तक को भी उसने लंका में धर्मप्रचारार्थ भेज दिया। अशोक ने धन के द्वारा संघ की सहायता करके धर्म का प्रचार किया तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष में शिलाओं व स्तम्भों पर अनेक लेख लिखवाये जिससे उसकी जनता बौद्धधर्म का अनुसरण करने लगी। भारत में अन्य किसी भी धर्म को अशोक के समान श्रद्धालु धर्म प्रचारक ने राज्याश्रय नहीं दिया। अशोक के पश्चात् कनिष्क ने बौद्धधर्म का प्रचार चीन तक किया। हर्ष भी बौद्धधर्म का प्रबल पोषक था। इन सम्राटों के सत्प्रयत्नों के कारण बौद्धधर्म का अत्यधिक प्रसार हुआ।
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